महिलाएं अपने परिवार की एकमात्र आय अर्जक के रूप में या एक पत्नी, मां, और बेटी के रूप में अपने परिवार की देखभाल कर के समाज में कई भूमिकाएं निभाती हैं। भले ही महिलाएं देश के विकास में पुरुषों के समान योगदान देती हैं, लेकिन सामाजिक सीमाएं उन्हें अपनी पूरी क्षमता को साकार करने से प्रतिबंधित करती हैं। वे हमेशा अभाव में रहती हैं। दरअसल, भारत जैसे देश में वे अपने मौलिक संवैधानिक और नागरिक अधिकारों से अकसर वंचित रह जाती हैं। पितृसत्तात्मक समाज उनके जीवन के हर पहलू को प्रभावित करता है। अधिकांश महिलाएं अंतत: कम उम्र में शादी, दहेज, कन्या भ्रूण हत्या जैसी पारंपरिक कुप्रथाओं को स्वीकार कर लेती हैं।
2014 में यूनिसेफ ने पाया कि 50 लाख से ज्यादा बाल वधुएं भारत में हैं। पॉपुलेशन रिसर्च इंस्टिट्यूट ने 2018 में अनुमान लगाया कि विश्व स्तर पर होने वाली 10 करोड़ भ्रूण हत्याओं में से 1.1 करोड़ से अधिक कन्या भ्रूण हत्याएं भारत में होती हैं। 21वीं सदी में भी घरेलू हिंसा, बलात्कार, बाल तस्करी, कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न आदि जैसे कई तरीकों से महिलाओं पर अत्याचार होता है।
एक्शन इंडिया ने 2004 में 90000 महिलाओं का सर्वे किया और पाया कि 40 प्रतिशत विवाहित महिलाओं को शारीरिक हमले का सामना करना पड़ता है और उनमें से 56 प्रतिशत इसे जायज ठहराती हैं। इन सभी मुद्दों का प्रमुख कारण पितृसत्तात्मक मानसिकता में निहित है जो बदलने का नाम नहीं ले रही। एक ओर सरकार महिलाओं के अधिकारों की रक्षा कर रही है और उनकी उन्नति के उद्देश्य से राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर नई योजनाएं, विकास नीतियां और कार्यक्रम शुरू कर रही है। दूसरी ओर एनजीओ और कई कार्यकर्ता जमीनी स्तर पर इन मुद्दों को सुलझा रहे हैं। इन मुद्दों के समाधान के लिए दीर्घकालिक समाधान कठोर पितृसत्तात्मक मानसिकता को बदलने में निहित है और यह सबसे अच्छा शिक्षा के माध्यम से किया जाता है।
स्कूली शिक्षा के विशेष संदर्भ में नयी शिक्षा नीति की एक अनुभवजन्य समीक्षा
स्टडी हॉल एजुकेशनल फाउंडेशन की संस्थापक और मुख्य कार्यकारी अधिकारी डॉ. उर्वशी साहनी के साथ हमारी गर्मजोशी भरी और प्रेरणादायक चर्चा के दौरान हमने महसूस किया कि शिक्षा को सामाजिक परिवर्तन के लिए एक उपकरण के बतौर उपयोग करने के लिए इसमें बदलाव लाने की आवश्यकता है। वर्तमान में यह अप्रासंगिक है और जीवन से कट गयी है। आज की शिक्षा में सामग्री आधारित शिक्षण को महत्व दिया जाता है जिसके चलते यह सामाजिक मानदंडों को चुनौती देने और छात्रों में महत्वपूर्ण सोच व तार्किक मस्तिष्क विकसित करने में विफल रहती है। महिलाओं को शिक्षा द्वारा इस तरह से सक्षम किया जाना ताकि वे जान सकें कि वे कौन हैं और वे अपनी जीवनस्थितियों को समझ सकें। कि आखिर उनके साथ क्यों असमान व्यवहार किया जाता है।
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पितृसत्ता मनुष्य द्वारा ऐतिहासिक रूप से निर्मित परिघटना है इसलिए शिक्षा के माध्यम से इसे तोड़ा जा सकता है। डॉ. साहनी ने महिला अधिकारों के लिए सुरक्षा नाम के एक संगठन की स्थापना की है। इस संगठन के माध्यम से उन्होंने दहेज प्रथा और घरेलू हिंसा के पीड़ितों के साथ परामर्श सत्र आयोजित किए। उन्हें समझ आया कि भले ही महिलाओं के पास अकादमिक कौशल है, लेकिन उन्होंने इन कौशलों का उपयोग करना अपने जीवन में नहीं सीखा है ताकि अपने जीवन की डोर उसके सहारे अपने हाथों में ले सकें। इसके अलावा उन्होंने छात्रों और शिक्षकों को चेंजमेकर के रूप में कार्य करने के लिए सशक्त बनाने के लिए स्टडी हॉल एजुकेशन फाउंडेशन की स्थापना की। इस फाउंडेशन के माध्यम से उन्होंने 1 लाख शिक्षकों और हाशिए पर पड़े समुदायों से जुड़े 50 लाख छात्रों को आलोचनात्मक नारीवाद पढ़ाया। फाउंडेशन ने शिक्षकों, छात्रों और माता-पिता-सभी हितधारकों को शामिल करके समाज की क्रूर पितृसत्तात्मक मानसिकता को बदलने की कोशिश में महत्वपूर्ण संवाद किए हैं।
आलोचनात्मक नारीवाद निम्नलिखित तरीकों से शिक्षा को बदलने में मदद कर सकता है। पहला, यह छात्रों को उन मानदंडों की पहचान करने में मदद करता है जो पितृसत्तात्मक समाज द्वारा निर्धारित किए जाते हैं, विशेष रूप से महिलाओं के लिए निर्धारित सख्त सीमाएं। इसके बाद यह छात्रों को यह पता लगाने के लिए प्रोत्साहित करता है कि महिलाओं के खिलाफ ये सामाजिक ताकतें क्यों मौजूद हैं और वे लड़कियों के जीवन को कैसे प्रभावित करती हैं। फिर छात्रों को इन ताकतों को गंभीर रूप से देखने में सशक्त बनाया जाता है ताकि महत्वपूर्ण संवादों को सुगम बनाया जा सके। उन्हें कविता, नाटक और साहित्य के माध्यम से भी मदद की जाती है ताकि एक समान भविष्य की कल्पना की जा सके। अंत में, छात्रों को इन सामाजिक मानदंडों और संरचनाओं को चुनौती देने के लिए कार्रवाई करने में सशक्त बनाया जाता है।
कोरोनाकाल में स्कूली शिक्षा के अभाव ने बच्चों का भविष्य अंधेरे में छोड़ दिया है
शिक्षक इस प्रक्रिया के उत्प्रेरक/सहजकर्ता के रूप में कार्य करते हैं। इसलिए इस शिक्षाशास्त्र को सफल बनाने के लिए शिक्षकों को प्रशिक्षित करने, छात्रों के साथ प्रेरित रहने और संलग्न रहने की जरूरत है। इसके लिए शिक्षकों को पाठ्यक्रमों के पार जाकर अपने पूर्वाग्रहों को पहचानने, संवाद की महत्वपूर्ण कार्यप्रणाली से अवगत होने, उनके प्रयासों के प्रभाव का आकलन करने और माता-पिता के साथ जुड़ने की जरूरत होती है।
उन्होंने स्कूल एकीकरण, यात्रा वाउचर, स्थानांतरण युक्तिकरण, पाठ्यक्रम विकास, प्रशिक्षण और शिक्षकों के मानचित्रण, शिक्षकों की जवाबदेही बढ़ाने और गैर-सरकारी संगठनों और अन्य कार्यकर्ताओं की मदद से प्रौद्योगिकी पोर्टल के माध्यम से स्कूल डेटा को सही ढंग से एकत्र करने जैसी पहलों के साथ टूटी हुई शिक्षा प्रणालियों को दुरुस्त किया है।
लेखक भारतीय प्रबंधन संस्थान, अहमदाबाद में PGP2 के छात्र हैं