सात साल की कड़ी मशक्कत के बाद- जिसमें दो संविधान सभा बनानी पड़ी- संविधान सभा के 532 सदस्यों में से 507 के मत पाकर नेपाल में नया संविधान 20 सितम्बर 2015 से लागू हो गया। राजशाही की समर्थक पार्टी, उससे जुड़े संगठन, स्वंयसेवी संस्थाएं और राजा के वफादार लोग संविधान का इस बात को लेकर विरोध कर रहे थे कि वहां की संविधान सभा ने नेपाल को बहुसंख्यक हिन्दू आबादी होने के बाद भी ‘हिन्दू राष्ट्र’ के स्थान पर ‘धर्मनिर्पेक्ष-राज्य’ घोषित किया है। जो नेपाल को हिन्दू राष्ट्र बनाना चाहते थे या जो इस विरोध का नेतृत्व कर रहे हैं वे नेपाली जनता को यह नहीं बता रहे थे कि नेपाल को हिन्दू राष्ट्र होने पर क्या-क्या लाभ प्राप्त होंगे और धर्मनिर्पेक्ष बन जाने पर नुकसान क्या होगा। पहले राजा के जमाने में नेपाल जब हिन्दू राष्ट्र था तब नेपाली जनता को अमुक सुविधाएं प्राप्त थीं और उनका जीवनस्तर धर्मनिर्पेक्ष नेपाल से कितना बेहतर था? आजकल साधारण सा सेल्समैन भी जब किसी कम्पनी का उत्पाद बेचता है तो वह ग्राहक को उसके लाभ और हानियों से अवगत कराता है लेकिन हिन्दू राष्ट्र के पक्षधर चाहे वह नेपाल में हों या भारत में, न तो लिखित और न ही मौखिक रूप में यह बता रहे हैं कि धार्मिक राज्य बन जाने से यह लाभ और नहीं बन पाने पर यह हानि होगी।
धर्मनिर्पेक्षता किसी समाज पर क्या प्रभाव डालती है और उसे विकास की किन ऊँचाईयों तक ले जा सकती है इसे समझने के लिए तो हमें यूरोप के इतिहास का अध्ययन करना होगा। जब तक वहां धर्म और राजनीति का गठबन्धन कायम रहा वह समाज पिछड़ा बना रहा क्योंकि धर्म हर नये विचार का विरोध करता रहा और राजनीति उसके इस काम में सहायक बनी रही। ब्रूनो को जब अपने नये विचारों के लिए धार्मिक कट्टरपंथियों ने इटली के चौराहे पर जिन्दा जलाया तब राज्य उनके इस काम में मूक दर्शक बना रहा। जब गैलीलियो ने कहा कि दुनिया चपटी नहीं गोल है और वह सूरज के चारों ओर परिक्रमा कर रही है तो चर्च ने उस पर मुकदमा चलाया और उसे अपनी बात का खण्डन करने पर मजबूर किया। उनकी धर्म-पुस्तक में दुनिया चपटी थी और सूरज उसकी परिक्रमा कर रहा था। तब राज्य और धर्म के इस गठबंधन को समाज के विकास की सबसे बड़ी बाधा मानते हुए वहां के विद्वानों ने इसके खिलाफ़ बगावत शुरू कर दी।
जर्मन पादरी और धर्मविज्ञानी मार्टिन लूथर ने 31 अक्टूबर 1517 को जर्मन में विट्टनबर्ग स्थित ‘‘आल सेन्ट्स चर्च’ के दरवाज़े पर 95 सवाल चस्पा करके विरोध की पहल की। ईसाई यूरोप को धर्मनिर्पेक्ष समाज में बदलने के लिए वहां के लोगों ने भारी कुर्बानियां दीं। प्रोटेस्टेन्ट और रोमन कैथोलिकों के बीच सन् 1518 से 1548 तक तीस वर्ष लम्बा युद्ध चला और इसमें 80 लाख लोगों ने प्राण गंवाये, लेकिन यूरोपवासियों का यह बलिदान व्यर्थ नहीं गया। इसने ‘ज्ञानोदय’ को जन्म दिया और धर्म को राजनीति से अलग करके उसे केवल चर्च तक सीमित कर दिया। इस एक घटना ने यूरोप को प्रश्नाकुल समाज में बदल दिया।
अब लोगों ने पुराने सभी विचारों, परम्पराओं, ग्रन्थों और महान से महान व्यक्तियों, दार्शनिको, विचारकों की स्थापनाओं पर सवाल खड़े करने शुरू कर दिए। जैसे ही धर्म का राजनीति से अलगाव हुआ और राज्य धर्मगुरुओं के चंगुल से आजाद हुआ वैसे ही नये विचारों को फलने-फूलने का मौका मिल गया। इसके नतीजे में वहां नये अविष्कारों का तांता लग गया। यूरोप की औद्योगिक क्रांति इस संघर्ष का वह ईनाम था जिसने यूरोपवासियों को विकास की दौड़ में दुनिया में सबसे आगे कर दिया। यहां सबसे बड़ा सवाल यह पैदा हुआ कि यूरोप में जब ईसाइयत के अलावा कोई दूसरा धर्म था ही नहीं, तो क्यों खुद को धर्मनिर्पेक्ष बनाने के लिए यूरोप ने इतना लम्बा संघर्ष छेड़ा और इतनी कुर्बानी दी। उनके लिए तो पहले से बने धार्मिक राज्य को जारी रखना सबसे आसान काम था, लेकिन उन्होंने धार्मिक राज्य से पीछा छुड़ा लिया। इसके नतीजे में उन्हें जो हासिल हुआ उसे उनके विकास के तौर पर देखा जा सकता है।
जिन देशों ने धर्मनिर्पेक्षता को नहीं अपनाया है वह या तो पिछड़े बने हुए हैं या वहां अल्पसंख्यकों के प्रति भेदभावपूर्ण व्यवहार होने के कारण लड़ाई चल रही है। इजरायल, जो धर्मनिर्पेक्ष नहीं है वहां अल्पसंख्यक फिलिस्तीनी अरबों के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार होने के कारण लड़ाई चल रही है। पाकिस्तान, पूर्व राजतांत्रिक नेपाल, ईरान, अफगानिस्तान का उदाहरण आपके सामने है। सऊदी अरब, और खाड़ी के देशों में जो सम्पन्नता नजर आ रही है वह केवल तेल के कारण है। तेल उनके लिए वरदान साबित हो सकता था अगर उसका इस्तेमाल ज्ञान फैलाने में किया जाता लेकिन तेल तो अरब सामन्तों के हाथों में आने से उनकी अपनी कौम के लिए ही मुसीबत बन गया क्योंकि वह उसका इस्तेमाल दुनिया भर में अज्ञान फैलाने व पिछड़ापन बनाये रखने में कर रहे हैं ताकि उनकी तानाशाही कायम रह सके।
भारत में भी जो विकास नजर आ रहा है वह उसके संविधान के धर्मनिर्पेक्ष होने का नतीजा है। अगर हमने धर्मनिर्पेक्षता को छोड़ दिया या उसकी रक्षा नहीं की तो भारत को पाकिस्तान बनने में देर नहीं लगेगी। धर्म को राज्य से अलग करने का मतलब है कि राज्य सभी धर्मों के मानने वालों से समान व्यवहार करेगा और राज्य चलाने वाले राजनेताओं के आचरण से ऐसा नहीं लगेगा कि वह किसी एक धर्म के पक्ष में खड़े हैं। इस बारे में विद्वानों का मानना है धर्मनिर्पेक्षता, समाज के सभ्य होने की निशानी है। कोई समाज सभ्यता के किस चरण में पहुंच गया है उसको नापने का पैमाना उसमें पायी जाने वाली धर्मनिर्पेक्षता की मात्रा है। जो समाज जितना धर्मनिर्पेक्ष होगा वह उतना ही अधिक सभ्य होगा। धर्मनिर्पेक्षता का मतलब केवल धर्म का राजनीति से अलग होना नहीं है बल्कि मनुष्य का कमजोर के प्रति क्या व्यवहार है यह तय करेगा कि वह समाज कितना सभ्य है। मान लिया किसी समाज ने धर्म को राजनीति से अलग कर लिया लेकिन कमजोर के प्रति उसका व्यवहार अन्यायपूर्ण बना रहा तो वह समाज न तो धर्मनिर्पेक्ष समाज कहलाएगा और न ही सभ्य। मनुष्य का अपने से कमजोर के प्रति केवल मनुष्य ही नहीं पशुओं के भी प्रति क्या व्यवहार है यह उसके सभ्यता के लक्षण को दिखाता है। अपने से कमजोर का मतलब, जिनका संख्याबल कम है। वह चाहे धार्मिक, जातीय, भाषायी या क्षेत्रीय अल्पसंख्यक हों उनके प्रति हमारा व्यवहार सौहार्दपूर्ण, सहानुभूतिपूर्ण और बराबरी का होना चाहिए और उनको कुछ विशेष अधिकार भी मिलने चाहिए।
मिसाल के तौर पर उत्तर भारत की किसी बस्ती या कॉलोनी में अगर दो-तीन परिवार बंगालियों के रह रहे हैं तो वह उस क्षेत्र के क्षेत्रीय व भाषायी अल्पसंख्यक कहलाएंगे। अब उनका त्यौहार दुर्गा पूजा आ गया तब सब लोगों को उनके इस त्यौहार में सहयोग करना चाहिए। उनको यह विश्वास होना चाहिए कि जब वह दुर्गा पूजा के लिए चन्दा इकट्ठा करेंगे तो केवल उन दो-तीन परिवारों तक सीमित नहीं होगा बल्कि उसमें कॉलोनी के सभी लोगों का सहयोग मिलेगा। ऐसे में अगर गैर-बंगाली लोग उनसे यह कहने लगे कि हमारे यहां तो ऐसी दुर्गा पूजा होती नहीं है जैसी बंगाल में होती है और तुम हमसे चन्दा क्यों मांग रहे हो या तुम मछली खाते हो, बंगाली बोलते हो, तुम्हारी वेशभूषा हमसे अलग है जबकि हमारी कॉलोनी में न तो मछली खाई जाती है और न ही बंगाली बोली जाती है और न ही ऐसी वेशभूषा पहनी जाती है; अगर यहां रहना है तो तुम्हें मछली छोड़नी होगी और हिन्दी बोलनी होगी और हमारी वेशभूषा को धारण करना होगा; तो उनके साथ हमारा यह व्यवहार हमारे असभ्य होने का लक्षण होगा। अगर कोई सांस्कृतिक कार्यक्रम अल्पसंख्यकों का है और उसमें हमारा योगदान और साझेदारी भी है तो यह हमारे सभ्य होने का लक्षण होगा।
धर्मनिर्पेक्षता किसी एक धर्म तक सीमित नहीं है बल्कि यह वह सिद्धांत है जो अलग-अलग परिस्थितियों पर लागू होता है। भारत के किसी प्रदेश में मुस्लिम अल्पसंख्यक हो सकते हैं लेकिन उस प्रदेश में अनेक जिले ऐसे हो सकते है जहां वे बहुसंख्यक और हिन्दू अल्पसंख्यक होंगे। तब यह मुस्लिमों का कर्तव्य बनता है कि वे हिन्दुओं के साथ प्रेम व सौहार्दपूर्ण और बराबरी का व्यवहार करें। उनके तीज-त्यौहारों में उतने ही उत्साह से शामिल हों, आर्थिक दृष्टि से वैसा ही सहयोग करें जैसा वह अपने त्यौहारों पर करते हैं। इससे यह पता चलेगा कि यह कितना सभ्य समाज है। ऐसा ही व्यवहार कॉलोनियों, गांव और मोहल्लों में रह रहे सभी तरह के अल्पसंख्यकों के बारे में होना चाहिए।
सभ्यता की परिभाषा और उसके चरण क्या है? इस पर अगर हम विचार करें तो पाएंगे कि सभ्यता से पूर्व की स्थिति थी, ‘आइ लिव फॉर माइसेल्फ़’ अर्थात मैं केवल अपने लिए जियूंगा। फिर दूसरा चरण आया, ‘लिव एण्ड लेट लिव’ यानि जीयो और जीने दो। इसके बाद तीसरा चरण आया ‘लिव फॉर अदर्स’ अर्थात दूसरों के लिए जीयो। यह सभ्यता की चरम स्थिति हुई। धार्मिक राज्य के पक्षधर, समाज को सभ्यता के पहले चरण से पूर्व की स्थिति में ले जाना चाहते हैं क्योंकि मुक्त-बाजार का सिद्धांत भी समाज को सभ्यता से पूर्व की स्थिति में ले जाना चाहता है, इसलिए धार्मिक राज्य के पक्षधरों के साथ उनका आसानी से तालमेल हो जाता है और नवउदारवाद को वे अपनी आर्थिक नीति के रूप में चुन लेते हैं।