आंदोलन, जन आंदोलन, हिंसा, अहिंसा: कुछ बातें


भारत में महात्मा गांधी और कांग्रेस संचालित भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन दुनिया का सबसे बड़ा जन आंदोलन था। यह बहुत विशिष्ट भी था। यह पहला बड़ा जन आंदोलन था जो वाम-दक्षिण के दीवारी अंतरों, शाब्दिक मायाजालों में नहीं फंसा; जो व्यक्तिवादी आक्रमणों में नहीं बल्कि नीतिगत बुनियादों बहसों में अपनी ऊर्जा लगाता था; जो जन आंदोलन से राजनीतिक डिविडेंड उत्पन्न कर सकने में सक्षम था। भारत मे बिपन चन्द्र के अलावा शायद किसी इतिहासकार ने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का उसके ऐतिहासिक महत्त्व के हिसाब से अध्ययन नहीं किया। ज्यादातर विद्वानों ने भोंथरे विरोधाभासों, गुटीय हितों, अप्राप्त लक्ष्यों आदि के आधार पर उसका मूल्यांकन किया, यूरोपीय राष्ट्रवाद से प्रभावित होकर अध्ययन किया और आइडेंटिटी पॉलिटिक्स को वैचारिक रूप से औचित्य देते रहे।

यही कारण है कि आजाद भारत में आंदोलन और जन आंदोलन को या तो संकीर्ण प्रतिक्रियावाद के लिए इस्तेमाल किया गया या केवल दुख-गुस्सा दिखाने के एक औजार के रूप में प्रयुक्त कर लिया गया या भारतीय राज्य/सरकारों के खिलाफ एक आसान टूल के रूप में यूज़ किया गया। कुल मिलाकर कहना यह है कि आंदोलन/जन आंदोलन की समझ के बिना इसका दुरुपयोग किया गया। जेपी आंदोलन, बोफोर्स आंदोलन, अयोध्या आंदोलन, अन्ना आंदोलन, यहां तक कि इधर हाल के एनआरसी और किसान आंदोलन इसके उदाहरण हैं, जो ऊपर कहा गया।

परिणाम यह हुआ है कि भारतीय राजनीति पर निहायत पिछड़ी चेतना की काली छाया बढ़ती चली गयी जो आज आरएसएस-भाजपा के भारतीय फासीवादी संस्करण के रूप में हमारे सामने मुंह बाये खड़ी है और इसका मुकाबला कैसे हो इस पर घोर असमंजस है।

इस भूमिका के बाद अब अपनी बात कहने की कोशिश करते हैं, जो शायद कुछ प्रश्न शुरुआती तौर पर उठा सके।

1. गांधी और कांग्रेस संचालित भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन से यह सीखा जा सकता है कि केवल सत्ता का विरोध करना पर्याप्त नहीं है। इस बात पर सबसे ज्यादा जोर होना चाहिए कि विरोध ‘कैसे’ किया जाए।

2. आंदोलन और खासकर जन आंदोलन के पीछे संगठित विचारधारा और एक न्यूनतम अनुशासन होना चाहिए। एक कोर ग्रुप या कोई एक ही इंसान होना चाहिए जो उस आंदोलन का पायलट हो। उसी के निर्देश व रणनीति से कार्यवाहियां होनी चाहिए। जो आंदोलन यह कर पाते हैं वे अपने लक्ष्य (वह अच्छा बुरा कुछ हो) में कामयाब हो सकते हैं। बाकी आंदोलन केवल इवेंट बनकर राजनीतिक आतिशबाजी से ज्यादा नहीं रह जाते।

3. आंदोलन/जन आंदोलन को ही राजनीति का पर्याय मान लेना राजनीतिक पिकनिक से ज्यादा नहीं होता। इससे कुछ ऐसे नेता जरूर निकलते हैं जिनमें वह राजनीतिक क्षमता नहीं होती जिसका वो दावा करते हैं। वे राजनीति को एक जंगल में तो फंसा सकते हैं लेकिन उसे बेहतर आगे नहीं बढ़ा सकते।

4. धरना-प्रदर्शन, हल्लाबोल टाइप गतिविधियां, सड़क उपद्रव, सार्वजनिक तोड़फोड़ और अच्छे जन आंदोलन की अंतर्वस्तु में अंतर है। गांधी का सत्याग्रह इससे काफी अलग है। दुराग्रह और सत्याग्रह में जमीन आसमान का फर्क है। ज्यादातर जो देखते हैं वह गांधी जी की दृष्टि में दुराग्रह की श्रेणी में आएगा न कि सत्याग्रह में।

5. हिंसा अहिंसा का प्रश्न हमेशा अपनी सुविधा से लोग उठाते हैं। ज्यादातर लोग गांधी की अहिंसा की बात करते जरूर हैं लेकिन उन्हें नहीं पता कि गांधी जी के खुद के बुनियादी विचार इस पर क्या थे। अहिंसक होना मूलतः एक मनः स्थिति है, एक व्यक्तित्व है। कायर अहिंसक से निडर हिंसक होना श्रेयस्कर है। अहिंसा को अत्याचार सहने का जरिया बनाना मानसिक दुर्बलता है। केवल शारीरिक हिंसा की आलोचना गलत है जब तक कि हम हिंसा के समग्र दर्शन के भी खिलाफ न हों।

6. आंदोलन/जन आंदोलन का एक बुनियादी लक्ष्य अपने पक्ष में जन समर्थन पाना है, अपने विचारों के लिए जनसम्पर्क करना है, अपना राजनीतिक प्रभाव बढ़ाना है। यह एक तरह से mass contact और connect का एक टूल भर है, न कि खुद को एक्स्ट्रा क्रांतिकारी घोषित करने का जरिया।

7. नीतिगत और वैचारिक विरोध ही विरोध का सही तरीका है न कि व्यक्तिगत विरोध को ही इतिश्री मान लेना। यदि किसी व्यक्ति को ही बुराइयों का पुतला मान लिया जाए और उस व्यक्ति की आलोचना अनिवार्य हो तो भी उसकी बुराइयों की नीतिगत चर्चा ही होनी चाहिए।



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