देश जब चुनाव जैसी धीर गंभीर लेकिन आक्रामक और लगभग युद्धोन्मादी परिस्थिति से गुज़र रहा हो तो गैर-ज़रूरी मुद्दों या जरूरतों को दरकिनार किया जाना ही देश के व्यापक हित में होता है। जो लोग आज भी आपातकाल के घोषित या घोषित होने की मीमांसा में भर दिन मुब्तिला रहते हैं उन्हें इस तरफ भी देखना चाहिए कि हिंदुस्तान जैसे देश के किसी न किसी गाँव, नगर, जनपद, जिला और प्रदेश में हर रोज़ यह चुनावी काल लगा ही रहता है जिसकी घोषणा बाजाफ़्ता एक निरपेक्ष, स्वतंत्र और स्वायत्त संवैधानिक संस्था करती है। इस काल में जन समस्याएं, शिकायतें न तो सुनी जाएंगी और न सुनने दी जाएंगी। न सरकार काम करेगी न उसके महकमे और न ही अखबार व मीडिया। सब चुनाव का काम करेंगे। जनता भी चुनाव के काम आएगी। लिहाजा आपातकाल में जो होता है वो चुनाव के काल से अलहदा तो नहीं होता न!
तो क्या चुनाव एक लोकतंत्र में आपातकाल है? या फिर आपातकाल में लोकतंत्र? कहना कठिन है क्योंकि इस दिशा में अभी तक कोई गंभीर शोध शायद नहीं हुआ हैं। इस मामले में गंभीर अनुसंधान की दरकार है। एक चलती हुई व्यवस्था, चलने को घिसटना भी कह दो तब भी एक दिन अचानक थम जाती है। जैसे रिमोट से पौज़ का बटन दबा दिया हो। सारा सामाजिक विमर्श एक दिन में बदल जाता है। जनता के ज़रूरी कामों के लिए बने तमाम महकमे मय कर्मचारियों के चुनाव में लग जाते हैं। अखबारों और मीडिया के लिए हालांकि यह कमाई का जरिया है लेकिन वे भी सब कुछ छोड़कर विज्ञापन में खबरें और खबरों में विज्ञापन की नयी युक्तियां निकालने में मुब्तिला हो जाते हैं।
जिले का कलेक्टर, कलेक्टर न रहकर निर्वाचन अधिकारी बन जाता है और निर्वाचन के काम में लग जाता है। ऐसे में केवल राजनैतिक दल ही अपने असल काम में लगे रहते हैं जिसके लिए वे बने हैं। इस लिहाज से देखा जाय तो केवल राजनैतिक दलों में ही अपने काम के प्रति ईमानदारी और शिद्दत नज़र आती है। बाकी सब तो उनके निमित्त कामों में ही लगे रहते हैं।
सब के सब अपने-अपने कर्तव्यों से बंधे होते हैं और प्रधानमंत्री के उपदेश का पालन यहां अक्षरश: होता दिखलायी पड़ता है। जब तक चुनाव चलते हैं तब तक लोग अधिकारों की बात भूले रहते हैं। देश का भला अधिकारों में नहीं, कर्तव्यों में छुपा है। यह बात जानने में भारत के लोकतंत्र को सात दशक लग गए। जब तक जाने तब तक बतौर मौजूदा प्रधानमंत्री देश का कबाड़ा हो गया। उनकी मानें तो चुनाव ही वह अनुकूल परिस्थिति है जब लोग अपने अधिकारों को भूलकर कर्तव्यों के प्रति आसक्त रहते हैं और देश को कबाड़ होने से बचाने की भरपूर कोशिश करते हैं।
तमाम ज़रूरी काम यूं ही खालिस चुनावों के लिए चुनावों तक गैर-ज़रूरी बना दिये जाते हैं। आचार संहिता असल में एक चलती हुई दुनिया को थाम देने का बटन है जिसे दबाकर चुनाव के लिए भीड़भाड़ भरे रास्ते को खाली करा दिया जाता हो जैसे। केवल अब उस रास्ते से चुनाव ही निकलेगा और कुछ नहीं।
ऐसे दृश्य की कल्पना करके देखिए जहां एक सड़क पर अपने-अपने स्कूलों के गणवेश में बच्चे चले जा रहे हैं लेकिन अचानक उनकी गति थम जाती है। कोई शिक्षक हाथों में किताब थामे स्कूल की तरफ जाता दिखलायी पड़ रहा है लेकिन वह रास्ते में ही चुनाव के साथ हो लिया है। एक किसान हाथों में अपनी ज़मीनों का पर्चा लिए पटवारी से एक हाथ दूर खड़ा है लेकिन उसका हाथ मय पर्चे के मूर्ति बन गया है और पटवारी चुनाव के साथ गतिमान हो गया है। किसान खड़ा है मूर्ति बना, बच्चे खड़े हैं मूर्ति बने, लेकिन चुनाव इनके काम के शिक्षक और पटवारी को लेकर आगे बढ़ गया है।
एक वारदात हो गयी है। थाना मूर्ति बना खड़ा है। पुलिस चुनाव के साथ चली गयी है। बस स्टैंड मूर्ति बनकर खड़ा है। मुसाफिर भी जड़वत खड़े दिखलायी दे रहे हैं, लेकिन बसें चुनाव में चली गयी हैं या वहां जा रही हैं या जाने के लिए मुकर्रर कर दी गई हैं। उनमें फिर भी कुछ जुंबिश है। मुसाफिरों में नहीं है।
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एक ठहरी हुई दुनिया हमें चुनावों के साथ चलती हुई दिखलायी जाती है। सब थमे हुए हैं। जड़वत। मूर्तिवत। यह चलती हुई दुनिया- जिसे यज्ञ, महायज्ञ, पर्व, महापर्व, समर, युद्ध और पता नहीं क्या-क्या कहा जाता है- उस थमी हुई दुनिया को बेहतर ढंग से चलाने के लिए भाषणों में, नारों में, गानों में और खर्चों में, चुनावी पर्चों में, नुक्कड़ की चर्चाओं में और रसोई की कलछी- पतीलियों तक में खुद को उपस्थित कर लेती है। यही एक अलग किस्म की बात है जो इस देश की जनता को चुनावों से ऊबने नहीं देती है। यह एक तरह की पुनरुत्पादन की प्रक्रिया है या नवीनीकरण की भी। प्रजनन की तो है ही। आखिर तो सरकार पैदा होती ही है!
यह कष्टदायी है तो आनंददायी भी। यह उम्मीदों से भरी है तो निराशाओं से भी। कुछ नया रचने का आभासी और प्रत्यक्ष भ्रम देती है तो कुछ नहीं बदलने की नियति का भी। कुल मिलाकर चुनाव अगर ताज़गी का एक झोंका है तो वो ऐसा झोंका है जिसके लिए ऋतुचक्र को स्थगित कर दिया जाता है। यहां बसंत दिसंबर के महीने में भी आ सकता है और सावन की घटाएं जनवरी में घिरती दिख जा सकती हैं। चुनाव ऋतुओं का कमांडर है।
जब चुनाव के लिए जबरन थाम दी गयी दुनिया एक लंबे विराम से उठती है तो अपने सामने एक सरकार पाती है। दुनिया फिर अपनी धुरी पर घूमने लगती है। बच्चे जो सड़क पर मूर्ति बना दिये गए थे स्कूल जाने लगते हैं; किसान जो पटवारी के पास अपने कागज लिए खड़ा था, उसके कागज आगे बढ़ने के आसार गतिशील दिखने लगते हैं और वारदात के वक़्त थाने में पुलिस मिल जाती है।
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मान लिया जाता है कि सरकार तो चुनाव जीतने के साथ ही बन गयी, लेकिन कुछ दिन लगते हैं शपथ लेने में, दिलवाने में। कौन शपथ लेगा, कौन नहीं लेगा। जो लेगा वो क्यों लेगा और जो नहीं लेगा वो क्यों नहीं लेगा जैसे सवाल बिना थमी दुनिया के भी हिस्से आते हैं। उन पर खूब रायशुमारी होती है। अंतत: एक दिन सब शपथ ले लेते हैं। फिर स्वागत, वंदन, अभिनंदन का दौर शुरू होता है। नया-नया बना मंत्री पूरे राज्य में कहीं भी निकलता है उसे पहली दफा निकलना माना जाता है और उसी के मुताबिक उसका अभिनंदन का उत्सव चलता रहता है। इसी सब में बीत जाते हैं कुछ साल।
फिर थमी हुई दुनिया के कुछ बाशिंदे आते हैं कि हम चल तो दिये पर कुछ दिखायी नहीं देता है। स्कूल है, बच्चे हैं, लेकिन शिक्षक नहीं। अस्पताल या तो है नहीं, अगर है तो जर्जर है, लेकिन जैसा भी है वहां डॉक्टर नहीं है। दवाइयां भी नहीं हैं। थाना है, पुलिस है लेकिन सुरक्षा नहीं है। हलका है, पटवारी है लेकिन काम नहीं होता है। राशन की दुकान है लेकिन राशन नहीं है। ग्राम पंचायत है, सरपंच है, सचिव है लेकिन रोजगार गारंटी के तहत काम नहीं है। दीदी हैं, सहायिका हैं, एक पुराने घर में आंगनबाड़ी भी है लेकिन पोषण नहीं है। खेत है, किसान भी है, ऋतु भी है, लेकिन खाद नहीं है, बीज नहीं है। और यह सूची बढ़ती ही जाती है।
अब चुनाव नहीं हैं, तो उस दौरान किनारे कर दी गयी दुनिया के मुद्दे हैं। इन मुद्दों को दरकिनार करके चुनाव इतना आगे बढ़ गया कि वो एक सरकार तक बना गया। अब सरकार उन्हीं मुद्दों पर चुनाव आने का इंतज़ार करने लगी। चुनाव आएंगे, तो मुद्दे फिर मूर्तियों में बदल जाएंगे।
यही होता आया है, यही होता रहेगा। और खूबसूरत बात है कि यही दिखेगा भी। चुनाव एक नयनाभिराम दृश्य है। दृश्य के बाहर मुद्दे हैं। मुद्दों से बाहर बना दृश्य है।
और क्या चाहिए? आँखें हैं तो देखिए। देखने के लिए दृश्य हैं। देखने के लिए मुद्दों की ज़रूरत कभी किसी कवि तक ने नहीं बतायी तो ख्वामखां उन्हें देखने की ज़हमत ही क्यों उठाना….!