पांचवीं बार प्रवर्तन निदेशालय के पास पूछताछ के लिए तलब किए गए राहुल गांधी के साथ आज जो हो रहा है, वह भारतीय राजनीति में कुछ नया नहीं है। इंदिरा गांधी ने भी यही सब झेला था। हरियाणा के कद्दावर मुख्यमंत्री रहे बंसीलाल को तो जनता पार्टी सरकार हथकड़ी लगा कर सड़क पर घसीटती हुई ले गयी थी। इस बारे में अपने एक चार्टर्ड अकाउंटेंट मित्र से मेरी बात हो रही थी। जब मैंने उन्हें बताया कि नेशनल हेराल्ड मामले में मीडिया के अनुसार 90 करोड़ रुपये के खर्च का हिसाब नहीं देने का मामला गांधी परिवार के खिलाफ है, तब उनकी टिप्पणी थी- इतनी कम रकम तो उन लोगों के लिए राउंड ऑफ करने जैसी है, फिर इसमें घोटाला क्या होगा?
यह टिप्पणी भारतीय समाज में भ्रष्टाचार के मनोविज्ञान को दर्शाती है। मसलन, मनमोहन सिंह का नाम जब टूजी घोटाले में आया (जिसे कई साल बाद अदालत ने घोटाला मानने से ही इनकार कर दिया) तब उन्होंने कहा था, “मुझे लोकलेखा समिति के समक्ष उपस्थित होने में प्रसन्नता होगी यदि वह मुझसे ऐसा करने के लिए कहती है। मुझे पूरा विश्वास है कि सीज़र की पत्नी की तरह प्रधानमंत्री को भी संदेह से ऊपर होना चाहिए (एक अंग्रेजी मुहावरा)।”
इस मनोविज्ञान को अंग्रेज़ शासक बहुत अच्छे से समझते थे। इसीलिए उन्होंने जिसे कालापानी की सजा दी, उसे ही सरकारी पेंशन देने का भी इंतज़ाम किया। इस तरह उन्होंने सार्वजनिक जीवन में संस्थागत भ्रष्टाचार की एक तरह से नींव इस देश में डाल दी। यह महज ‘संयोग’ था या कोई ‘प्रयोग’? ब्रिटिश जनरल चार्ल्स कॉर्नवॉलिस लिखते हैं, “मुझे सच्चा विश्वास है कि हिंदुस्तान का प्रत्येक आदमी भ्रष्ट है”। जब लार्ड क्लाइव पर आय से अधिक संपत्ति का मामला दर्ज हुआ, तो उन्होंने अपनी सफाई में कॉर्नवॉलिस के इसी कथन को अपने बचाव में दुहराया था।
अपनी कालजयी रचना ‘ऐन इंडियन समर’ में पत्रकार जेम्स कैमरून लिखते हैं, “भारत में भ्रष्टाचार लगभग भूख की तरह एक क्लीशे है। यह सबसे पुरानी परंपराओं द्वारा पवित्र है: यह किसी के द्वारा भी नकारा नहीं गया है, वास्तव में भारतीय भ्रष्टाचार की समग्रता और व्यापकता लगभग राष्ट्रीय गौरव का विषय है।” संयोग से यह पुस्तक और जयप्रकाश नारायण का आंदोलन एक ही वर्ष 1974 की देन हैं। इसे महज़ संयोग कहिए या जेम्स कैमरून की दूरदृष्टि, कि जेपी आंदोलन शुरू तो भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ हुआ लेकिन कालांतर में खुद पथभ्रष्ट हो गया।
भ्रष्टाचार के मनोविज्ञान का दूसरा आयाम किसी के रहन-सहन में अचानक आया परिवर्तन होता है। देखने वालों को एक ही बात समझ आती है कि अमुक तो भ्रष्टाचारी होगा। पश्चिम बंगाल में तीन दशक के वामपंथी शासन में भ्रष्टाचार पर लगाम इसी मनोवैज्ञानिक आधार पर लगायी गयी थी। हर मोहल्ले में क्लब की स्थापना कर दी गयी थी। वहां कुछ वामपंथी काडर बैठकर इसी ताकझाँक में रहते थे कि अचानक किसके रहन-सहन में परिवर्तन आया। फिर उस पर वे नज़र गड़ा कर बैठ जाते थे। अंततः भ्रष्टाचारी की पोल खुल जाती थी। आज भारत में जो कुटिलता अर्थात द्वेष, कलंक या भ्रष्टाचार है उसे अंग्रेजों ने बहुत ही आसानी से ज़ेहन में भर दिया था। क्लाइव अपने बचाव में कहते हैं, “यह इस देश का रिवाज रहा है कि एक अवर एक उपहार के बिना अपने वरिष्ठ के पास कभी नहीं आता। यह नवाब से शुरू होता है और अवर जिनके नीचे अंतिम पायदान के कर्मचारी होते हैं, वहां जाकर खत्म होता है।”
एक देशभक्त भारतीय होने के नाते मैं कॉर्नवालिस और क्लाइव को कठघरे में खड़ा करूँगा कि उन्होंने हमारे देश पर झूठा लांछन लगाया है। ऐसा करते हुए हालांकि मेरे ज़ेहन में जहांगीर की भीख माँगने वाली वह कहानी आ जाती है जब वह सर थॉमस रो से कहते हैं कि- ठीक है, वह अंग्रेज को हिन्दुस्तान में व्यापार करने की अनुमति और कर की छूट देंगे, लेकिन बदले में उनको क्या मिलेगा? कहानी यहां खत्म नहीं होती है। सर थॉमस रो ने उन्हें पेंटिंग, नक्काशी, कटिंग, एनैमलिंग में उत्कृष्ट कलाकृतियां, पीतल, तांबे या पत्थर की आकृतियां, समृद्ध कढ़ाई, सोने और चांदी के सामान दिए। फिर जहांगीर ने कहा कि यह सब तो ठीक है लेकिन उन्हें अंग्रेजी घोड़ा चाहिए। अब बताइए! जहांगीर तो कोई घटिया प्रमुख थे नहीं जिन्हें लालच दिया जा सके! यह हम भारतीयों की किसी को सम्मान स्वरूप उपहार देने की परंपरा थी जिसे विदेशी शासक अपनी आदत बना बैठे, जो बाद में भ्रष्टाचार कहलाया।
आखिर इस भ्रष्टाचार का मूल क्या है? आप शोध करेंगे तो पाएंगे कि हुक्मरानों का ‘विवेकाधिकार’ सभी समस्याओं का जड़ है। उन्हें शक्ति तो दी जाती है किन्तु दायित्व के समय वे भाग जाते हैं। उनके मन मे यह बैठा हुआ है कि शक्ति का दुरुपयोग न किया जाय तो उसका कोई मतलब नहीं होता है। भारतीय प्रशासनिक सेवा का एक अधिकारी राज्य प्रशासनिक सेवा के अधिकारी को तुच्छ समझता है। एक कलेक्टर की कोशिश रहती है कि वह अपने मातहत भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों को फील्ड में न भेजे। उन्हें कोई ऐसा काम न दे जिसमें व्यक्तिगत दायित्व आता हो। फाइनेंशियल टाइम्स के स्तंभकार और दिग्गज वित्तीय विश्लेषक रुचिर शर्मा अपनी पुस्तक ‘डेमोक्रेसी ऑन द रोड’ में कहते हैं, “मुद्रास्फीति की तरह भ्रष्टाचार उन कारकों में से एक है जो अकसर भारतीय शासकों को चुनाव में नीचे गिरने पर मजबूर करता है, फिर भी कोई स्थायी निशान नहीं छोड़ता।”
जिस देश में अपनों के बीच ही इतना भेदभाव हो उस देश के नागरिकों के बारे में भारत से वापस लौटने पर चार्ल्स ग्रान्ट यदि 1790 में लिखे कि भारतीय लोग “शोकपूर्ण रूप से पतित और आधारहीन हैं, कमजोर नैतिक दायित्व की भावना से युक्त हैं, और क्या सही है इसे जानते हुए भी वे उसकी अवहेलना करते हैं”; तो इसका खंडन करते समय हमारे मुँह में दही जम जाता है।
भारत में 1987 तक सरकार और सरकारी कर्मचारियों में व्यापक स्तर पर फैले भ्रष्टाचार को रोकने के लिए कोई प्रभावी कानून नहीं था। वह राजीव गांधी थे जो भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम (प्रिवेंशन ऑफ करप्शन एक्ट), 1988 लेकर आए। हमने इस कानून का दुरुपयोग भी शुरू कर दिया। जब कभी भ्रष्टाचार पर लगाम कसने की बात आयी तो प्रभावी कानून कांग्रेस की सरकार ही लायी पर जनता ने उसे लात मारकर भगा दिया। द हिंदू समाचारपत्र के संपादक रहे एन. राम अपनी पुस्तक ‘व्हाइ स्कैम्स आर हियर टु स्टे’ में लिखते हैं, “दिलचस्प बात यह है कि यह (भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम 1988) 9 सितंबर 1988 को जब लागू हुआ, उस वक्त राजीव गांधी की सरकार तेजी से सामने आ रहे बोफोर्स रिश्वत कांड के कारण बड़े राजनीतिक संकट में थी।” वह आगे लिखते हैं, “उतना ही दिलचस्प तथ्य यह है कि पीसीए 1988 में संशोधन के लिए 19 अगस्त 2013 को जब भ्रष्टाचार निवारण (संशोधन) विधेयक 2013 राज्यसभा में पेश किया गया और साथ ही भ्रष्टाचार के अपराधों को कवर करने वाले दो अन्य कानून भी लाए गए, उस वक्त भी संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की (कांग्रेसनीत) सरकार कई बड़े घोटालों से घिरी हुई थी…।‘’
गौर करने वाली बात है कि कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व यदि भ्रष्टाचार में संलिप्त होता तो क्या वह इस तरह के किसी कानून को लाने का जोखिम उठाने की ज़हमत उठाता? इसी पुस्तक में एन. राम केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआइ) के प्रमुख एपी मुखर्जी के माध्यम से लिखते हैं कि राजीव गांधी से उनकी बातचीत में यह निकल कर सामने आया था कि “1984 के अंत में प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्हें पता चला कि सशस्त्र बलों के कुछ वरिष्ठ अधिकारी ज्यादातर रक्षा खरीद के संबंध में ‘कमीशन’ के रूप में बड़ी मात्रा में धन एकत्र कर रहे थे, अक्सर जिनमें कुछ मंत्री, बिचौलिये और सिविल सेवा के अधिकारियों की मिलीभगत थी। यह लंबे समय से सार्वजनिक जानकारी में था, फिर भी इस तरह की बीमारी को रोकने के लिए कोई गंभीर या व्यवस्थित प्रयास नहीं किया गया था।” उसी पुस्तक में राजीव गांधी का एक उद्धरण आता है, “श्री मुखर्जी, आप शायद सोच सकते हैं कि हमारी जैसी बड़ी अखिल भारतीय पार्टी को पूरे साल अपने नियमित परिचालन के लिए पर्याप्त मात्रा में धन की आवश्यकता होती है। विधानसभा और/या संसदीय चुनावों की पूर्व संध्या पर यह आवश्यकता बहुत अधिक हो जाती है। इसके लिए पूरे देश में पार्टी के अहम पदाधिकारियों द्वारा बड़े पैमाने पर धन-संग्रह किया जाता है, जो बेईमान पार्टी पदाधिकारियों, मंत्रियों और व्यापारियों के बीच लगभग एक अटूट अपवित्र मुआवजे के जैसा होता है।”
“तो राजीव गांधी ने अपनी स्वीकारोक्ति के अनुसार क्या किया’’? एन. राम यह सवाल उठाते हुए लिखते हैं, ‘’उन्होंने अपने कुछ भरोसेमंद सहयोगियों और सलाहकारों से सलाह मांगी। एक सुझाव आया कि ‘बिचौलियों को देय या आमतौर पर भुगतान किए जाने वाले सभी कमीशनों पर प्रतिबंध लगा दिया जाना चाहिए, लेकिन प्रमुख रक्षा सामग्री के आपूर्तिकर्ताओं द्वारा नियमित अभ्यास के रूप में दिए जाने वाले कमीशन को कुछ गैर-सरकारी संस्थाओं की देखरेख में जमा किया जा सकता है जो पूरी तरह से पार्टी के अपरिहार्य खर्चों को पूरा करने के उद्देश्य से उपयोग किया जाएगा’। प्रधानमंत्री ने वरिष्ठ पुलिस अधिकारी से इस बात की पुष्टि की कि उन्होंने इस प्रस्ताव को इस तर्क के आधार पर स्वीकार कर लिया है कि ‘इस तरह के कदम से बिचौलियों, मंत्रियों और नौकरशाहों के बीच मिलीभगत को काफी हद तक रोका जा सकेगा और सरकार को कुछ बेईमान व्यवसायियों और समान रूप से बेईमान राजनेताओं और नौकरशाहों के साथ मुआवजे के एवज में संबंध बनाने से रोकने में सक्षम करेगा।”
अब सवाल यह उठता है कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध जनता को आवाज उठाने के लिए कब प्रेरित किया जाता है? इसका पहला जवाब हमें 2011 के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के बाद लिखे रवि सिन्हा के एक लेख (आम आदमी के नाम पर, अनुज्ञा प्रकाशन) की इन पंक्तियों से मिलता है, “हाल के दिनों में भ्रष्टाचार विरोधी लोकप्रिय आंदोलन ने लोककल्याणकारी राज्य और पूंजी नियमन के पक्ष में एक समग्र व सुनियोजित संघर्ष को किनारे लगाने का काम किया है, जिसकी परिणति आम आदमी पार्टी नाम की परिघटना के रूप में सामने आयी है।” दूसरा, जब राजनीतिक रोटियां सेंकी जाएं। राजीव गांधी के प्रधानमंत्री बनने के साथ ही हिंदू वृद्धि दर को तोड़ कर भारत विकास के पथ पर अग्रसर हो गया। अब भारत एशिया प्रक्षेत्र में अकेला था जो विदेशी निवेश को आकर्षित कर सकता था। तब चीन ने अपनी अर्थव्यवस्था को मुक्त किया ही था। यदि तभी भारत अपनी अर्थव्यवस्था को मुक्त कर देता तो चीन में वामपंथी विचारधारा की सत्ता होने के कारण कोई निवेश नहीं होता और भारत कहीं ज्यादा समग्र व समृद्ध हो सकता था, लेकिन भारत की राजनीतिक इच्छाशक्ति पर बोफोर्स घोटाले का नाग कुंडली मार के बिठा दिया गया था।
तीसरा और अंतिम कारण मैं गिनाऊँगा जब भारत अमेरिका को चुनौती देता है। 1971 के भारत- पाकिस्तान युद्ध में भारत अचानक एक महाशक्ति के रूप में उभरा। अमेरिका को यह नागवार गुजरा। विदेशी काला धन हवाला के माध्यम से पत्रकारिता की दुनिया में आने लगा। पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी अपनी आत्मकथा ‘द ड्रामेटिक डिकेड’ में लिखते हैं, “इंदिरा गांधी के करीबी विश्वासपात्र रहे आर.के. करंजिया द्वारा संचालित एक समाचार पत्रिका ब्लिट्ज ने एक समय में यह दावा किया था कि मेरी पत्नी कोपेनहेगन में भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआइ) के खर्चों पर थी- यह एक और जिज्ञासु दावा था, यह देखते हुए कि वह 1978 से पहले यूरोप नहीं गयी थी। उसी पत्रिका ने आरोप लगाया कि एसबीआइ के तत्कालीन अध्यक्ष टी.आर. वरदाचारी व्यक्तिगत रूप से मेरे निर्वाचन क्षेत्र (मालदा) और संजय गांधी के निर्वाचन क्षेत्र (अमेठी) में नौ करोड़ रुपये ‘टिन बॉक्स’ में ले गए थे।” वे आगे लिखते हैं, “किसी ने उस ‘टिन बॉक्स’ का पता लगाने की कोशिश नहीं की… नौ करोड़ रुपये ले जाने के लिए कितने टिन के बक्सों की जरूरत होगी इसके बारे में किसी ने भी नहीं सोचा, यह जानते हुए भी कि सभी नोट 100 रुपये के होंगे। उन दिनों सामान्य लेनदेन के लिए 1,000 रुपये के नोटों का उपयोग नहीं किया जा सकता था। एसबीआइ के अध्यक्ष की तो बात ही छोड़िए, क्या कोई व्यक्ति इतने सारे बक्सों को संभाल सकता है? यदि कोई मोटा-मोटा हिसाब लगाना है तो कम से कम ऐसे नब्बे डिब्बे होने चाहिए।”
इसी समय इंदिरा गांधी को पदच्युत कर दिया गया था। उनकी लोकसभा सदस्यता न्यायालय द्वारा रद्द कर दी गयी थी। जिस समाजवादी नेता राजनारायण के चलते ऐसा हुआ, उन्हीं के नाम पर यूपीए-1 की मनमोहन सिंह सरकार ने 2007 में डाक टिकट भी जारी कर दिया- किस खुशी में, यह गठबंधन धर्म निभाने वाले ही जानें! बिलकुल इसी तर्ज पर भ्रष्टाचार विरोध की सवारी कर के अटल बिहारी वाजपेयी सत्ता में आए थे लेकिन उन्हीं के कार्यकाल में राजीव गांधी को मरणोपरान्त दोषमुक्त करार दिया गया। यह अलग बात है कि भाजपा के नेता आज भी राजीव गांधी को गाहे-बगाहे भ्रष्टाचारी कह देते हैं।
भारत में राजनीतिक भ्रष्टाचार का उपर्युक्त इतिहास और उसका सामाजिक मनोविज्ञान यही साबित करता है कि राहुल गांधी को भी अंतत: नेशनल हेराल्ड केस से पाक-साफ होकर बाहर निकल ही आना है। इसका भ्रष्टाचार विरोध मुहिम पर क्या असर होगा, यह एक अलहदा बहस है।