एक सत्यशोधक के रूप में जोतिबा फुले की तस्वीर: देस हरियाणा का भाषणों को समर्पित अंक


हरियाणा से प्रकाशित होने वाली प्रतिष्ठित हिंदी पत्रिका ‘देसहरियाणा’ का अंक 38-39, जनवरी-अप्रैल 2022, सावित्रीबाई-जोतिबा फुले के भाषण व पत्र विशेषांक के नाम से प्रकाशित हुआ है। वैसे तो पत्रिका की पूरी सामग्री बहुत शानदार है लेकिन उसके अंदर पहली बार हिंदी में प्रकाशित जोतिबा फुले के भाषण जोतिबा फुले को बिल्कुल नए सिरे से समझने के लिए मजबूर करते हैं।

अब तक हिंदी पाठकों के दिमाग में बनी जोतिबा फुले की तस्वीर एक समाज सुधारक की तस्वीर या फिर एक जातिवाद विरोधी महात्मा की तस्वीर के रूप में बनी हुई है। ये भाषण जोतिबा फुले के दर्शन, विज्ञान और इतिहास के सत्यशोधक की तस्वीर बनाती है। यह भाषण पहली बार मराठी में 1856 में प्रकाशित हुए थे। उस समय भारतीय लेखकों में शायद ही कोई हो जिसने डार्विन के सिद्धांतों को लागू करते हुए, या रोम, ग्रीक के इतिहास, दर्शन को समझते हुए भारत के इतिहास पर लागू करने की कोशिश की हो, या भारत को समझने की कोशिश की हो। उन भाषणों का परिचय करवाने से पहले महात्मा जोतिबा फुले का परिचय जरूरी हो जाता है। इस से हमें यह समझने में मदद मिलेगी की जोतिबा का वैचारिक विकास किस तरह से हुआ होगा।

अंग्रेजों के आने के बाद गैर-ब्राह्मण जातियों के बीच नये-नये वर्गों का विकास हो रहा था। कुछ मध्यम स्तर की जातियों को अंग्रेजों द्वारा खोले गए स्कूलों और ईसाई मिशनरियों के कारण स्कूली शिक्षा प्राप्त होने लगी थी। दरअसल, वह उस समय उनके साम्राज्य की जरूरत भी थी, लेकिन इसका असर यह हुआ कि भारतीय नौजवान वर्ग में जनवादी चेतना का प्रसार हुआ। उन्होंने अंग्रेजी स्कूलों में विश्व के विभिन्न देशों के इतिहास, विज्ञान और धर्म के बारे में पढ़ा। उन्होंने भारत में ब्राह्मणवादी सामंतवाद के चलते जातियों में बंटे समाज और यूरोपीय समाज का परस्पर अध्ययन किया। उस समय तक यूरोप पूंजीवादी क्रांति से गुजर चुका था। वहां पर आधुनिक विज्ञान की नींव पड़ चुकी थी। डार्वि‍न, मोरगेन जैसे वैज्ञानिकों के चलते प्राकृतिक और मानव विज्ञान में काफी प्रगति हासिल हो चुकी थी। इसका असर उस समय के पढ़े-लिखे तबकों और सामाजिक सुधार के लिए खड़े हुए महापुरुषों में दिखाई देता है।

18वीं में ईसाई मिशनरी स्कूलों ने प्रभावशाली प्रचार अभियान चलाया। पश्चिम भारत के शहरी केंद्रों में मौजूद सरकारी स्कूलों और मिशन ने उस समय की युवा और छात्र पीढ़ी के विचारों को बहुत शक्तिशाली तरीके से प्रभावित किया था। 1840 में जोतिबा फुले ऐसे ही एक स्कूल में छात्र थे जो कि पूने में फ्री ऑफ स्काटलैंड द्वारा चलाया जा रहा था। इस में विभिन्न जातियों के लोग थे कुछ महार और मांग भी थे लेकिन ज्यादातर पारंपरिक रूप से शिक्षित जाति जैसे किसान, दस्तकार और व्यापारी जातियों के बच्चे थे। जोतिबा की जाति माली थी जो कि एक मध्यम जाति थी और शूद्र श्रेणी में आती थी। उनका पारंपरिक पेशा सब्जी, बगीचा और फूलों की खेती थी।1

उस समय अपने स्कूल में अपने सहपाठियों के बीच होने वाली बातें और स्कूल व अखबारों के जरिए मिलने वाली शिक्षा फुले की चेतना का स्रोत थे। स्कूल में एक तरह की लकीर खिंच चुकी थी। कुछ बच्चे थे जो अपने परिवार में होने वाली रूढ़ि‍वादी, जातिवादी, ब्राह्मणवादी विचारों को सही मानते थे और कुछ शूद्र जातियों से थे जिन्‍होंने अंग्रेजी किताबें पढ़ ली थीं वे इनका विरोध करने लगे थे। – फुले और उनके साथियों ने अपने स्कूली दिनों में जो कार्यक्रम किये और जिनमें उन्होंने भाग लिया उनके अंदर शुरू से व्यक्तिगत रूप से सामाजिक सुधार और धार्मिक कट्टरता के समूह बन गए थे। उनके साथियों का समूह एक महत्वपूर्ण समूह के रूप में उभरा, जिसका मानना था कि युवा हिंदुओं के अंदर धार्मिक बदलाव अलगाव में रहकर नहीं बल्कि कालेजों, सोसाइटी, अपने दोस्तों व सहपाठियों के अंदर ग्रुप बनाकर नए दृष्टिकोण पर चर्चा करके आएगा। नए दृष्टिकोण को लागू करने और जातीय नियमों को तोड़ने के लिए अर्धगुप्त संघ बनाने होंगे।2 उनका ये आइडिया उनके स्कूल, कालेज के दिन या फिर बाद में अपने सामाजिक सुधार के कार्यों में भी दिखाई देता है। वह विशेष तौर पर खास संस्थान को चुनते हैं और अपने विचारों को फैलाते हैं। उनका आंदोलन 1973 में सत्यशोधक समाज की स्थापना के बाद एक व्यापक और खुले आंदोलन का रूप लेता है। अंत में वह महाराष्ट्र के लड़ाकू आंदोलनों में से एक बनता है।

दक्षिणी और पश्चिमी भारत में ब्राह्मणवादी सामन्ती वर्चस्व एवं शोषण के विरुद्ध शूद्र तथा अतिशूद्र जातियों को गोलबन्द करते हुए 19वीं सदी के अन्त में गैर-ब्राह्मण आन्दोलन विकसित हुए। प्रमुखता से ये आन्दोलन जाति उत्पीड़िन के विभिन्न पहलुओं, अन्धविश्वास, जातिगत-सामन्ती विशेषाधिकारों एवं अधिकारों, अनुवांशिक स्वरूप के पदों, संस्कृत पर आधारित शिक्षा आदि के सवालों पर केन्द्रित रहे। इन आन्दोलनों ने जातिगत उत्पीड़न को जाति की उत्पत्ति के नस्ल-आधारित सिद्धान्त का प्रयोग कर ब्राह्मणों की व्याख्या द्रविड़ नस्ल पर कब्जा करने वाले आर्य आक्रान्ताओं के रूप में की।

उस समय दो सबसे ज्यादा शक्तिशाली गैर-ब्राह्मण आन्दोलन महाराष्ट्र में फुले और तामिलनाडु में पेरियार के आन्दोलन रहे। दोनों ही आन्दोलन सामन्ती, उच्च जाति के अभिजातों के विरुद्ध थे पर अँग्रेज-विरोधी नहीं थे। फुले और पेरियार दोनों ही पश्चिम के उदारपन्थी विचारों से प्रभावित रहे। लगभग 20 सालों तक समाज सुधारक के तौर पर कार्य करने के बाद जोतिबा फुले ने 1873 में सत्यशोधक समाज स्थापना की। इसका मुख्य कार्य ब्राह्मणों द्वारा किए जाने वाले शोषण के विरुद्ध गैर ब्राह्मण जातियों में चेतना का प्रसार करना था। फुले खुद मध्य जाति से थे और मिशनरी स्कूल में शिक्षित हुए थे। लेकिन उन्होंने अपनी गतिविधियां केवल अपनी जाति तक सीमित नहीं रखी बल्कि बहुत सारी गैरब्राह्मण जातियों में अपने आंदोलन का प्रसार किया।3

फुले ने अपने प्रयास मुम्बई की जनता के उत्पीड़ित तबकों मजदूर वर्ग पर और पुणे तथा आसपास के किसानों एवं अछूत तबकों के बीच केन्द्रित किये। लोकप्रिय, तीखा प्रयास करने वाली शैली और भाषा का प्रयोग करते हुए अपने गीतों, पुस्तिकाओं तथा नाटकों के जरिये फुले ने ‘शेटजी-भटजी’ वर्ग (सूदखोर-व्यापारी और पुजारी वर्ग) के उन तौर-तरीकों का पर्दाफाश किया जिनसे वे सर्वसाधारण लोगों, खास कर किसानों को ठगते थे।

उनके सत्यशोधक समाज ने ब्राह्मण पुजारियों को बुलाकर आयोजित किये जाने वाले परम्परागत विवाह समारोहों को नकार दिया, ऐसे नाइयों की हड़ताल का नेतृत्व किया जिन्होंने विधवाओं के सिर के बाल छीलने से इन्कार किया था, स्त्रियों के लिए स्कूल, परित्यक्ता स्त्रियों के लिए आश्रय-स्थल, अछूतों के लिए स्कूल शुरू किये और पीने के पानी के कुँओं को अछूतों के लिए खुला कर दिया। फुले के मार्गदर्शन में 1890 में एनएम लोखण्डे ने मुम्बई के सूती कपड़ा मिल मजदूरों का पहला सुधारवादी संगठन खड़ा किया जिसे ‘मिल हैण्ड्स एसोसियेशन’ (मिल में काम करने वालों की सभा) कहा गया। फुले ने किसानों के बीच आधुनिक कृषि को प्रोत्साहन दिया, नहरों का पानी इस्तेमाल न करने के अन्धविश्वास के विरुद्ध संघर्ष किया, इसका प्रयोग करने के लिए खुद जमीन खरीदी और उदाहरण प्रस्तुत किया। उन्होंने सहकारिता गठित करने की पहल का दिलोजान से समर्थन किया और दरअसल सत्यशोधक समाज के कार्यक्रम में यह सबसे महत्वपूर्ण मुद्दों में शामिल रहा।

मराठी शूद्र किसानों के पुनर्जागरण के प्रतीक के तौर पर शिवाजी का प्रयोग करने वालों में फुले पहले व्यक्ति रहे। उन्होंने मराठी में शिक्षा देने और प्रशासन में अनुवांशिक पदों का खात्मा करने के लिए संघर्ष किया। फुले का जनवादी नजरि‍या और राष्ट्रीयतावादी भावना रही, जिसके कारण किसानों के प्रति उनका झुकाव सुसंगत रहा। लेकिन उत्पीड़न के स्रोत को अँग्रेजों की औपनिवेशिक नीतियों और उनके द्वारा स्थापित अर्द्ध-सामन्ती उत्पादन प्रणाली में भी न देख पाने के कारण उनका यह कार्यक्रम ब्राह्मणवाद और शेटजी-भटजी वर्ग (व्यापारी-पुजारी वर्ग) द्वारा शोषण के खिलाफ लड़ने तक सीमित रहा। सत्यशोधक समाज का कार्यक्रम उभरते किसानों के हित को दर्शाता रहा।

फुले के देहान्त के बाद सत्यशोधक समाज अहमदनगर, सातारा, कोल्हापुर जिलों में कायम रहा और बेरार क्षेत्र के अमरावती में भी फैला। सत्यशोधक समाज की ‘तमाशा’ टोलियों के प्रचार के परिणामस्वरूप 1921-22 में सातारा में और 1930 के दशक में बुल्ढाणा में जमींदारों के खिलाफ किसानों के विद्रोह हुए। अपने ओजस्वी नेता आनन्द स्वामी के नेतृत्व में किसानों ने लगान में कटौती की मांग की, ब्राह्मणों एवं उनके भगवानों को लांछित किया, सूदखोरों तथा व्यापारियों पर हमला बोला, अँग्रेजों के कोषागार लूट लिए और पुलिस थानों पर हमले किये। वास्तव में उन्होंने देहाती इलाकों में सामन्ती प्राधिकार पर तथा अँग्रेजों पर भी हमला किया। इस प्रकार उन्होंने सामन्तवाद-विरोधी तथा साम्राज्यवाद-विरोध चेतना जगायी। गैर-ब्राह्मणों में जमींदार तबकों ने इन गतिविधियों का कोई समर्थन नहीं किया, बल्कि इनकी निन्दा की। इन आन्दोलनों के फलस्वरूप पश्चिम महाराष्ट्रा के गाँवों से जमींदारों का व्यापक पैमाने पर पलायन हुआ।

इसके अलावा ये आन्दोलन 1940 के दशक के उस आन्दोलन का अग्रदूत भी बने जिसमें विख्यात नाना पाटिल ने ‘पत्री सरकार’ के नाम से जमींदारों-सूदखोरों के गठजोड़ और बरतानवी हुकूमत के विरुद्ध जनता की समानान्तर सरकार कायम की थी। बाद में गैर-ब्राह्मण का यह रुझान ‘शेतकरी कामगार पक्ष’ (किसान-मजदूर पार्टी) और ‘लाल निशान पार्टी’ में विलीन हुआ और इसके नेता जावलकर तथा नाना पाटिल भारत की कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हुए।

फुले के भाषण

फुले के ये भाषण मराठी में पहली बार 25 दिसंबर 1856 में प्रकाशित हुए थे। पुणे के शिळा प्रकाशन द्वारा प्रकाशित यह पुस्तक रेवरेंड मिचेल व श्रीमती मिचेल के प्रोत्साहन से श्रीमती सावित्रीबाई फुले ने तैयार की थी।4 यह किताब नायगाव के श्री रघुनाथराव नेवसे के पास से प्राप्त हुई थी। उस समय सावित्रीबाई पर शोध कर रहे लेखक, उनसे जुड़े हर व्यक्ति और स्थान का भ्रमण कर रहे थे। जब जोतिबा के भाषण नामक मराठी पुस्तक सावित्री बाई ने तैयार की तो जोतिबा की उम्र महज 29 साल थी। 29 साल की उम्र में, उस समय जितने संसाधनों का अभाव था, उसके हिसाब से उनका अध्ययन भारतीय चिंतन परंपरा के हिसाब से बेजोड़ है। जब उनके भाषण पढ़ेंगे तो आपको पता चलेगा कि अपने समाज का तुलनात्मक अध्ययन करने के लिए वह जीव विज्ञानी डार्विन के सिद्धांत, रोमन और ग्रीस सभ्यता का इतिहास, लिव्ह, प्लूटार्क, टासिटस जैसे इतिहासकारों, केटो, मेरीयास, सीझर, सिसरो जैसी हस्तियों, मॉगेस्थिनीस जैसे लेखकों का हवाला देते हैं। वह इतिहास का अध्ययन कर बताते हैं कि किस तरह से आर्य जनजाति ने भारत में घुसपैठ की और यहां पर मौजूद व्यवस्था जिसको वह बलिस्तान का नाम देते हैं को ध्वस्त किया और यहां के लोगों को गुलाम बना दिया गया।

जोतिबा का पहला भाषण ‘अतिप्राचीन काल’ में मानव जाति की उत्पत्ति, पशु-पक्षी और मानव में भेद, जंगली अवस्था से मानव अवस्था तक मनुष्य का सफर, मनुष्य के विकास से बलिस्तान की व्यवस्था तक पहुंचता है। फुले अपने भाषण में जोर देते हैं कि आकाश गंगा में अनगिनत वायुमंडल हैं और इनके बनने व नष्ट होने का सिलसिला चलता रहता है। वायुमंडल के ग्रहों में स्थलचरजलचर और वायुचर जीव जंतुओं का विकास हुआ। इन्हीं में से एक मानव के रूप में विकसित हुआ। डार्विन का हवाला देकर वह उस समय ब्राह्मण पुरोहितों द्वारा मन में बिठाई गई बात कि ब्रह्म सृष्टि के रचयि‍ता हैं, को नकार देते हैं। वह बताते हैं कि मानव और पशु में एक समय कोई भेद नहीं था। मनुष्य के बुद्धि ज्ञान के चलते मनुष्य पशुओं से अलग हो गया। खानापीनासोनाभय और मैथुन मनुष्य और पशुओं में एक समान है। मनुष्य में ज्ञान होता हैसोचने की ताकत होती है और यही बात मनुष्य को जानवरों से अलग करती है। फुले इंडिया को बलिस्तान कहते हैं। वह लिखते हैं: इंडिया देश इंडियन मानववंश का उत्पत्ति स्थल है। प्राचीन काल में यहां अखंड मानव समाज के अनेक झुंड रहते थे। आज उन्हें शूद्रअतिशूद्र के नाम से जाना जाता है। ये यहां के मूल निवासी हैं। जंगली व क्रूर ईरानी आर्य ब्राह्मणवादियों के विपरीत ये लोग अधिक सभ्यसुविचारी व विकसित लोग थे। वह अपने देश यानी बलिस्तान में जगहजगह अपने गांव बनाकर स्वतंत्रतापूर्वक रहते थे। उन्होंने बार-बार अपने भाषणों में बलिस्तान की बात कही, बलिस्तान पर गर्व करने और बलिस्तान की पुनर्स्‍थापना करने की बात दोहराई है।

‘इतिहास’ नामक भाषण में वह जो मूल बात स्पष्ट करते हैं वह आर्यों के आक्रमण और शुद्रों के गुलाम बनने की दास्तान है। आर्यों को वह ईरानी मूल के असभ्य प्राणी बताते हैं। वह पुराणों को निशाने पर लेते हुए उनको खिचड़ी इतिहास बताते हैं जो कि पुरोहितों ने अपने आप को सर्वोच्च पद्द पर स्थापित करने के लिए रचे हैं जिसके जरिये उन्होंने शारीरिक काम करने वाले को हीन और दिमागी काम करने वाले को श्रेष्ठ साबित किया है। इसी भाषण में वह ग्रीस की सभ्यता, रोमन द्वारा उसकी तबाही की कहानी भी सुनाते हैं। इसी में वह भारत और अमेरिका की खोज कैसे की व इंग्लैंड कैसे सभ्य बना इस पर भी रोशनी डालते हैं। इसी में वह कहते हैं कि गुलामगिरी को समाप्त कर बलिस्तान की स्थापना होगी। मैं दृढ़ता के साथ कहता हूं कि आने वाले समय में शुद्रअतिशूद्र विद्या प्राप्त करके अपने इंडियन पुरखों की तरह हिंदुस्तान में लोकतांत्रिक बलिराज्य की स्थापना कर राज करेंगे।

अगला भाषण ‘सभ्यता’ है जो कि ‘इतिहास’ का ही विस्तार है। इसमें सभ्यताओं का विकास और बलिस्तान सभ्यता की तुलना की गई है। आखिरी भाषण ‘गुलामगिरी’ के बारे में है। अमेरिका और नीग्रो लोगों को किस तरह से यूरोपीय लोगों ने गुलाम बनाया इस पर वे विस्तार से लिखते हैं। वह अमेरिका के काले गुलामों की जिंदगी से जब यहां लोगों को रूबरू करवाते हैं तो वह रोने लगते हैं। ग्रीस देश से शुरू हुई गुलाम प्रथा को वह अपने समय तक अमेरिकी गुलामों तक लेकर आते हैं। वह स्वतंत्रता को मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार और स्वभाव मानते हैं। वह आर्यों की तुलना ग्रीस के पुरोहितों से करते हुए लिखते हैं- एक ग्रीस पंडित ऑरिस्टाटल ने ब्राह्मण पुरोहितों के मनु की तरह कहा, “ग्रीस लोग को मानसिक श्रम करना चाहिए और गुलाम को शरीरिक श्रम करना चाहिए। गुलाम जनता सामाजिक व्यवस्था का रीढ़ की हड्डी होती है। इसलिए गुलामगिरी राज्य व्यवस्था का प्रमुख विभाग होना चाहिए। यही समझदारी यहां के ब्राह्मण पुरोहितों की हैवह कहते हैं कि शूद्र द्विज ईश्वररहित दास होते हैंउनका शूद्रत्व समाज की पवित्रता की रक्षा करता है। अस्पृश्य धर्म रहित होते हैं और भद्र स्त्रियों की आबरू की रक्षा करने में वेश्याओं की तरह अप्रत्यक्ष मदद करते हैं। इसी प्रकार अस्पृश्यता द्विज जाति के मंगल की रक्षा के लिए उपयुक्त है। इससे यह सिद्ध होता है कि ग्रीस देश के ग्रीस यवन व भारत के ईरानी आर्य ब्राह्मण सगे जुड़वा भाई थे। 

इसके बचाव के लिए वह कहते हैं – वह पुरोहितों के देवधर्म व पुराण अपने दिमाग में अंधविश्वास पैदा करते हैं और गुलामगिरी को पक्का करते हैं। जो पुराणों में लिखा गया हैवह सच नहीं है। ईरानी आर्यद्विज ही असली बुरे कर्म वाले व अस्पृश्य लोग हैं। इनकी गुलामगिरी से बचने के लिए एकजुट होकर कंधे से कंधा मिलाओ और अपने पुरखों की जयजयकार करो।


1 Caste, Conflict and Ideology Mahatma Jotirao Phule and Low Caste Protest in Nineteenth-Century Western India by Rosalind O’Hanlon pp. 105
2 Ibd 106-07
3 Scripting the change, page 36
4 सावित्री बाई फुले समग्र वाड.मय (मराठी), संपादक डा. मा. गो माळी, पांचवां संस्करण 2011, प्रकाशक महाराष्ट्र राज्य साहित्य और संस्कृति मंडल. पृ. 36



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