हसदेव अरण्य हिन्दुस्तान और दुनिया में चर्चा का विषय तब बना जब उसे नष्ट किए जाने की सारी तैयारियां लगभग हो गयीं। और यह ठीक उसी तरह हुआ जैसे देश के अन्य जंगलों, पहाड़ों, नदियों, समुद्री तटों और- अगर फेहरिस्त लम्बी करते जाएं तो- यहां के जीव-जंतु, जैव-विविधता और यहां बसे लोगों और समुदायों के साथ हुआ। ये सब कुछ चर्चा का मुद्दा तब बने जब इन्हें ख़त्म किए जाने की सरकारी कोशिशें शुरू हुईं और उन्हें रोकने के लिए स्थानीय समुदायों ने इन्हें बचाने की पहल की। ऐसे में असल चर्चा उस संघर्ष के बहाने ही शुरू हुई जो एकतरफा ज्यादती और किसी भी तरह इन सभी को बचा लेने की ज़द्दोज़हद के दौरान हर पड़ाव पर आये संघर्षों के बीच कहीं लिखी गयी।
हमने अपनी सबसे पुरानी और सबसे ज़रूरी प्रकृति पर आम बातचीत में चर्चा करना नहीं सीखा। हमने उसके रुतबे को कभी सलाम करना नहीं सीखा। हमने कृतज्ञता नहीं सीखी। हमने उस नैसर्गिक शै को कभी देर तक बैठकर निहारना नहीं सीखा। हमने प्रकृति के रंगों को आँखों में बसाना नहीं सीखा और हमने उन झरनों की आवाज़ को अपने कानों की संगत बनाने की पहल नहीं की। हमने उन्हें भोगना ही सीखा।
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हमें अंग्रेजों की ऐसी विरासत मिली जिनके लिए जंगल महज़ उद्योगों के लिए कच्चा माल पैदा करने की प्राकृतिक फैक्ट्रियां बने रहे। हमने अपनी संस्कृति पर गर्व किया। इतना किया कि दूध को फेंका और मूत्र को पीना सीख लिया लेकिन हमने विशुद्ध रूप से यहीं पैदा हुई उस अरण्यक संस्कृति को न तो समझा और न ही शांत खड़े जंगलों, कलकल बहती नदियों और झरनों की भाषा को सीखा। हमने अंग्रेजों से कृतघ्न होना सीखा। अपनी प्रकृति के प्रति कृतघ्न होना सीखा। हमने उनसे माई-बाप का होना सीखा। हमने यह भी सीखा कि एक ताक़त होती है। इस ताक़त के पास सब कुछ नष्ट कर देने की ताक़त होती है। उसकी इस ताक़त के पीछे उसको हासिल अधिकार होते हैं। ये अधिकार जब अँग्रेज़ थे तो उनके पास स्वत: थे। जब वो चले गए तो हमने अपने लिए उनकी ही तरह उस ताक़त को पैदा किया अपनी राय से। हमें गुलामी की आदत हो गयी। हम गुलाम बने रहे। इसके लिए हमने अपने लिए शासक चुनना सीख लिया। हम बिना गुलाम हुए नहीं रह सकते थे। हमने अपने ही द्वारा चुने हुए शासकों की मिन्नतें करना सीख लिया। मिन्नत करने से शायद उसका दिल पसीजे और उसके पास जो सब कुछ नष्ट कर देने की ताक़त है उसका इस्तेमाल वो ना करे। खुद आगे बढ़कर वो ताक़त हमारी तरफ खड़ी हो जाए और हमारी भाषा में यह कहे कि जंगल से आने वाली सुगंध कितनी अच्छी लगती है। ऐसा तो सोचा नहीं जा सकता। हमारी सारी ताक़त हमेशा ताक़तवर के सामने यह मिन्नत करने में ही जा रही है कि वो अपनी ताक़त का इस्तेमाल ना करे या कम करे। अंग्रेजों से हमने यही सीखा। इसी सीख को हमने आज़ाद भारत में दोहराया और एक लोकतंत्र में इसे आन्दोलन और शोषण के विरुद्ध अभिव्यक्ति और संगठन बनाने के अधिकार के रूप में खूबसूरती से इस्तेमाल किया।
हसदेव, जो एक अरण्य है और ऐसा अरण्य है जिसके ऊपर मध्य भारत की हवा, बारिश और तापमान में संतुलन बनाने की महती ज़िम्मेदारी है, इसका मानवीकरण करते हुए अक्सर इसे मध्य भारत के फेफड़े तक कहा जाता है। आज उन्हीं ताकतवरों को यह कहने की कोशिश कर रहा है कि अपनी ताक़त का इस्तेमाल हमें उजाड़ने के लिए मत करो। इन ताक़तवरों में कौन नहीं है और अब जब यह तय हो चुका है कि वो अपनी ताक़त का इस्तेमाल ठीक वहीं करने जा रहे हैं जिसके लिए उन्होंने ताक़त अर्जित की है तब हसदेव नितान्त अकेला और शांत खड़ा है।
ताक़त के बेजा इस्तेमाल को अन्याय कहा जाता है। शक्ति आज भी ठीक उसी तरह अन्याय के साथ खड़ी दिख रही है जैसे निराला ने राम के खिलाफ़ उसे समुद्र तट पर देखा है। शक्ति अन्याय के साथ है। मिथकों के इस देश में शायद मिथक इसलिए भी कभी पुराने नहीं पड़ते क्योंकि वहां बतायी गयीं परिस्थितियां कभी पुरानी नहीं होती हैं। काल की परिधि से परे है मिथकों की दुनिया। आज भी हिन्दुस्तान की हकीक़त अगर उन्हीं मिथकों का सहारा ले रही है तो उसकी वज़ह यही है कि तमाम आधुनिकता के बावजूद हमारी परिस्थितियां नहीं बदलीं।
हसदेव के गुनाहगारों में देश की सरकारें हैं, राजनैतिक दलों के नेता हैं, तमाम अधिकारी हैं, मंत्री हैं मंत्रालय हैं, अदालतें हैं, मीडिया है। और ये सब जिसके लिए हसदेव के स्वत: गुनाहगार बनने के लिए तैयार हैं वो अडानी है। अडानी यहां चर संख्या है। ये न होता तो कोई और होता। बाकी की भूमिका वही रहती।
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एक व्यक्ति आता है हसदेव। कहकर जाता है कि यहां खनन नहीं होगा। व्यक्ति कद्दावर है। व्यक्ति बहुत ताक़तवर है। एक ताक़तवर व्यक्ति अच्छा भी बनता हुआ दिखलायी दिया। उस रोज़ हसदेव को बहुत गर्व हुआ। उस दिन हसदेव को देखा था। एक अलग ही लालिमा थी उसके ललाट पर। उस रोज़ हसदेव ने एक बहुत ताक़तवर व्यक्ति को एक साथ अच्छा और ताक़तवर होना देखा।
इसी दृश्य को आज फिर देखा। ताक़तवर व्यक्ति लम्बे समय तक अच्छा होने का स्वांग नहीं कर सकता। अक्सरहां वह जल्दी वापस ताक़तवर हो जाता है। अच्छा होना ख़बरों के हवाले कर देता है। इस अच्छाई में भी इतना तो पता चलता ही है कि अंतत: हसदेव को उसके सामने मिन्नत करनी ही पड़ी जो जब यहां या तब कुछ भी नहीं था, अपनी पार्टी के चेहरे के सिवा। वह आज भी कुछ नहीं है सिवा अपनी पार्टी के चेहरे के, फिर भी वह इतना ताक़तवर है कि हसदेव को नष्ट होने से बचा सकता है। जैसा पहले कहा, ताक़तवर वह है जो कुछ नष्ट ना करे। कुछ अच्छा करे इसके लिए ताक़त ही कभी ज़रूरत नहीं रही।
हसदेव इस अच्छाई और ताक़त के बीच बनी एक कहानी है। खुद को बचाने की पहल करती हुई एक कहानी…।
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लोकतंत्र की मौत की जो भविष्यवाणी बीते समय में अनगिनत बार अलग-अलग मामलों में होती रही है अब उसकी पुष्टि हर रोज़ घट रहीं घटनाएं कर रही हैं। हसदेव भी इन्हें देख रहा है। जो व्यक्ति यहां आया था उसने कुछ रोज़ पहले एक ऎसी बात कही जो हर समझदार व्यक्ति कहता है। उसने यही कहा कि लोकतंत्र नहीं बचेगा अगर लोकतांत्रिक संस्थाएं नहीं बचेंगी। हसदेव इन लोकतांत्रिक संस्थाओं के ख़त्म होने का गवाह है, हालांकि दूर की कौड़ी है लेकिन पता नहीं क्यों लगता है कि यह बात हसदेव ने उस व्यक्ति से कहलवायी। अपनी कही बात केवल दूसरों को नहीं सुनायी देती बल्कि खुद के अन्दर भी देर तक गूँजती है। हसदेव ने इसलिए उससे यह बात कहलवायी ताकि जब वो शांत बैठे तो उसे अपनी ही आवाज़ सुनायी दे, ख्याल रहे।
आज हसदेव अपने एक दशक से ज़्यादा के संघेर्ष के अंतिम पड़ाव पर बैठा है। तकनीकी भाषा में इसके बारे में सारी बातें इसके पक्ष में हैं और व्यावहारिक रूप से अंग्रेजों की विरासत लिए हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था जो बहुत-बहुत ताक़तवर लोगों का एक समूह है इसके विपक्ष में है। यह पक्ष-विपक्ष हमारी सभ्यता का सबसे गंभीर संकट है। हम एक संकटग्रस्त कल्पित समुदाय हैं। हसदेव ने आज यह बात ज़ोर देकर कही।