तिर्यक आसन: गाँधी टोपी के साथ मेरे भौतिक द्वन्द्ववादी प्रयोग


गाँधी के नाम पर टोपी पहनाने वाले अक्सर मिलते रहते हैं। उनकी कोशिश रहती है कि वे मुझे भी गाँधी के नाम पर टोपी पहना सकें। मैं बहाने बना देता हूँ। बच जाता हूँ।

एक दिन बहाने खत्म हो गए। उस दिन वे सूर्योदय की तरह चले आये। पूरब से पश्चिम दिशा की तरफ बढ़ते हुए, वे जब सिर के ऊपर चढ़ गए, तब उनके विचारों का तापमान अधिकतम हो गया। ताप से झुलसने से बचने के लिए मुझे टोपी पहनने के लिए राजी होना पड़ा। फिर भी टोपी से बचने के बहाने सोचने का समय माँग ही लिया- अभी बालों में रूसी लगी हुई है। रूसी का इलाज करवा लेता हूँ, फिर टोपी पहन लूँगा। रूसी से टोपी ‘इन्फेक्टेड’ हो सकती है।

टोपीबाजों ने कहा, “दिखाइए तो जरा।” उस समय मेरे बालों में रूसी नहीं लगी हुई थी। क्या दिखाता? पर मैंने रूसी दिखाई। उनको ‘ओपन किचन’ में ले गया। आटे का कनस्तर दिखा दिया- ये मेरे बालों की चक्की में पिसी हुई रूसी है। इसी की रोटी बनाकर खाता हूँ। सुबह चक्की चली थी, इसलिए अभी बालों में रूसी नहीं मिलेगी। शाम तक बालों में फिर इकट्ठा होगी। शाम तक रुकिए, दिखाता हूँ।

उनको टोपी और लोगों को भी पहनानी थी, तो वे खड़ी दोपहर में सूर्यास्त की तरह चले गए। 

उनके जाने के बाद मैं भौतिक द्वंद्ववाद में रहा- टोपी सीधे पहन लूँ, या जिन लोगों को उन्होंने पहनाई है, पहले उन पर प्रयोग कर के देख लूँ ? प्रयोग का नतीजा देखने के बाद पहनना ठीक रहेगा, ये तय किया। मैं प्रयोग करने निकल पड़ा। सत्य की खोज में ज्यादा दूर नहीं चलना पड़ा। सत्य पड़ोस में ही मिल गया।

एक घर की घंटी बजाई। दरवाजा खुला। सामने सत्य जी टोपी पहने खड़े थे। मैंने आव देखा न ताव, एक तमाचा रसीद कर दिया। सत्य जी भौचक्के- ये रोज मिलता है। कभी ऐसी हरकत नहीं की। आज क्या हो गया इसको? मैं वहीं खड़ा रहा। जब उनके कान में सीटी बजना बंद हुई, तो जबान का लाउडस्पीकर गरजना शुरू हुआ। कुछ गालियाँ चिर-परिचित थीं। कुछ उनकी आविष्कार थीं। मैं जवाबी प्रहार के इंतजार में खड़ा रहा। सत्य जी ने दरवाजा बंद कर लिया। मेरी हरकत लात खाने वाली थी, पर वे लतिया नहीं सके। कारण, गुस्से की पॉलिटिक्स।

पता ही होगा कि गुस्से की भी पॉलिटिक्स होती है। अपने से कमजोर पर ही निकलता है। बॉस पर कभी नहीं निकलता। इस पॉलिटिक्स के अनुसार सत्य जी अपना गुस्सा मुझ पर नहीं निकाल सके। वे जानते हैं, इसकी क्रिया के विरुद्ध प्रतिक्रिया की, तो ये आलोचना की समालोचना कर देगा। वो भी एक्स्ट्रा 2एबी के साथ। ये रात भर मेरी छत पर कंकड़ फेंकेगा, और गाएगा- बजती है जल तरंग टीन की छत पे जब मोतियों जैसा जल बरसे….रिमझिम रिमझिम रुमझुम रुमझुम।

सत्य जी ने मेरे ऊपर जवाबी हमला नहीं किया, तो मुझ पर टोपी चढ़ने लगी- उन्माद के इस दौर में कोई इतना बर्दाश्त कर ले रहा है, ये क्या कम है। तभी भौतिक द्वंद्ववाद बोला- एग्जिट पोल का सर्वे कर रहे हो क्या, जो एक से पूछकर नतीजे पर पहुँच गए। और प्रयोग करो। 

भौतिक द्वंद्ववाद के द्वंद्व में प्रयोग करने आगे बढ़ा- इस बार अपने से शक्तिशाली पर करूँगा। अपने से शक्तिशाली की तलाश में भटक रहा था। उसी दौरान एक जाना-पहचाना गाड़ियों का काफिला नजर आया। जाना-पहचाना इसलिए, क्योंकि काफिले में एक गाड़ी के ऊपर टोपी लगी हुई थी। टोपी लाग रंग की थी। लप्प-लुप्प जल-बुझ भी रही थी। मैं काफिले के सामने लेट गया। काफिला रुका। असलहाधारी गाड़ी से उतरे। मुझे घसीटकर सड़क से हटाने लगे। मैंने अपने हाथों से उनके पैर में छन्ना मार दिया। गुहार लगाने लगा- नेता जी से मिलना है। उधर से नेता जी ने इशारा किया- आने दो। अंगरक्षकों ने मेरी नख-शिख तलाशी ली। फिर नेता जी के पास ले गए।

नेता जी का मुँह पिंजरे में कैद शेर की तरह गाड़ी की खिड़की से बाहर निकला। मैंने आव देखा न ताव, नेता जी के गाल पर उनका चुनाव चिह्न छाप दिया। अंगक्षकों ने भी आव देखा न ताव, मेरे ऊपर चुनाव चिह्न की बौछार कर दी। लात घूसों की बौछार तब तक होती रही, जब तक मैं उस अवस्था में नहीं पहुँच गया, जिस अवस्था में मैंने काफिला रोका था। फिर भी नेता जी को मैं अच्छा ही मानता रहूँगा। टोपी के प्रभाव से उन्होंने मुझे पुलिस के हवाले नहीं किया। जनता ने भी उनकी टोपी देख उन्हें वोट नहीं, दिल दिया था। जनता कह सकती है- दिल दिया दर्द लिया। मैं तो कुछ और कहूँगा- वोट दिया घाव लिया। 

नेता जी सेकेंड की सुई की तरह सन्न से निकल गए। मेरी स्थिति घंटे के सुई की तरह भी चलने लायक नहीं थी। भौतिक द्वंद्ववाद का दम टूट चुका था। पास ही मजदूरों की मंडी लगती है। मेरी हालत देख चार मजदूर आये। मुझे काँधा देकर मंडी में ले गए। घंटे दो घंटे बाद मैं मिनट की सुई की तरह चलने लायक हुआ, तो घर वापस लौटा। रास्ते में सत्य जी भी मिले। वे गुनगुना रहे थे- रिमझिम रिमझिम रुनझुन रुनझुन।

प्रयोग नम्बर दो के दौरान भौतिक द्वंद्ववाद दम तोड़ चुका था। मन और चित्त शांत। दिन शांति के साथ गुजर रहे थे। पर शांति के साथ बहुत दिन नहीं रह सका। साहित्य जगत में रॉयल्टी की बात उठी- प्रकाशक द्वारा साहित्यकार को उचित पारिश्रमिक देना चाहिए। हालाँकि साहित्यिक पारिश्रमिक से अब तक साबका नहीं पड़ा है, पर मजदूर के पारिश्रमिक का महत्त्व जानता हूँ। 

उस दिन मंडी में मुझे काँधा देने वाले मजदूर मेरा हाल-चाल ले रहे थे। नाम, पता पूछने के बाद काम के बारे पूछा। मैंने ‘फ्रीलांसर हूँ’ बताया। उन्होंने फ्रीलांसर क्या होता है पूछा। मैंने बताया- जैसे मजदूरों की मंडी लगती है, उसी तरह मेरी भी मंडी लगती है। मंडी में मेरे जैसे लोग हाथ ऊपर किये खड़े रहते हैं- काम दे दो। काम दे दो। मजदूरों ने पूछा दाम कितना मिलता है। उन्हें बताया- फ्रीलांसर और मनरेगा मजदूरों में कोई अंतर नहीं है। वैसे ही काम मिलता है। वैसे ही दाम मिलता है।

इसके आगे की बात मजदूरों को नहीं बताई। व्यक्तिगत जो है। 

मुझे जहाँ काम मिलता है, वहाँ टिक नहीं पाता हूँ। पारिश्रमिक को लेकर झगड़ता रहता हूँ। गुस्से की पॉलिटिक्स के अनुसार बॉस पर गुस्सा नहीं निकाल सकता, तो खुद पर ही निकाल देता हूँ। सहयोगियों पर गुस्सा निकाल संस्थान छोड़ देता हूँ। वैसे ये व्यक्तिगत बात थी, फिर सार्वजनिक क्यों कर दी? 

हाँ, तो रॉयल्टी का मुद्दा उठा। सबसे पहले ये देखा कि रॉयल्टी के मुद्दे पर कितने साहित्यकार मुखर हैं। सुखद आश्चर्य हुआ कि मासिक वेतनभोगी भी मुखर हैं। भले ही इक्का दुक्का ही हों। मुझे थोड़ी शांति मिली।

विश्वविद्यालयों में कार्यरत लाखों रुपये मासिक वेतन पाने वालों से अगर कोई उम्मीद कर रहा है कि वे मुखर आवाजों में अपनी आवाज मिलाएँ, दहाड़ नहीं सकते तो हुआँ-हुआँ ही करें, तो उन्हें ऐसी उम्मीद नहीं करनी चाहिए। वे लेखक कहलाने के ‘ग्लैमर’ से अभिभूत हैं। आपकी उम्मीद से वे नाराज हो गए, तो चार मिलकर साहित्य को अपने काँधे का सहारा दे देंगे। चारों अपना प्रकाशन शुरू कर देंगे। किसी चार और से मिलकर कोई लक्खा पुरस्कार भी शुरू करा देंगे। एक-दूसरे को लेते-देते रहेंगे। मुखर आवाजों में शामिल होने का आह्वान कर उन्हें नाराज मत करिए। पहले से ही पंद्रह हजार में पाँच सौ कॉपी प्रकाशकों की दुकानें गली-गली में खुली हुई हैं। ऐसे ही एक प्रकाशक सह संपादक को नेता (उपर्युक्त) की तरह अच्छा मानता हूँ। वे स्वीकार करते हैं- मैं संपादक नहीं, सीईओ हूँ। लोग मुझे संपादक समझते हैं, इसमें मेरी क्या गलती। संपादक जी का कहना ठीक है। इनसे रॉयल्टी की बात ही न करें। न ही इनके खजाने में पंद्रह हजार का दान देकर सर्टिफाइड लेखक का तमगा प्राप्त करने वालों से रॉयल्टी की मुखर आवाज बनने की उम्मीद करें। 

मुखर आवाजों में मैं उनकी आवाज सुनने की कोशिश करने लगा, जो नियमित रूप से विश्वविद्यालय से प्रकाशकगंज की पदयात्रा करते हैं। पहले उन्होंने गाँधी को बेस्टसेलर बनाया। फिर चेतना का विस्तार भी किया। चेतना का विस्तार बेस्टसेलर हुई या नहीं, ये जानकारी नहीं। उनकी टोपी में चेतना का विस्तार है। वे गाँधी जयंती, ईद, दीवाली, दशहरा के ‘हॉलिडे’ में अपनी चेतना ‘रिलीज’ करते हैं। लाइब्रेरी के बाहर लिख दिया जाता है- हॉउसफुल। 

पहले उनके घर की सभी खूँटियों पर टोपी टँगी रहती थी। कनस्तर में भी भरी रहती थीं। खूँटियों पर अब भी टँगी है। हाँ, कनस्तर से निकल चुकी है। चेतना का विस्तार होने से अब कनस्तर रूसी से भरा है। पहले वे टोपी को रोटी की तरह बेलते थे। अब टोपी में रूसी का आटा मिलाकर बेलते हैं।

चेतना के विस्तार के लाभ के बारे में पता चला तो भौतिक द्वंद्ववाद कहने लगा- एक और प्रयोग कर लो। 

प्रयोग करने के लिए मैं गाँधी को बेस्टसेलर बनाने वाले के यहाँ चला। मन में ये भी चल रहा था कि टोपी में रूसी का आटा मिलाकर खाने वाले की चेतना का विस्तार इतना हो सकता है कि मुझे टोपी पहननी पड़ जाए। सोचते-गुनते उनके घर पहुँचा। घंटी बजाई। रोटी खाते हुए उन्होंने दरवाजा खोला। मैंने आव-देखा न ताव, उन्हें एक तमाचा रसीद कर दिया। रोटी उनके मुँह से दूर छिटक गई। वे रोटी उठाने गए। मुझे लगने लगा कि जिसे थप्पड़ के अपमान से ज्यादा रोटी प्यारी हो, वो फकीर ही होगा। तभी वे एक हाथ में रोटी, दूसरे में बेलन लेकर पलटवार के लिए लौटे- तुमको भी बेलकर रोटी बना दूँगा। उनका बेलन चले, उससे पहले ही मैंने उनके सिर के ऊपर लगे सीसीटीवी कैमरे की तरफ इशारा कर दिया- अगर आपने पटलवार किया तो, साहित्य जगत में आपकी थू-थू हो जाएगी। सब कहेंगे कि दूसरा गाल भी आगे कर देना चाहिए था। मेरी बात सुन उन्होंने कुछ गालियाँ दीं। कुछ चिर-परिचित थीं। कुछ उनकी आविष्कार थीं। तीसरे प्रयोग ने भी मुझे टोपी पहनने से वंचित कर दिया। 

सोचा कि गाँधी को बेस्टसेलर बनाने वाले प्रकाशकों पर भी प्रयोग कर लूँ, पर जैसा कि अभी तक मेरा साबका रॉयल्टी से नहीं पड़ा है, तो फिलहाल प्रकाशकों पर नहीं करूँगा।

अगर कोई प्रकाशक (पंद्रह हजार में पाँच सौ कॉपी वाला नहीं) मुझे प्रकाशित कर सर्टिफाइड लेखक बनाना चाहता है, तो वो मेरे उस चरित्र को जरूर ध्यान में रखे, जो व्यक्तिगत है। रॉयल्टी के लिए उसे सार्वजनिक करना पड़ा। 

महात्मा गाँधी के नमक सत्याग्रह की 92वीं वर्षगांठ के उपलक्ष्य में एक साइकिल रैली को हरी झंडी दिखाने अहमदाबाद पहुँचे अमित शाह ने कहा- भारत गाँधी जी के आदर्शों से भटक गया था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उन्हें वापस लाए। 

अमित शाह का गाँधी प्रेम सुन भौतिक द्वंद्ववाद फिर बोलने लगा- भाजपा के सदस्यों पर प्रयोग कर देखो। कहीं ये भी तो जुमला नहीं।



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