लौटते हुए मजदूरों के दो दृष्टान्त और बनते हुए राष्ट्र से एक छोटा सा सबक


1

रात का कोई दस बजा होगा। सड़कें शांत थीं। बिल्कुल शांत। लखनऊ में मुख्यमंत्री आवास के ठीक सामने मजदूरों का एक जत्था सुस्ता रहा था। दम ले रहा था कि अभी तो आधा रास्ता भी खत्म नहीं हुआ है। ये मजदूर कानपुर से महाराजगंज अपने घर जा रहे थे। लगभग 400 किलोमीटर की दूरी नाप कर।

महाराजगंज में नौतनवा के रहने वाले इन मजदूरों में से एक हैं आलोक पासवान। उम्र 15 साल लगभग। घर पर बीमार मां-बाप हैं। आलोक छह बहनों के इकलौते भाई हैं। मां-बाप मजदूरी करते थे। जब से कम्बाइन मशीन चली, मजदूरी नदारद।

छोटी सी उम्र में बुजुर्गों सी बात करने वाले आलोक के पास एक काले रंग का पिट्ठू बैग है जिसका टँगना सफेद रंग के धागे से कई बार टांका हुआ लगता है।

छोटे से आलोक पासवान के पास एक लंबी कहानी है, जो शायद महराजगंज तक साथ चलने पर भी खत्म नहीं होगी। इस कहानी में उतार चढ़ाव नहीं है। बिल्कुल सपाट है। पर इस कहानी को एक सांस में नहीं कहा जा सकता। यह सिसकियों की कहानी है।

मैं आलोक के साथ कुछ दूर चला। बीते दिनों को आलोक ऐसे याद करते हैं जैसे सदियों पुराना बिसरा हुआ किस्सा हो।

दो साल पहले की बात है। उन्होंने ठाकुर के खेत से चना उखाड़ लिया था। बाबू साहब घर आकर उनके पिता को गाली देने लगे। उनके पिता ने उनसे कह दिया कि अब तुम बड़े हो गये हो।

आलोक मुस्कुरा कर कहते हैं, “बस, यही बात लग गयी थी। फिर कानपुर निकल लिया।”

दो साल में महज चार हज़ार सात सौ रुपये बचाकर आलोक गांव लौट रहे हैं।

आलोक बताते हैं, “ठेकेदार ने भगा दिया। गांव तो जाना ही पड़ेगा। वैसे मैंने कह दिया है कि काम शुरू होते ही बुला लेना, घर में बहुत परेशानी है।”

2

करीब आठ साल पहले एक नया लखनऊ बस रहा था। छतीसगढ़ से हज़ारों की तादाद में मजदूर आये। विराजखण्ड, विपुलखंड, विनयखंड, सब नये इलाके बसे।

इन छत्तीसगढ़ी मजदूरों ने अपने हाथों से बड़ी-बड़ी कोठियां बनायी हैं। इन कोठियों की अमीरी ने छत्तीसगढ़ी मजदूरों की गरीबी को छुपा लिया लेकिन लॉकडाउन में उनको आसरा देने से इंकार कर दिया।

कल करीब पचास मजदूर सायकिल पर अपनी छोटी-छोटी गृहस्थियां समेट कर निकल रहे थे। छज्जे से झांक रहे एक साहब ने हाथ उठाकर कहा- “पहुंचकर फोन करना।”

मजदूर ने जवाब दिया, ”व्हाइट सिरमिट मंगा लीजिएगा, आ जाएंगे जल्दी।”

इन जाते हुए मजदूरों को इमारतों, सड़कों और कालोनियों और इनके धन्ना सेठों ने नहीं रोका। भगा दिया।

कितने मजबूर होंगे जाते हुए मजदूर, जो भगाने वालों से आने का वादा करते हुए विदा ले रहे हैं।

3

किताब के मुड़े हुए पन्ने से एक छोटा सा सबक

यह बात उस वक्त की है जब देश बन रहा था।

सतलुज नदी पर भाखड़ा नंगल बांध बन रहा था। चाचा नेहरू दौरे पर थे। एक इंजीनियर को उन्होंने बुलाया और पूछा, “यहां पर काम कर रहे मजदूरों को पता है कि वे क्या कर रहे हैं?”

 इंजीनियर ने माफी के साथ कहा, “नहीं, इनको नहीं पता है।”

चाचा नेहरू आगे बढ़े और एक कामगार महिला से पूछा, “आप क्या कर रहीं हैं?”

मजदूर महिला ने कहा, “पत्थर ढो रहे हैं मालिक।”

नेहरू ने समझाते हुए कहा, “नहीं, आप देश बना रही हैं। एक मजबूत देश की नींव बना रही हैं।”

अफसोस कि हमने अपने पुरखे की बातों को भुला दिया।


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