केदारनाथ यात्रा: धूल, धुएं, बाजार, बुलडोजर और कारोबार का दर्शन


यात्राओं को लेकर मन में गुदगुदी कब से होने लगी यह तो याद नहीं लेकिन यात्रा करना तब शुरू किया जब नौकरी करने लगा। इसका मुख्य कारण यह है कि आपको अपनी पसंद की यात्रा करने की आज़ादी शायद तभी मिलती है जब आप खुद अपने पैरों पर खड़े होते हैं और निर्णय लेने में सक्षम हो पाते हैं।

मेरे जीवन में जो दो-चार अच्छी चीज़ें हैं और जिन्हें मैं जीवन भर करते रहना चाहता हूँ उनमें से एक है- यात्रा। हालांकि मैं फिलॉसफी का स्टूडेंट रहा हूँ लेकिन यहाँ दर्शन की बात नहीं कर रहा। असल में यात्रा करना बहुत अच्छा लगता है और मुझे इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि मैं अकेला हूँ या कुछ लोगों के साथ। अक्सर मैं यात्रा पर अकेले ही निकल जाता हूँ। आजकल यात्रा के क्रम में लोगों द्वारा हर चीज़ की तस्वीरें लेना एक सामान्य सी बात हो गई है लेकिन मुझे तस्वीर खींचने के बजाय हर दृश्य और उस पल को अपनी आँखों से देखना ज़्यादा पसंद है। जिस भी जगह जाता हूँ कोशिश रहती है वहाँ के लोगों का रहन-सहन और वहाँ का खाना, उनकी संस्कृति को करीब से देखने और समझने का प्रयास करता हूँ।

इन सब में सबसे ज़रूरी बात जो देखता हूँ वो यह है कि जो खूबसूरती देखकर मैं वहाँ पहुँचा कहीं वो कम तो नहीं हो रही। भारत में आज ज़्यादातर पर्यटन स्थलों का यह हाल है कि लोग घूमने तो जा रहे हैं लेकिन एक पर्यटक के रूप में उस जगह के प्रति उनका लगाव और दायित्वबोध बहुत कम दिख रहा है। इस मामले में सरकारों का रुख भी इससे अलग नहीं है, पर्यटकों की सुविधा के नाम पर उन स्थानों की मौलिक सुंदरता को नुकसान पहुँचाकर वहाँ तेज़ी से खुल रहे होटल और निर्माण कार्य इसका सबसे बड़ा उदाहरण है।

आज एक यात्रा पर ले जाने से पहले मैं आपको अपने जीवन की पहली यात्री के बारे में बताना चाहता हूँ, जिन्होंने पहली बार जाने-अनजाने में मुझे यात्राओं से परिचित करवाया। तब तो मुझे यात्रा का मतलब भी नहीं पता था और ना ही ऐसा लगता था कि यात्रा करूँ। उस उम्र में जब यात्रा के नाम पर मेरे हिस्से केवल नानी का घर आता था और अपने घर से एक किलोमीटर दूर सुबह एक बस मिलती जो दो घंटे में नानी घर से थोड़ी दूर वाली सड़क पर उतार देती थी। फिर कुछ दिन वहाँ रहना और फिर वापस। लेकिन हर साल आने वाली इस यात्रा का इंतज़ार तो रहता ही था।

खैर! मैं बात कर रहा था अपने जीवन की पहली यात्री के बारे में। बचपन में मेरी आदत थी दादी के पास सोने की। उसकी सबसे बड़ी वजह थी उनकी रोज़ की कहानियाँ और उससे भी ज़रूरी चीज़ उनका हाथ नींद में भी पंखा झलता रहता था। इसीलिए उनके पास सोने के लिए लड़ाई होती थी लेकिन घर में सबसे छोटा होने के नाते मुझे जिता दिया जाता था। अपनी दादी के बारे में बताऊँ तो मेरी दादी इतना तेज़ चलती थी कि हम लोगों को उनके साथ चलने के लिए दौड़ना पड़ता था। गाँव के लोग जब तक जगते थे तब तक दादी घर से दस किलोमीटर दूर शिव के मंदिर में जल चढ़ाकर आ जाती थीं। रोज़मर्रा की इस आदत को तो वह यात्रा में जोड़ती भी नहीं थीं। यह उनके लिए अपने खेत घूमकर आने जैसा था। गाँव में इस बात की चर्चा थी कि काकी बड़ी तेज़ चलती हैं, बड़ी हिम्मत है उनमें, इसीलिए गाँव की कोई महिला उनके साथ पैदल मंदिर जाने को तैयार नहीं होती थी।

दादी बताती थीं कि उन्होंने अपने जीवन में बहुत यात्राएँ की। चारों धाम उन्होंने कई दफा किए। इसके अलावा जितने भी बड़े धार्मिक स्थल, ज्योतिर्लिंग हैं, सब जगह वह जा चुकी थीं। इन सब में मुझे उनकी केदारनाथ यात्रा की कहानी अब भी अच्छे से याद है, हालांकि वो कई बार केदारनाथ जा चुकी थीं लेकिन एक बार की वहाँ की यात्रा के बारे में दादी बताती थीं कि वह दादा और गाँव के कुछ लोगों के साथ केदारनाथ गई थीं। उस यात्रा की कहानी सुनाते-सुनाते वो कहती थीं ‘पहाड़ पर खड़ी रहती थी और बादल हाथ से छू लेती थी’, यह सुनकर हम लोग दादी का मुँह देखने लगते थे। अपनी दादी थी तो मान लेते थे, कोई और कहता तो झूठ ही समझते।



करीब दो साल पहले मुझे भी अपने एक दोस्त के साथ केदारनाथ की पैदल यात्रा पर जाने का मौका मिला। केदारनाथ यात्रा का ट्रेक देश के सबसे लंबे ट्रेक्स में से एक है इसलिए मुझे वहाँ तो जाना ही था। मैं यात्रा सिर्फ यात्रा के लिए करता हूँ और ट्रेकिंग मुझे यात्रा का सबसे अच्छा हिस्सा लगता है। यात्रा दिन में करीब दो बजे बेस कैम्प से शुरू हुई। 2013 में हुई तबाही के चलते जाने का नया रास्ता बन गया है। 22 किमी की यात्रा शुरू की तो लगा अभी देखते-देखते पहुँच जाएँगे। वो सामने ही तो मंदिर दिख रहा! लेकिन करीब दो किलोमीटर चलने के बाद ही पता चल गया कि रास्ता इतना आसान नहीं है।

रास्ते भर लोगों को अपने शरीर का बोझ दूसरों के कंधों पर लादकर पुण्य कमाने जाते हुए देखता रहा। एक तरफ पहाड़ और दूसरी ओर खाई वाले रास्ते और पत्थरों पर फैले पानी, बर्फ, कीचड़ और गोबर के बीच अपने चिकने खुरों के सहारे इंसानी इच्छाओं के भार ढोते खच्चरों को भी देखता रहा। इन्हें देखकर लगा यह इनके लिए किस प्रकार की यात्रा है।

हम थोड़ी दूर जाकर थके लेकिन तय था कि ना खच्चर पर चढ़ेंगे ना इंसान पर। हिम्मत है तो खुद से चलेंगे वर्ना लौट जाएँगे। आदतन हिम्मती हूँ तो यात्रा के आखिरी पड़ाव पर पहुँच ही गया लेकिन ऊपर पहुँच जाने के बाद भी हम लोग मंदिर को ढूँढते रहे कि मंदिर आखिर है कहाँ? काफी दूर ऊपर चलने के बाद मंदिर की चोटी दिखी। फिर जब उसके पास पहुँचा तो समझ आया कि मंदिर कहाँ छुपा है। मंदिर छुपा था वहाँ चारों तरफ से घिरे होटल और रेस्टॉरेंट के बीच में। फिर आसपास देखा तो बस देखता ही रह गया।

वहाँ का नज़ारा ऐसा था कि चारों ओर निर्माण कार्य, हेलीकॉप्टर से करीब 12000 फीट पर पहुँचे कई बुलडोज़र, जेसीबी मशीनें, बड़े बड़े पत्थरों को तोड़ती मशीनें और धूल-धुआँ। थोड़ी देर तो लगा कि गलती से किसी कंस्ट्रक्शन साइट पर पहुँच गया हूँ। ये क्या है? कौन लोग हैं जिन्हें यहाँ आकर भी फाइव स्टार होटल में रहना है? जिस जगह पर एक दशक पहले ही ऐसी आपदा आई हो वहाँ ऐसा काम? आखिर उस भयानक विभीषिका से कोई सबक क्यों नहीं लिया गया? ये किस तरह का पर्यटन है? जब पर्यटन स्थल ही नहीं रहेगा तो लोग आएंगे कहाँ? यह सब सरकार को अपनी पर्यटन नीति बनाते वक्त दिखता क्यों नहीं?

यह सब देखकर मैं 20 साल पीछे चला गया जब दादी ने केदारनाथ यात्रा की कहानी सुनाई थी। वो मौसम, वो पैदल यात्रा, वो उनका बादलों को हाथों से छूना और फिर उन यादों से इतर जब आँख खोलकर सामने देखा तो सच उसके एकदम विपरीत। खैर! उतनी दूर गए थे तो मंदिर में दर्शन किए और फिर मंदिर के पीछे बड़ी सी शिला को देखा और बहुत दूर उसके पीछे पहाड़ों से बाहर नीचे आती दूध धारा को देखा। एक तरफ ये खूबसूरती और दूसरी तरफ इस खूबसूरती को नष्ट करती व्यवस्था। मन बहुत दुखी हुआ। लगा कुछ कर दूँ, यह सब यहाँ से हटा दूँ, क्या इन सब से मैं अकेला ही विचलित हूँ?

वहाँ गए अधिकांश लोग तस्वीरें लेने, वीडियो बनाने, रील बनाने, नाचने में लगे थे। बाकी के कुछ लोग अपने होटलों में मस्त। वहाँ से और ऊपर चढ़कर काल भैरव के मंदिर पहुँचा तो जो ऊपर से दिखा वो दिल तोड़ने वाला था। ऊपर से दिख रहा था एक शहर जैसा नज़ारा, जो केदारनाथ जैसी जगह का नहीं होना चाहिए था। होना तो ये चाहिए था कि लोग पदयात्रा करते आएँ, दर्शन करें, बैठें, ध्यान करें और वापस लौट जाएँ।

मन में अचानक खयाल आया कि हमारे लोगों में एक मामूली सा पर्यटकीय व्यवहार, उस स्थल के प्रति सम्मान की कितनी कमी है! ऐसे जगहों के संरक्षण के प्रति इतनी उदासीनता! हर कोई पहाड़ पर जाना चाहता है लेकिन कोई भी पहाड़ को समझना नहीं चाहता। हर कोई समंदर किनारे घूमना तो चाहता है लेकिन कोई भी उसे साफ नहीं रखना चाहता।



अब बारी थी वापसी की। उतरते हुए हमने कुछ शॉर्टकट रास्ते लिए। और इन शॉर्टकट रास्तों ने यात्रियों और उनकी लापरवाही की सारी पोल खोल दी। ऐसी सुंदर जगह जहाँ बीच से नदी बह रही हो और दोनों ओर पहाड़ और ऊपर भगवान शिव। लोगों ने पत्थरों के नीचे जगह-जगह पर अपनी लापरवाही के सबूत वहाँ फैलाए गए कूड़े के रूप में छोड़ रखे थे। यह तो घूमने वाले लोगों की बात हो गई लेकिन सरकार ने जिन दुकानदारों को केदारनाथ के रास्तों में दुकानें चलाने का लाइसेंस दिया है वो भी उस जगह के प्रति अपने दायित्व से भागते हुए ही दिखे। यह बात एक सभ्य और प्रकृति प्रेमी इंसान को अच्छी बिलकुल नहीं लगेगी।

इतने लंबे रास्ते में सैकड़ों दुकानें हैं लेकिन कचरे के निस्तारण की कोई व्यवस्था नहीं थी। अब दुकानदारों को क्या फ़िक्र पड़ी है। बाज़ार के लिए तो मुनाफा और ज़्यादा से ज़्यादा कमाई करना ही एकमात्र उद्देश्य रह गया है। लोग आते हैं, खाते हैं, पीते हैं और दुकानदार झाड़ू लगा कर सारा का सारा कचरा सीधे झरने के साथ नदी में फेंक देते हैं।

एक दुकानदार से मैंने जब ये पूछा तो उसने बोला- और कहाँ फेकेंगे? उसका ऐसा जवाब सुनकर उस पर क्रोध के अलावा और कुछ नहीं आया। जब वहाँ के लोग खुद उस जगह के प्रति इतने उदासीन हैं तो बाहरी लोगों से भला क्या उम्मीद की जा सकती है? ऐसे तो ज़्यादा दिन नहीं बचा रह पाएगा केदारनाथ और केदारनाथ जैसी अन्य जगहें। लाखों लोग हर साल वहाँ जाते हैं और उस जगह को नुकसान पहुँचाकर आते हैं। सरकार वाहवाही लूट लेती है लेकिन वहाँ की स्थिति को नज़रअंदाज करती है।

भारत या दुनिया के किसी भी पर्यटन स्थल की ख़ूबसूरती उसकी मौलिकता में होती है। वो जैसे हैं वैसे ही बने रहें। जब हर जगह बाज़ार घुसेगा, हर खूबसूरत जगह का बाज़ारीकरण होगा तो कितने दिन बचे रह पाएँगे ये नदी-पहाड़, ये झील-झरने, ये समंदर और उसकी मौलिकता। सोशल मीडिया पर सबको सुंदर-सुंदर पर्यटक स्थलों की तस्वीरें चाहिए लेकिन ज़मीनी हकीकतों व समस्याओं से कोई ताल्लुक नहीं रखना चाहता। सरकारें भी इस विषय पर असंवेदनशील दिखती हैं। ऐसा ही चलता रहा तो पर्यावरण की यह क्षति बहुत बड़ी समस्या के रूप में हमारे सामने आने वाली है। इसलिए हमें चाहिए कि हम पर्यावरण के प्रति संवेदनशील हों, एक जागरूक यात्री बनें ताकि प्राकृतिक संपदा को संरक्षित रखा जा सके।


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