भारत में अफगानिस्तान को लेकर स्थिति एकदम साफ है, जहां इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ अफगानिस्तान की सत्ता को शरिया कानून के प्रोफेसरों ने अपने बंदूकची छात्रों के दम पर कुचल दिया है और इस्लामिक अमीरात ऑफ अफगानिस्तान की सत्ता का एलान कर दिया है। इन प्रोफेसरों और उनके बंदूकची छात्रों की संस्था का नाम तालिबान है। इस्लामी देशों में इस्लामी तौर-तरीके ही होंगे इससे कौन इंकार कर सकता है, लेकिन तालिबान के खौफ से अफगानिस्तान में जिस कदर खौफ और दहशत है- खासकर महिलाओं में- उससे आप अंदाजा लगाइए कि 1191 में जब मोहम्मद गोरी ने आर्यावर्त पर हमला किया होगा तो क्या माहौल रहा होगा।
सवाल ये है कि तालिबान जिस इस्लाम का हिमायती है उस इस्लाम में महिलाओं की यही स्थिति रहती रही है या सिर्फ तालिबान के इस्लामिक अमीरात को महिलाओं की तरक्की और खुलापन पसंद नहीं है? मैं इस सवाल के जवाब में हिन्दुस्तान (उपमहाद्वीप) की पहली मुस्लिम शासक रजिया सुल्ताना पर जाता हूं, चूंकि 1947 से पहले अफगानिस्तान, पाकिस्तान का इतिहास भारत से कोई बहुत अलग नहीं है। 2014 में बने ‘नये भारत’ की ऐतिहासिक और वैचारिक दृष्टि में ये दोनों ही मुल्क ‘अखंड भारत’ का हिस्सा हैं। इसलिए मान लेते हैं कि रजिया का सुल्तान बनना अफगानिस्तान के लिए भी वही बात रही होगी जो हिन्दुस्तान के लिए थी। तालिबान द्वारा महिलाओं के खिलाफ घोर हिंसा को देखकर यकीन नहीं होता है कि 1192 में मोहम्मद गोरी के हिन्दुस्तान फ़तह का अभियान शुरू करने के कुछ वर्ष बाद ही गोरी के गुलाम इल्तुतमिश की सैन्य शासन व्यवस्था की कमान उसकी बेटी रजिया के हाथों में थी।
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वर्तमान में तालिबान 2014 के बाद वाले ‘अखंड भारत’ के जिस हिस्से पर कब्जा कर महिलाओं को प्रताड़ित कर रहा है उसी हिस्से में स्थित एक कबीला है जिसे गोर कहते हैं। उस कबीले का सरदार मोहम्मद गोरी 1192 में अखंड भारत के दक्षिणी हिस्से की तरफ हमला करता है। सबसे पहले उसने पंजाब और गुजरात के सोलंकी (प्राचीन भारत के चालुक्य वंश) राजाओं को पराजित किया। उसे पता चला कि इस तरफ पांच नदियों का इलाका है, प्रचुर मात्रा में पानी है, खेती है, किसानी है, समृद्धि है। अब उस वक्त तो व्हाट्सअप और गूगल क्या चिट्ठी पत्री भी नहीं होती थी। जो मजबूत था उसने पहाड़ पर चढ़कर आवाज लगायी तो बाकी लोग उसके पीछे हो लिए। गोरी ने भी नदियों के किनारे समृद्धि को देखा तो हतप्रभ रह गया।
उस वक्त दिल्ली का नाम देहलिका हुआ करता था। कई इतिहासकारों ने उसे ढिल्ली भी बताया है। वहां के गुर्जर समाज का मानना है कि तब दिल्ली में उनके पुरखों का शासन था और राजा थे अनंगपाल तोमर। तोमर की दो बेटियां थीं। एक का विवाह अजयमेरु के राजा पृथ्वीराज चौहान तृतीय से हुआ और दूसरी बेटी का विवाह बनारस के राजा जयचंद्र गहड़वाल से हुआ। प्रसंगवश, उस वक्त ‘अखंड भारत’ के हिस्से में चौथा बड़ा राज्य था कलिंजर जिसके चंदेलवंशी राजा थे परमाल, जिनके दो योद्धा आल्हा-ऊदल की वीरता के बखान करते हम आज भी गौरवान्वित होते हैं। पृथ्वीराज चौहान की चंदेलों पर विजय, चौहान वंश की सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण विजयों में से एक है। इसके बाद दिल्ली भी चौहान वंश के शासन के अधीन आ गया था। यहीं से अजयमेरु के राजा पृथ्वीराज चौहान और बनारस के गहड़वाल वंश के राजा जयचंद्र की दुश्मनी है, जिसमें राजकुमारी संयोगिता की काल्पनिक कहानी का मिर्च मसाला लगा दिया जाता है जबकि इसका वास्तविकता से कोई वास्ता नहीं है। मोटे तौर पर ये समझें कि तत्कालीन ‘अखंड भारत’ के राजाओं में आपसी प्रतिद्वंदिता थी जिसका फायदा गोरी ने उठाया।
गोरी का सेनापति उसका गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक था। उस समय सैनिकों को गुलामों की तरह खरीदा जाता था। बसरा, ईरान के बाजार से गोरी ने कई मजबूत कद काठी के गुलाम खरीदे जिनमें कुतुबुद्दीन ऐबक उसका सबसे करीबी था। भारत में शासन स्थापित करने के बाद गोरी ने ऐबक को 1196 में हिन्दुस्तान का वायसराय नियुक्त किया। 1206 में मोहम्मद गोरी का निधन होने के बाद तुर्क अमीरों ने उसे दिल्ली सल्तनत का बादशाह मान लिया। 1208 में तुर्क खलीफा ने भी उसे बादशाह स्वीकार कर लिया। गोरी की मौत के बाद बदायूं, कन्नौज और फर्रुखाबाद से जयचंद्र के पुत्र हरिश्चंद्र ने तुर्कों को भगा दिया और दिल्ली को कर देना बंद कर दिया। ऐबक ने अपनी कुशल प्रशासनिक नीति से इस विद्रोह को दबा दिया और अपने गुलाम इल्तुतमिश को बदायूं का गवर्नर नियुक्त कर दिया। इधर, दिल्ली दरबार में तुर्क अमीरों की साजिश चलती रही।
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1210 में ऐबक की मृत्यु होने के बाद एक और गुलाम कुबाचा ने मुल्तान, लाहौर पर अपने स्वतंत्र शासन का एलान कर दिया। गजनी पर एल्दौज का शासन हो गया था और वो दिल्ली को गजनी साम्राज्य का हिस्सा मानता था। 1210 में इल्तुतमिश दिल्ली का सुल्तान बनता है और पहले गजनी के सुल्तान एल्दौज को तराइन के मैदान में पराजित करता है फिर मुल्तान, सिंध का स्वतंत्र शासक घोषत कर चुके कुबाचा को पराजित कर तत्कालीन हिन्दुस्तान को तुर्क और ख्वारिज साम्राज्य से सुरक्षित करता है। इधर तुर्क अमीर कुतुबद्दीन ऐबक के बेटे आरामशाह को नेता बनाकर लगातार साजिश करते रहे, लेकिन इल्तुतमिश 1219 में खलीफा से अपने शासन को वैध करा लेता है। 1220 में ख्वारिज साम्राज्य को मंगोल चंगेज खान ने ध्वस्त कर दिया। इतिहास जानने वाले जानते हैं कि चंगेज खान का खौफ क्या था- ख्वारिज के शाह का बेटा शरण लेने के लिए दिल्ली आता है लेकिन इल्तुतमिश चंगेज खान से सीधी लड़ाई का हश्र जानता था। जलालुद्दीन को वापस जाना पड़ता है और बाद में वो मारा जाता है।
इसके बाद इल्तुतमिश ने शासन संभालने के लिए चालीस गुलाम तुर्कों की एक कमेटी बनायी जिसे तुर्क-ए-चहलगनी कहते थे। ये चालीस सरदार पूरे हिन्दुस्तान में फैल गए और धीरे-धीरे इस्लामिक सत्ता का प्रसार होने लगा। काफी वर्षों तक ये चहलगनी दिल्ली का सुल्तान तय करता था। इन चालीस सरदारों और अमीरों में शह मात का खेल चलता रहा। चहलगनी की व्यवस्था 1290 तक रही उसके बाद दिल्ली सल्तनत के नये बादशाह अपने-अपने फिरकों और विश्वासपात्रों को सरदार नियुक्त करते रहे जिससे हिन्दुस्तान में शासक वर्ग का एक संगठित इलीट क्लास बन गया और इस्लामिक सत्ता की नींव मजबूत होती गयी।
बहरहाल, 1236 में इल्तुतमिश का निधन होता है। वह अपने पुत्र रुकुनुद्दीन फिरोज से असंतुष्ट था इसलिए अपनी बेटी रजिया को उसने उत्तराधिकारी घोषित कर दिया लेकिन तुर्क अमीर उसे कुछ दिनों के लिए दिल्ली का सुल्तान बनाने में कामयाब रहे। दिल्ली के लोग और चहलगनी के सरदारों की मदद से इल्तुतमिश की बेटी रजिया को दिल्ली सल्तनत का सुल्तान बना देते हैं। जाहिर है तुर्क अमीरों के बहुत बुरा लगा होगा, लेकिन सोचिए कि 1236 में दिल्ली पर काबिज हुए इस्लामिक शासक भले ही गुलाम रहे हों पर व्यवहार में वे आज के तालिबान से ज्यादा खुली सोच के थे। ये और बात है कि रजिया ने चहलगनी और अमीरों के बीच सियासी साजिशों के बीच गैर-तुर्क जमालुद्दीन याकूब को अमीर-ए-अखनूर नियुक्त कर दोनों खेमों से बैर मोल ले लिया। बाद में इसी याकूब से रजिया का करीबी रिश्ता होने का आरोप लगा और महिला की मर्यादा भंग करने के आरोप में चहलगनी सरदारों के हाथों वो मारी गयी।
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रजिया सुल्ताना ने चार साल तक शासन किया, 1240 में उसकी मृत्यु होने तक वह चहलगनी के चालीस सरदारों और तुर्क अमीरों की कठपुतली न बने इसी संघर्ष में रही। यही वजह है कि रजिया पर आरोप लगा कि वह गैर-तुर्कों को शासन में महत्व दे रही है, लेकिन ये सच भी था क्योंकि नीति तो यही है। रजिया सुल्तान की इसी हालत पर ‘रजिया फंस गई गुंडों में’ कहावत बनी है।
1236 में भी भारत ‘अखंड’ था। तब एक महिला का दिल्ली का सुल्तान होना बड़ी बात थी और वह महिला शासक फैसले अपने दम पर लेती थी, इसके भी प्रमाण हैं। तो क्या वजह है कि आज आठ सौ वर्ष बाद तालिबान को महिलाओं से इतनी नफरत है कि शासन तो दूर की बात, उनके घर से बाहर निकलने पर भी पाबंदी लगाये हुए है।
[Cover Illustration by Noa Kelner]