जब राहुल गांधी कहते हैं कि मौजूदा केंद्र सरकार ‘हम दो हमारे दो’ के लिए है तो उनका यह आशय नहीं है कि वह कॉरपोरेट या प्राइवेट इन्वेस्टमेंट के विरुद्ध हैं, जैसा कि बीते दिनों गहलोत और अदानी प्रकरण के बाद राहुल का स्पष्टीकरण आया। हमें यह मान लेना चाहिए कि वह शीर्ष के कॉरपोरेट घरानों द्वारा भारत के संसाधनों की लूट न हो, इसके विरुद्ध आवाज उठा रहे हैं।
शायद इसी कारण से तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा था कि भारत के प्राकृतिक संसाधनों पर पहला हक अल्पसंख्यकों का है। कींस के आर्थिक सिद्धांतों के समर्थक मनमोहन सिंह की कोशिश यही रहती थी कि भारत मध्यम वर्ग का एक सशक्त समाज हो और वृद्धि समावेशी हो। वह यही समझते थे कि जब अर्थव्यवस्था विकसित हो जाती है तब असमानता दूर हो जाती है। अतः कांग्रेस मनमोहन सिंह के रहते हुए प्राइवेट इन्वेस्टमेंट से मुंह नहीं मोड़ सकती है और कोई ऐरा गैरा अर्थशास्त्री भी यह सुझाव नहीं दे सकता।
प्राइवेट इन्वेस्टमेंट भी सकल घरेलू उत्पाद में अपना योगदान देता है। यही कारण है कि प्राचीन समय से ही श्रेष्ठिपुत्र राजकीय निर्णय को प्रभावित किया करते थे। इससे असमानता विकराल रूप से बढ़नी शुरू हो गई। कार्ल मार्क्स ने जब देखा कि प्राइवेट इन्वेस्टमेंट सरकार को अधिग्रहित कर रहा है तब उन्होंने एक इंकलाबी विचार दिया। यह शुरू में ठीक था किंतु बाद में कुछ ऐसे स्वार्थी असामाजिक तत्वों का रोजगार बन गया जो धनाढ्यों से लूट मचाने के लिए मजदूरों का इस्तेमाल करने लगे। ठीक इसी तर्ज पर 2014 में लोगों को जब लगने लगा कि कांग्रेस सरकार दलाल और बिचौलिये की सरकार है जिसमें जनता को भुला दिया गया है, तब भाजपा ने इस असंतोष का फायदा उठाकर भारत की बागडोर अपने हाथों में ले ली। लोगों को लगा कि नयी सरकार जादूगर है, छड़ी घुमाया और कायापलट लेकिन भाजपा की मंशा कतई यह नहीं थी। उसकी मंशा तो सिर्फ सत्ता हथियाना थी।
इसी पर राहुल गांधी ने तगड़ा प्रहार किया था। गहलोत जैसे सत्तालोलुप जादूगर ने एक झटके में उनकी मेहनत को नेस्तनाबूत कर दिया। राहुल गांधी बार-बार कह रहे थे कि मोदी सरकार की मंशा देश की भलाई करना नहीं है बल्कि चंद उद्योगपतियों को फायदा पहुंचाना है। उनका आशय यह था कि मोदी सरकार का एजेंडा हमारे समाज के सामने आने वाली सभी समस्याओं को और खराब करेगा- जैसे, आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक विभाजन को बढ़ाना, स्वास्थ्य संरचना को खत्म करना, देश के वित्त को खराब करना, और देश को धीमी गति से विकास के एक ऐसे नये युग की ओर ले जाना जहां चंद उद्योगपतियों के द्वारा जनता का शोषण होगा और जिसके बदले में उन्हें चंदे की मोटी रकम मिलती रहेगी जबकि बेईमान मीडिया के दम पर वह वोट आसानी से खरीद लेगी।
ऐसा नहीं है कि इस सबका दोष सिर्फ मोदी सरकार को दिया जाय। डॉ. राममनोहर लोहिया से यदि शुरू करें, तो वह एक ऐसे नेता थे जिनके पास समस्याओं का समाधान तो था, किंतु पथभ्रष्ट। उनके पास सुझावों को अमली जामा कैसे पहनाया जाय, उसका रोडमैप नहीं था। बिना किसी इकोनॉमेट्रिक्स के उन्होंने कह दिया कि तलवार और तराजू एक साथ नहीं चल सकते जबकि सप्लाइ साइड इकोनॉमिक्स के जनक रीगन की मूर्खतापूर्ण टैक्स कटौती ने दिखा दिया कि कैसे हंसते खेलते अर्थव्यवस्था को बर्बाद कर दिया जा सकता है। असमानता जो हमारी इच्छा पर निर्भर थी वह अमेरिका में अवश्यंभावी हो गयी। एक फीसदी जनता के पास 99 फीसदी संपत्ति संकेंद्रित हो गयी। लिंकन का जनता के लिए जनता द्वारा जनता का लोकतंत्र एक फीसदी के लिए एक फीसदी द्वारा एक फीसदी का लोकतंत्र बन कर रह गया। तर्क दिया गया कि विकास का लाभ अंतिम पायदान के आदमी तक पहुंचेगा, पर वह सब दावे खोखले साबित हुए।
यह संयोग नहीं है कि ऐसे दावों के खोखलेपन का दुहराव आज की दुनिया में भी दिख रहा है। हाल ही में जब ब्रिटेन में लिज़ ट्रस की सरकार ने टैक्स कटौती का फैसला लिया तो बाजार में हाहाकर मच गया और उन्हें अपना यह फैसला वापस लेना पड़ा। 23 सितंबर को प्रस्तुत मिनीबजट में यूके के वित्त मंत्री क्वासी क्वार्टेंग ने बीते 50 वर्षों में देश की सबसे बड़ी कर कटौती की घोषणा की थी, जिसकी कीमत 45 अरब पाउंड है (48.7 अरब डॉलर या 50.3 अरब यूरो)। ब्रिटिश बॉन्ड बाजार 26 सितंबर को जब खुला तो घोषित नीति की प्रतिक्रिया में कीमतें भरभराकर नीचे गिरती चली गईं जिससे दशकों में गिल्ट की सबसे बड़ी बिकवाली शुरू हो गई। इसके बाद बॉन्ड यील्ड (उधार लेने पर सरकार से वसूला जाने वाला ब्याज) आसमान छू गया।
बाजार की प्रतिक्रिया के बाद अपना फैसला वापस लेने वाली लिज़ ट्रस शुरू में इसे आर्थिक वृद्धि का कारक बता रही थीं, लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति जो बिडेन ने उनकी ‘ट्रिकल डाउन’ थियरी का यह कह कर मजाक उड़ाया था कि वे ‘इससे थक चुके हैं’ और यह ‘कभी काम नहीं करती’। यह संयोग नहीं है कि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने भी नई कर योजनाओं पर यूके की सरकार को फटकार लगाते हुए आगाह किया था कि इससे असमानता और मुद्रास्फीति बढ़ने की आशंका है।
नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री जोसेफ स्टिग्लिज ने माना है कि तलवार और तराजू को साथ चलना होगा नहीं तो असमानता उस समुद्री राक्षस की तरह भयावह हो जाएगी जो सामने आने वाली सभी चीजों को नष्ट कर देगी, जिसमें खुशहाली सर्वोपरि है। सरकार को चाहिए कि उद्योगपतियों को प्रोत्साहन दे, न कि अमर्यादित सहायता, अन्यथा क्रॉनी कैपिटलिज्म (याराना पूंजीवाद) नाम का राक्षस सत्ता को निगल जाएगा। यह पूंजीवाद स्वतंत्र मीडिया, निष्पक्ष न्यायपालिका, मूर्ख और कम पढ़े लिखे की सत्ता में भागीदारी, सभी को लील लेगा क्योंकि याराना पूंजीवाद कभी लोकतंत्र में विश्वास नहीं करता है और न ही वह किसी कानून को मानता है। उसका प्रथम ध्येय पुराने कानूनों को समाप्त करने का होता है ताकि अराजकता की स्थिति में जनता की सही तरीके से नसबंदी की जा सके।
अर्थशास्त्र की नजर में जब मजबूत आदमी, मसीहाई व्यक्तित्व, इत्यादि की चर्चा राजनीति में शुरू हो जाय तो याराना पूंजीवाद का वह स्वर्णिम काल माना जाता है। जनता को बताया जाता है कि मौजूदा सरकार के रहमोकरम पर वह जिंदा है। यहां तक की विदेश में नौकरी भी उसके ही रहम से मिलती है। ब्राजील, तुर्की, हंगरी, पोलैंड इत्यादि देशों को यदि देखें तो आप पाएंगे कि सरकार की विफलता का श्रेय या तो विपक्ष के माथे जड़ दिया गया या फिर किसी तीसरी शक्ति के। वे सभी राष्ट्रवादी हैं जो अपने नेताओं के अवतारी गुणों की हिमायत कर रहे हैं। भारत में भी यही स्थिति है। यदि इसका उपाय नहीं दिया जाय तो वह लोहिया का अनुसरण करना हुआ। अर्थशास्त्र में बिना उपाय दिए आपकी भावनाओं का कोई महत्व नहीं।
उपाय है- प्राइवेट इन्वेस्टमेंट को पक्षपात के बिना कड़े नियमों का अनुसरण करते हुए बढ़ावा देना; सरकार की जरूरत भर का हस्तक्षेप; जहां लागत अधिक हो वहां सरकार खुद निवेश करे वरना प्राइवेट इन्वेस्टमेंट की आड़ में बैंक अपने भ्रष्ट अधिकारियों द्वारा जनता की गाढ़ी कमाई को निगल जाएंगे। सरकार बेरोजगारी भत्ता इतना बढ़ा दे कि उसे भारी लगे और लोगों को इतना भी अधिक न मिले कि वे काम तलाशना ही बंद कर दें। विनिर्माण क्षेत्र में रिसर्च को प्रोत्साहन दें और स्नातक के बाद नौकरी तलाशने वालों को स्नाकोत्तर एवं डॉक्टरेट के लिए प्रोत्साहित करें। कानून का कड़ाई से अनुपालन हो और भड़काऊ भाषण देने वाले नेताओं के लिए मृत्युदंड का प्रावधान हो।
एक ऐसी पूंजीवादी अर्थव्यवस्था बने जहां सरकार और उद्योगपति कदमताल करते हुए चलें और जनता उत्पादक बने। अन्यथा राहुल गांधी की पदयात्रा एक मखौल बनकर रह जाएगी, और कुछ नहीं।
लेखक कोलकाता स्थित एक प्रोफेशनल हैं