किसान आंदोलन गवाह है कि गांधीजी की अहिंसा ही इस देश में सबसे कारगर और उपयोगी रास्ता है!


किसान आंदोलन के एक साल बाद सरकार ने किसानों की प्रमुख मांग मानने का वादा किया और अगर इस वादे पर यकीन किया जाए तो संसद के आगामी सत्र में तीनों कृषि कानून खत्म कर दिए जाएंगे। कृषि कानूनों के नफे नुकसान के बारे में काफी बात हो चुकी है, आज जरा आंदोलन के बारे में बात की जाए।

इस आंदोलन की जीत को हममें से ज्यादातर लोग गांधीवादी तरीके के जीत बता रहे हैं, लेकिन जो भी गाजीपुर के धरनास्थल पर गया है वह आपको बता सकता है कि वहां शुरुआत में चौधरी चरण सिंह, सरदार भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु, लाला लाजपत राय, सुभाष चंद्र बोस, डॉक्टर भीमराव अंबेडकर और चंद्रशेखर आजाद की तस्वीर लगी थी। वहां महात्मा गांधी और पंडित नेहरू की तस्वीर नहीं थी। आजकल ज्यादातर आंदोलनों में नेहरू जी की तस्वीर तो खैर होती ही नहीं है, जो लोग खुद को ज्यादा आक्रामक, उग्र और जोशीला समझते हैं वे महात्मा गांधी की तस्वीर से भी गुरेज करते हैं।

**EDS: RPT (ADDS DETAILS)** New Delhi: Farmers raise slogans at Ghazipur border as they observe a hunger strike on Mahatma Gandhi’s death anniversary, during their ongoing agitation against Centre’s farm reform laws, in New Delhi, Saturday, Jan. 30, 2021. (PTI Photo/Manvender Vashist)(PTI01_30_2021_000047B)

इस तरह के जोशीले आंदोलनकारी खुद को भगत सिंह या चंद्रशेखर आजाद या सुभाष चंद्र बोस की विचारधारा से प्रेरित बताते हैं और प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से यह कहते हैं कि गांधी की अहिंसा कमजोर चीज है। वह तो सीधे भगत सिंह के रास्ते पर चलेंगे। किसान आंदोलन के मामले में भी यही बात कही जा सकती है, लेकिन एक साल के किसान आंदोलन में व्यावहारिक रूप से क्या हुआ?

वहां धरना दिया गया। सर्दी, गर्मी, बरसात सबको झेलते हुए किसान धरने पर डटे रहे। किसान उन हालात में भी अपने प्रण से पीछे नहीं हटे जिन हालात में कई किसानों की मौत भी हो गई। किसानों के ऊपर कई बार आरोप लगाए गए, लेकिन उन्होंने बड़ी ईमानदारी से अपने बीच छुपे किसी अपराधी या असामाजिक तत्व को पुलिस के हवाले कर दिया। उसका किसी तरह का बचाव नहीं किया। यहां तक कि लखीमपुर खीरी में जब एक केंद्रीय मंत्री के बेटे ने किसानों के ऊपर गाड़ी चढ़ा दी तब भी गाजीपुर या सिंघु बॉर्डर पर किसान किसी भी रूप में हिंसक नहीं हुए।

एक साल तक सब्र के साथ बैठे रहना और सरकारी षड़यंत्रों को धैर्यपूर्वक झेलते रहना! जब सरकार ने किसानों के रास्ते में कीले गाड़ दीं तो किसानों ने उसके ऊपर मिट्टी डालकर फूल खिलाने की बात कही। और भी बहुत से अच्छे उदाहरण इस आंदोलन से मिल सकते हैं। तो अब सवाल यह है कि जब पूरा आंदोलन महात्मा गांधी के रास्ते का ही अनुसरण करता दिखाई दिया तो फिर इन आंदोलनकारियों को शुरुआत में खुद को गांधीवादी कहने में क्या दिक्कत थी?

असल में दिक्कत आंदोलनकारियों के साथ नहीं है। दिक्कत हमारे दिमाग में महात्मा गांधी को लेकर बैठा दी गई गलत धारणा के कारण है। महात्मा गांधी ने अपने जीवन में जितना साहस और पराक्रम दिखाया, इस आंदोलन में शायद उसका दो चार परसेंट साहस दिखाया गया होगा और फिर भी लोगों को लगता है कि महात्मा गांधी की अहिंसा का रास्ता कमजोरी का रास्ता था।

हमने अपने दिमाग को सच्चाई से इतना काट लिया है कि हम आज भी वीरों की उन कहानियों में बसते हैं जो मध्यकाल की हुआ करती थी। जिसमें नायक तलवार लेकर लड़ा करता था, जिसमें युद्धों के जरिए फैसला होता था। आज राज्य से लड़ने के लिए एक अकेला आदमी तलवार लेकर निकल भी जाए तो कामयाब नहीं हो सकता। आज की सरकार सेना से कम और कानून से ज्यादा लड़ती हैं। ऐसे में कोई भगत सिंह की तरह केंद्रीय असेंबली पर बम फेंक कर फैसला कराना चाहे तो न सिर्फ उस व्यक्ति को फांसी हो जाएगी बल्कि उसके पीछे आने की हिम्मत भी कोई नहीं करेगा।

अगर ऐसा न होता तो इस आंदोलन के सबसे नाजुक क्षणों में आंदोलन के मंच से यह नहीं कहा जाता कि हम पूरी तरह से अहिंसक आंदोलन कर रहे हैं। इस आंदोलन में कोई सुभाष चंद्र बोस की तरह फौज भी नहीं बना रहा था और ना ही कोई डॉक्टर अंबेडकर की तरह मनुस्मृति जला रहा था। वे लाला लाजपत राय की तरह उग्र आंदोलन की बात भी नहीं कर रहे थे। इसलिए यह आंदोलन हमें अपने दिमाग के जाले साफ करने का मौका देता है।

जब हम लोग गांधी के रास्ते पर ही चल सकते हैं तो हमें इस बात को खुलकर स्वीकार करना चाहिए। जब हम जान रहे हैं कि गोली चला कर या बम फेंककर अपने उद्देश्य में सफल नहीं हुआ जा सकता, सिर्फ शहीद हुआ जा सकता है, तो फिर हमें यह बात स्वीकार करनी चाहिए कि आजादी के आंदोलन में महात्मा गांधी का रास्ता बाकी के लोगों के रास्ते से ज्यादा कारगर और उपयोगी था।

हम करें कुछ और अपने बारे में सोचें कुछ और, ऐसा करने से व्यक्तित्व बंट जाता है, चरित्र में दोहरापन आ जाता है। यह दोहरापन हमारी एकाग्रता और लक्ष्य सिद्धि में बाधक बनता है। इसलिए अपने मन में बैठी धारणाओं को एक तरफ कर दें और सच्चे मन से स्वीकार करें कि गांधी जी ने जो रास्ता दिखाया था वही इस देश के लिए सच्चा रास्ता है।

आज इस आंदोलन में गांधी जी के आंदोलनों का एक छोटा सा हिस्सा अपनाने से इतनी सफलता मिली है। अगर लोग वाकई सच्चे मन से बहुत हद तक गांधीवाद का पालन करें तो इससे बड़ी सफलता इससे जल्दी मिल सकती है।

सरदार भगत सिंह की शहादत के बाद पंडित नेहरू ने कहा था कि हम भगत सिंह की बहादुरी को सलाम करते हैं लेकिन हम महात्मा गांधी के दिखाए रास्ते पर चलेंगे। आज के आंदोलनकारी भी जिस दिन इस साफगोई से बोलने लगेंगे उस दिन वह गांधी जी के साथ नेहरू की तस्वीर लगाना भी सीख जाएंगे क्योंकि नेहरू ने आधुनिक सरकारों के खिलाफ आंदोलन ही नहीं किये, भारत में एक ऐसी आधुनिक सरकार भी बनाई जो लोकतांत्रिक तरीके से विरोध सह सके और  बाअदब उस विरोध के सामने झुक जाए। हमें अपने लोकतांत्रिक चेतना को विस्तार देने की जरूरत है।


पीयूष बबेले बहुचर्चित पुस्तक “नेहरू: मिथक और सत्य” के लेखक हैं


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