कोरोना पर तो देर-सवेर विजय पा लेंगे, लेकिन नष्ट हो रही सामाजिक विरासत का क्या?


संकट के समय किए गए व्यवहार से किसी समाज तथा राष्ट्र के चरित्र का परीक्षण होता है। यह वह समय होता है जिसमें प्रत्येक नागरिक को अपने अंदर सुषुप्त अवस्था में व्याप्त नायक तत्व को जागृत कर देश तथा समाज के लिए खड़ा होना होता है। हम इसमें विफल होते दिख रहे हैं।

हमारा व्यवहार हमारी सामाजिक विरासत को ही नष्ट कर रहा है। कोरोना महामारी ने हमारी सामाजिकता के मूल मंत्र मेल मिलाप की व्यवस्था को खंडित कर हम सबको अपने घरों तक सीमित कर दिया है। ऐसे में संचार माध्यमों ने हम सब को एक साथ जोड़े रखा है। इस नई संचार व्यवस्था में सोशल मीडिया की बहुत सशक्त भूमिका उजागर हुई है। सोशल मीडिया ने महामारी से संबंधित जानकारी के प्रचार प्रसार में अहम भूमिका निभाई है, परंतु भारत में कोरोना वायरस तीव्र होने के साथ ही सोशल मीडिया पर दुष्प्रचार भी अपने चरम पर पहुंच चुका है। लोग बीमारी का धर्म ढूंढने में लग गए हैं तथा बिना दीर्घगामी परिणामों की चिंता किए मुद्दों का साम्प्रदायिकीकरण कर रहे हैं जो एक गहरे संकट की तरफ इशारा करता है।

यह समझना आवश्यक है कि भारत जैसा देश, जिसमें लगभग 30 करोड़ लोग फेसबुक, 40 करोड़ व्हाट्सएप तथा 1.315 करोड़ ट्विटर का प्रयोग करते हों वहां पर सोशल मीडिया पर फैलाई जा रही नफरत हमारे समाज के सौहार्द के लिए कितनी घातक सिद्ध हो सकती है। इंडिया टाइम्स की 15 अप्रैल की खबर के मुताबिक भारत में लोग औसतन प्रति व्यक्ति 17 घंटे प्रति सप्ताह सोशल मीडिया पर खर्च करते हैं जो विश्व में सबसे ज्यादा है। भारत में बड़ी संख्या में उपभोक्ताओं की उम्र 18 से 24 साल के मध्य बतायी जाती है। सहसा ही अनुमान लगाया जा सकता है कि नौजवान पीढ़ी सोशल मीडिया से कितनी प्रभावित है। बड़ी संख्या में लोगों की मनोवृत्ति सोशल मीडिया के माध्यम से प्रभावित हो रही है।

प्रायः देखा गया है कि यहां नकारात्मक विचार अनायास ही शीर्ष पर ट्रेंड करने लगते हैं। समुदाय, धर्म विशेष को निशाना बना कर की गयी पोस्ट से समाज में संशय तथा भय का वातावरण उत्पन्न हो रहा है जिससे महामारी के खिलाफ लड़ाई भी प्रभावित हो रही है। मामले की गंभीरता को देखते हुए हमारे प्रधानमंत्री को भी ट्वीट के माध्यम से लोगों से अपील करनी पड़ी कि आपसी वैमनस्य न बढ़ाएं तथा सामाजिक सौहार्द तथा आपसी भाईचारा बनाये रखें।

प्रिंसटन विश्वविद्यालय के कारस्टन मुल्लर तथा कारलो सचवारज ने अपने शोध में पाया है कि सोशल मीडिया सिर्फ घृणास्पद विचारों को फैलाने का उपयुक्त माध्यम ही नहीं बल्कि यह वास्तविक जीवन में हिंसात्मक व्यवहार करने के लिए प्रेरित करता है। स्थिति वाकई चिंताजनक है। अकेले महाराष्ट्र में ही अब तक अफवाहें, नफरत तथा झूठी सूचनाएं फ़ैलाने के लिए 363 लोगों पर कार्रवाई की जा चुकी है। ऐसा प्रतीत होता है कि सोशल मीडिया आज हमारे सामाजिक विमर्श को नियंत्रित कर रहा है और कमोबेश बड़ी बहसें इसी के इर्दगिर्द घूमती दिखाई देती हैं।

सोशल मीडिया-जनित विमर्श के दुष्परिणामों को लेकर हम अभी बहुत जागरूक नहीं हुए हैं और न ही हम सोशल मीडिया पर किये जाने वाले व्यवहार के प्रति सजग हैं। भारत में अभी सोशल मीडिया एथिक्स की जानकारी ना के बराबर है। हम अनायास ही अपनी सीमाएं लाँघ कर व्यक्तिगत सोच को सामाजिक सोच बनाने की प्रक्रिया में शामिल हो जाते हैं। हमें समझना होगा कि सोशल मीडिया पर प्रस्तुत जानकारी सिर्फ आप तक सीमित नहीं रह जाती है यह एक बड़े सूचना तंत्र का हिस्सा बन कर हमारे विचारों के प्रवाह को नियंत्रित करने लगती है। ऐसे में सोशल मीडिया पर नकारात्मक विचारों की अधिकता हमारी मूल सोच को प्रभावित कर समाज में दूषित मानसिकता को बढ़ावा देती है। सोशल मीडिया एक खुला मंच है जिस पर विश्व बिरादरी की समांतर नज़र रहती है। ऐसी स्थिति में किसी के द्वारा धर्म, जाति विशेष को लेकर की गई टिप्पणी को विश्व बिरादरी द्वारा देखा जाता है तथा प्रतिक्रिया दी जाती है।

हाल ही में सोशल मीडिया में धर्म विशेष को लेकर की गयी पोस्ट को लेकर अरब देशों से कड़ी प्रतिक्रिया देखने को मिली जिसके परिणामस्वरूप विदेश मंत्रालय को इस पर कदम उठाने पड़े। यह समझना परम आवश्यक है कि हम वैश्विक व्यवस्था में रह रहे हैं और स्थानीय स्तर पर किया गया दुष्प्रचार विश्व में हमारे देश की छवि खराब कर सकता है। हमारी पीढ़ी का रिमोट कंट्रोल सोशल मीडिया के हाथों में होना हमारे लिए कितना अहितकारी सिद्ध होगा इसका हम अभी अनुमान भी नहीं लगा पा रहे हैं।

कोरोना महामारी पर तो हम आज नहीं तो कल विजय पा ही लेंगे परन्तु आपसी भाईचारा तथा सामाजिक सौहार्द को जो क्षति पहुंचेगी उससे निपटना एक बड़ी चुनौती होगी। सोशल मीडिया पर हम सब सजग प्रहरी की भूमिका निभाकर हम अपने राष्ट्र को सुदृढ़ कर सकते हैं।


लेखक मेरठ स्थित देव नागरी कॉलेज के अंग्रेज़ी विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं


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One Comment on “कोरोना पर तो देर-सवेर विजय पा लेंगे, लेकिन नष्ट हो रही सामाजिक विरासत का क्या?”

  1. बदलाव अपने साथ कुछ खामिया लेकर आता है और बहुत सारी अच्छाइयां भी. सोशल मीडिया के प्लेटफॉर्म्स इसी दृष्टांत का उदाहरण हैं. इन प्लेटफॉर्म्स ने जहां एक तरफ जीवन को सुगम कर विकास की गति को तेज़ किया है वही दूसरी तरफ कुछ संदेह और भ्रम भी पनपाये हैं. आपकी चिंता जायज़ है, सतर्कता के साथ विवेकशील रहते हुए हमें इनके साथ आगे बढ़ना चाहिए.

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