23 सितम्बर 2022 को दैनिक अख़बारों में एक खबर थी: “अडानी और अम्बानी की कम्पनियों के बीच नो पोचिंग अग्रीमेंट हुआ”। खबरों के अनुसार यह अनुबंध मई 2022 में ही हो गया था लेकिन जानकारी सितम्बर के अंतिम सप्ताह में आई। ‘पोचिंग’ अंग्रेजी का शब्द है जिसका हिन्दी में एक अर्थ ‘अवैध शिकार’ भी होता है। पोचिंग उन जीवों के शिकार को कहते हैं जो विलुप्त होने के कगार पर हैं और ऐसे जीवों के शिकार पर प्रतिबंध लगाया गया हो। जीवों में जन्तु और वनस्पति दोनों आते हैं इसलिए यह शब्द सामान्यतया केवल जंगली पौधों और जानवरों के लिए लागू होता है।
अडानी और अम्बानी की कंपनियों ने आपस में अवैध शिकार नहीं करने का अनुबंध किया है। आखिर यह शिकार है कौन? जाहिर है कम्पनियों का सबसे आसान और निरीह शिकार तो मजदूर (श्रम) ही होता है। इस ‘नो पोचिंग’ का एक और मतलब होता है कि शिकार अब वैध तरीके से किया जाएगा। इसको इस तरह भी समझा जा सकता है कि अब दोनों कम्पनियों के प्रतिभाशाली और कुशल मजदूरों के आगे बढ़ने के सभी दरवाजे बंद। अब दोनों कम्पनियों के कर्मचारी समझौते के अनुसार एक-दूसरे के यहां काम नहीं कर सकेंगे।
नो पोचिंग एग्रीमेंट को नो हायर एग्रीमेंट भी कहा जाता है। यह दो या दो से अधिक कम्पनियों के बीच किया जाने वाला ऐसा समझौता होता है जिसमें एक कम्पनी में काम करने वाले कर्मचारी को समझौते में शामिल दूसरी कम्पनी में नौकरी नहीं मिलती है अगर मिलती है तो पद, वेतन और सुविधाओं में कोई बढ़ोतरी नहीं होती है। पोचिंग का अनुबंध सामान्यतया लिखित नहीं होता और किया भी नहीं जाता है। यह अनुबंध मौखिक रूप से किया जाता है। कॉर्पोरेट लॉ फर्म में काम करने वाले विशेषज्ञों का कहना है कि ऐसा कोई कानून नहीं है जो दो या दो से अधिक कम्पनियों के बीच इस तरह के समझौते करने से रोक सके। इन कम्पनियों के अनुबंध समाप्त होने के बाद भी एक कम्पनी के कर्मचारी दूसरी कम्पनी में तुरन्त शामिल नहीं हो सकते।
मजदूरों के अधिकारों के साथ यह लुका-छुपी का खेल कोई नया नहीं है, पहले भी होता रहा है और अब भी हो रहा है। यह अलग बात है कि इसका तरीका कुछ अलग होता है। इसमें कम्पनियों का आपस में कोई समझौता नहीं होता है। इस तरीके के समझौते मजदूर और कम्पनी के बीच होते है। कम्पनियां अपने कर्मचारियों को दूसरी कंपनियों में जाने से रोकने के लिए कर्मचारियों के साथ इकरारनामे करती है इस इकरारनामे पर ऐसी शर्तें रखती हैं जो मजदूरों को प्रतिस्पर्धा में शामिल होने से रोकती हैं। उदाहरण के लिए, कम्पनियां अपने कर्मचारियों के साथ नियत समय तक काम करने, चौबीसों घंटे कम्पनी के साथ संपर्क रखने, निश्चित वेतन और सुविधाओं का अनुबंध करती हैं। अनुबंध तोड़ने पर एक-दूसरे पर ‘कानूनी कार्यवाही भी की जा सकती है’। कुछ मामलों में अनुबंध समाप्त हो जाने के बाद भी कर्मचारी प्रतिद्वंदियों में शामिल नहीं हो सकता।
अडानी समूह और अम्बानी समूह के बीच हुए इस समझौते के पीछे जो कारण है, वह अडानी समूह का उस व्यवसाय में पांव पसारना है जिसमें पहले से ही अम्बानी समूह का वर्चस्व है। अडानी समूह प्राकृतिक संसाधन, खनन, बिजली, अक्षय उर्जा, सौर ऊर्जा, बंदरगाह, हवाई अड्डा और रेल का प्रमुख व्यवसायी है। हाल ही में अडानी समूह ने पेट्रोकेमिकल में काम शुरू किया है और 5जी नीलामी में 212 करोड़ रुपये में 400 मेगाहर्ट्ज स्पेक्ट्रम खरीदा है। इन दोनों क्षेत्रों में अम्बानी समूह का पहले से एकाधिकार है। रिलायंस पेट्रोकेमिकल इंडस्ट्री जहां दुनिया की आधुनिकतम पांच कम्पनियों में शामिल है वही रिलायंस जियो इंफोकॉम दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा मोबाइल नेटवर्क ऑपरेटर है।
दोनों समूहों ने खुदरा व्यापार में भी पूंजी निवेश की घोषणा की है। ब्लूमबर्ग (वैश्विक वित्तीय जानकारी प्रदान करने वाला निगम) की हाल ही में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार अडानी समूह की खाद्य उत्पाद कम्पनी “अडानी विल्मर लिमिटेड” ने अपने व्यवसाय को बढाने के लिए 500 करोड़ रुपया निर्धारित किया है जिससे कम्पनियों का अधिग्रहण किया जा सके जबकि अम्बानी समूह रिलायंस फ्रेश के नाम से 2006 से ही खुदरा व्यापार पर नजर गड़ाए हुए है। रिलायंस इंडस्ट्री ने हाल ही में उपभोक्ता वस्तुओं का व्यापार करने की अपनी योजना की घोषणा की है। इस समय दोनों समूह टेलीकॉम, ग्रीन एनर्जी, खाद्य व्यापार, बायोगैस और पेट्रोलियम में आमने-सामने हैं।
नो पोचिंग अनुबंध के अनुसार अम्बानी समूह के 3 लाख 80 हजार कर्मचारी अब अडानी समूह में नौकरी नहीं कर पाएंगे। अडानी समूह के 23 हजार कर्मचारी भी अम्बानी समूह की किसी कम्पनी में कम नहीं कर सकेंगे। अब इन दोनों कंपनियों द्वारा आपस में मजदूरों का अवैध शिकार नहीं किया जाएगा। तो क्या मान लिया जाय कि मजदूरों का शिकार दोनों कंपनियां तो करेंगी, लेकिन वैध तरीके से? यह शिकार का वैध तरीका मजदूरों की उन्नति का मार्ग बंद कर देगा। आने वाले समय में बहुत सारी बड़ी कंपनियों के बीच इस तरह के अनुबंध देखने को मिल सकते हैं।
कम्पनियों द्वारा मजदूरों का शिकार करना कोई नया मामला नहीं है। मजदूरों का शिकार तो उसके जन्म (औद्योगिक क्रांति) के साथ ही शुरू हो गया था जब कम्पनियों में 16 से 18 घंटे तक काम, बिना किसी अवकाश के अनवरत काम, गैरहाजिर होने पर कोड़े से पिटाई, कम से कम मजदूरी पर काम करने की मजबूरी, शहर की गन्दी बस्तियों में रहने की लाचारी, शिक्षा, स्वास्थ्य और पोषण से वंचित, छंटनी, तालाबंदी, भुखमरी आदि कम्पनियों द्वारा मजदूरों का शिकार किये जाने के परिणाम थे। मजदूरों का यह शिकार वैध तरीके से किया गया या अवैध तरीके से यह तो कम्पनियां ही बता सकती हैं लेकिन जो सबसे महत्वपूर्ण बात है कि तरीका चाहे जो भी हो मजदूरों का शिकार अनवरत जारी है।
कम्पनियों का शिकार केवल मजदूर ही नहीं होता है, छोटी कम्पनियां और उपभोक्ता भी होते हैं। बड़ी कम्पनियों द्वारा छोटी कम्पनियों का अधिग्रहण और उपभोक्ताओं के संरक्षण के लिए अमेरिका में संसद द्वारा दो अविश्वास कानून (Anti Trust Act) लाये गए। पहले शेरमन एक्ट 1890 (Sherman Anti Trust Act 1890) की धारा 1 व 2 मूल्य निर्धारण और कार्टेल के संचालन तथा अन्य मिलीभगत प्रथाओं को प्रतिबंधित करती है जो अनुचित रूप से व्यापार को रोकती है। इस अधिनियम में ऐसी गतिविधियों पर अंकुश लगाया गया जो एकाधिकार को बढ़ावा देती है और प्रतियोगिता को सीमित करने का प्रयास करती है। दूसरे, क्लेटन एक्ट 1914 (Clayton Anti Trust Act 1914) की धारा 7 विलय और अधिग्रहण को प्रतिबंधित करती है। ऐसे संगठन जो प्रतिस्पर्धा को काफी हद तक कम कर सकते हैं या एकाधिकार बनाने के प्रवृति रखते हैं।
अमेरिका में उस समय कुछ बड़ी कम्पनियां मूल्य व उत्पादन पर नियंत्रण करने के लिए कई छोटी कम्पनियों को अपनी कम्पनी में विलय (Merge) करके अपना एकाधिकार स्थापित करने लगीं जिससे उपभोक्ता हितों का नुकसान हो रहा था। उपभोक्ताओं को इन कम्पनियों के एकाधिकार से बचाने और उनका संरक्षण करने के लिए उपरोक्त दोनों अधिनियम लाए गए जिससे कम्पनियों के विलय को रोका जा सके।
अमेरिका में ही नो पोचिंग एग्रीमेंट से जुड़ा मामला 2010 में उस वक्त चर्चा में आया जब अमेरिका के कानून विभाग में सिलिकॉन वैली की गूगल, अडोबी, ऐपल और इन्टेल कम्पनियों के खिलाफ शिकायत दर्ज की। इस दर्ज शिकायत में कहा गया था कि ये कम्पनियां आपस में एक-दूसरे के कर्मचारियों को नौकरी नहीं दे रही हैं। इसके साथ ही कर्मचारियों का वेतन, पद और सुविधाएं निश्चित (Fix) कर दी गयी हैं। अमेरिकी कानून विभाग ने इस शिकायत को आपराधिक केस मान कर जांच का आदेश दिया। जांच में पाया गया कि इससे कानूनी रूप से नियम तोड़ने का कोई मामला नहीं बनता है लेकिन जांच में यह पाया गया कि इससे अमेरिका के लाखों कर्मचारियों के जीवन पर बुरा असर पड़ा था।
1990 में शुरू हुआ वैश्वीकरण अपने साथ टैलेंट वार लेकर आया। किसी कम्पनी में कार्यरत प्रतिभाशाली कर्मचारी बेहतर सुविधा और अवसर देखकर दूसरी कम्पनी में काम करने चले जाते थे। एक कम्पनी छोड़ कर दूसरी कम्पनी में चले जाना ही टैलेंट वार के नाम से जाना गया। इस टैलेंट वार को रोकने के लिए और लम्बे समय तक कुशल और प्रतिभाशाली कर्मचारियों को अपनी कम्पनी से जोड़े रखने के लिए कम्पनी मैनेजमेंट कई तरह के उपाय करती है। इसमें एक तरीका नो पोचिंग एग्रीमेंट भी है। अगस्त 2018 में ऐसा ही नो पोचिंग एग्रीमेंट का मामला अमेरिका में सामने आया जब वहां की सात फास्ट फूड कम्पनियों आंटीएंस, बफैलो वाइल्ड विंग्स, मैक्डोनाल्ड, आरबीज, जिमीजोंस, सिनाबोन और कार्ल्स जूनियर ने प्रतिभाशाली कर्मचारियों के लिए अपने सभी फ्रेंचाइजियों में नो पोचिंग एग्रीमेंट को समाप्त करने की घोषणा की क्योंकि अमेरिका के कुशल कर्मचारी इन कम्पनियों में जाने से परहेज कर रहे थे। सातों कम्पनियों के आपसी समझौते में शर्त थी कि कोई भी कम्पनी किसी भी कम्पनी के कर्मचारी को अधिक वेतन, ऊँचा पद या ज्यादा सुविधा देकर नौकरी पर नहीं रखेंगी।
ऐसा नहीं है कि केवल निजी कम्पनियां और मीडिया हाउस ही मजदूरों का शिकार करती हैं। सरकारी कम्पनियां तो इनसे दो कदम आगे हैं। सरकारी कम्पनियों पर सरकार का नियंत्रण रहता है और उनके पास कानून बनाने का भी अधिकार होता है। लिहाजा सरकारें ज्यादा क्रूर तरीके से इस काम को अंजाम देती हैं। बीते 9 अक्टूबर 2022 को दैनिक भास्कर में छपी एक खबर के अनुसार सरकार कर्मचारियों की हड़ताल पर रोक लगाने की तैयारी में है। इसके लिए 31 राज्यों ने अपनी सहमति दे दी है। 1990 के दौर से शुरू हुए निजीकरण, उदारीकरण और वैश्वीकरण ने मजदूर आन्दोलन को गर्त में धकेल दिया। मजदूर आन्दोलन खत्म होने के साथ ही उनके सभी अधिकार धीरे-धीरे छीन लिए गए। न्यायालय भी मजदूरों के हक से साथ न्याय नहीं कर रहा है। मजदूरों के अधिकारों पर बहस करते हुए न्यायालय का कहना है कि “लोकतंत्र में प्रत्येक निर्वाचित सरकार का यह विशेषाधिकार होता है कि वह अपनी नीति का पालन करे। अक्सर बदलाव के परिणामस्वरूप कुछ निहित स्वार्थों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। जब तक नीति के निष्पादन में कोई अवैधता नहीं की जाती है, वह कानून या दुर्भावना के विपरीत नहीं है तब तक परिवर्तन लाने वाले निर्णय में न्यायालय द्वारा हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता है।‘’
किसी नीति की सत्यता की जांच के लिए उपयुक्त मंच संसद है न कि न्यायालय (बाल्को कम्पनी के निजीकरण के पक्ष में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिया गया फैसला 2002)। न्यायालय ने शिकार को शिकारी के पास अपने बचाव के लिए भेज दिया। परिणामस्वरूप सरकारों द्वारा मजदूरों के अधिकारों पेंशन, मृतक आश्रित योजना, नौकरियों मे स्थाई नियुक्ति, स्वस्थ्य सुविधा, 8 घंटे का काम, यूनियन बनाने के अधिकार और अब हड़ताल का बड़ी आसानी से शिकार कर लिया गया। अब नया श्रम कानून मजदूरों के बचे-खुचे अधिकारों पर घात लगाए बैठा है।
1939 में मशहूर शायर आरजू लखनवी ने एक गीत लिखा था जो बहुत ही मशहूर हुआ था, जिसे अंगेजों ने प्रतिबंधित कर दिया था। मजदूरों को यह गीत एक बार जरूर याद करना चाहिए, शायद शिकार होने से बचने का कोई उपाय मिल जाय।
करूं क्या आस निरास भई
करना होगा खून को पानी
देना होगी हर कुर्बानी
हिम्मत है इतनी तो समझ ले
आस बंधेगी नयी
कहो न आस निरास भई…