प्रेमचंदोत्तर हिंदी साहित्य को जिन साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं से संवारा है, उनमें अमृतलाल नागर का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। किस्सागोई के धनी अमृतलाल नागर ने कई विधाओं से साहित्य को समृद्ध किया। अमृतलाल नागर ने कहानी और उपन्यास के अलावा नाटक, रेडियो नाटक, रिपोर्ताज, निबंध, संस्मरण, अनुवाद, बाल साहित्य आदि के क्षेत्र में भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। साहित्य जगत में उपन्यासकार के रूप में सर्वाधिक ख्याति प्राप्त इस साहित्यकार का हास्य-व्यंग्य भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है।
1932 से वे निरंतर लेखनरत रहे। शुरूआत में मेघराज इंद्र के नाम से कविताएं लिखीं। ‘तस्लीम लखनवी’ नाम से व्यंग्यपूर्ण स्केच व निबंध लिखे तो कहानियों के लिए अमृतलाल नागर मूल नाम रखा। आपकी भाषा सहज, सरल दृश्य के अनुकूल है। मुहावरों, लोकोक्तियों, विदेशी तथा देशज शब्दों का प्रयोग आवश्यकतानुसार किया गया है। भावात्मक, वर्णनात्मक, शब्द चित्रात्मक शैली का प्रयोग इनकी रचनाओं में हुआ है। नागर जी किस्सागोई में माहिर थे। यद्यपि गम्भीर उत्तरदायित्वों का निर्वाह करने के कारण कहीं-कहीं उनके उपन्यासों में बहसों के दौरान तात्विक विवेचन के लम्बे-लम्बे प्रसंग भी आ जाते हैं तथापि वे अपनी कृतियों को उपदेशात्मक या उबाऊ नहीं बनने देते। रोचक कथाओं और ठोस चरित्रों की भूमिका से ही विचारों के आकाश की ओर भरी गयी इन उड़ानों को साधारण पाठक भी झेल लेते हैं। उनके साहित्य का लक्ष्य भी साधारण नागरिक है, अपने को असाधारण मानने वाला साहित्यकार या बुद्धिजीवी समीक्षक नहीं। समाज में ख़ूब घुल-मिलकर अपने देखे-सुने और अनुभव किये चरित्रों, प्रसंगों को तनिक कल्पना के पुट से वे अपने कथा साहित्य में ढालते रहे हैं।
अपनी आरम्भिक कहानियों में उन्होंने कहीं-कहीं स्वच्छंदतावादी भावुकता की झलक दी है किन्तु उनका जीवनबोध ज्यों-ज्यों बढ़ता गया त्यों-त्यों वे अपने भावातिरेक को संयत और कल्पना को यथार्थाश्रित करते चले गए। अपने पहले अप्रौढ़ उपन्यास महाकाल में सामाजिक यथार्थ के जिस स्वच्छ बोध का परिचय उन्होंने दिया था, निहित स्वार्थ के विविध रूपों को साम्राज्यवादी उत्पीड़न, ज़मींदारों, व्यापारियों द्वारा साधारण जनता के शोषण, साम्प्रदायिकतावादियों के हथकंडों आदि को बेनकाब करने का जो साहस दिखाया था, वह परवर्ती उपन्यासों में कलात्मक संयम के साथ-साथ उत्तरोत्तर निखरता चला गया। ‘बूँद और समुद्र’ तथा ‘अमृत और विष’ जैसे वर्तमान जीवन पर लिखित उपन्यासों में ही नहीं, ‘एकदा नैमिषारण्ये’ तथा ‘मानस का हंस’ जैसे पौराणिक-ऐतिहासिक पीठिका पर रचित सांस्कृतिक उपन्यासों में भी उत्पीड़कों का पर्दाफ़ाश करने और उत्पीड़ितों का साथ देने का अपना व्रत उन्होंने बखूबी निभाया है। अतीत को वर्तमान से जोड़ने और प्रेरणा के स्रोत के रूप में प्रस्तुत करने के संकल्प के कारण ही ‘एकदा नैमिषारण्ये’ में पुराणकारों के कथा-सूत्र को भारत की एकात्मकता के लिए किये गये महान सांस्कृतिक प्रयास के रूप में, तथा ‘मानस का हंस’ में तुलसी की जीवन कथा को आसक्तियों और प्रलोभनों के संघातों के कारण डगमगा कर अडिग हो जाने वाली ‘आस्था के संघर्ष की कथा’ एवं उत्पीड़ित लोकजीवन को संजीवनी प्रदान करने वाली ‘भक्तिधारा के प्रवाह की कथा’ के रूप में प्रभावशाली ढंग से अंकित किया है।
अमृतलाल नागर का जन्म एक गुजराती परिवार में 17 अगस्त, 1916 ई. को गोकुलपुरा, आगरा, उत्तर प्रदेश में हुआ था। आगरा में इनकी ननिहाल थी। इनके पितामह पंडित शिवराम नागर 1895 में लखनऊ आकर बस गए थे। पिता पंडित राजाराम नागर की मृत्यु के समय नागर जी सिर्फ 19 वर्ष के थे। पिता के असामयिक निधन के कारण जीविकोपार्जन का दबाव आन पड़ा और इस कारण अमृतलाल नागर की विधिवत शिक्षा हाईस्कूल तक ही हो पायी। विद्या के धुनी नागरजी ने निरंतर स्वाध्याय जारी रखा और साहित्य, इतिहास, पुराण, पुरातत्त्व, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान आदि विषयों पर और हिंदी, गुजराती, मराठी, बांग्ला एवं अंग्रेजी आदि भाषाओं पर अधिकार हासिल कर लिया। रोजीरोटी के लिए अमृतलाल नागर ने एक छोटी सी नौकरी की और कुछ समय तक मुक्त लेखन एवं 1940 से 1947 ई. तक कोल्हापुर में हास्यरस के प्रसिद्ध पत्र ‘चकल्लस’ का संपादन किया। इसके बाद वे बंबई एवं मद्रास के फिल्म क्षेत्र में लेखन करने लगे। दिसंबर, 1953 से मई, 1956 तक वे आकाशवाणी, लखनऊ में ड्रामा, प्रोड्यूसर, रहे और उसके कुछ समय बाद स्वतंत्र रूप लेखन करने लगे।
अमृतलाल नागर हिन्दी के गम्भीर कथाकारों में सर्वाधिक लोकप्रिय हैं। इसका अर्थ ही यह है कि वे विशिष्टता और रंजकता दोनों तत्वों को अपनी कृतियों में समेटने में समर्थ हुए हैं। उन्होंने न तो परम्परा को ही नकारा है, न आधुनिकता से मुँह मोड़ा है। उन्हें अपने समय की पुरानी और नयी दोनों पीढ़ियों का स्नेह समर्थन मिला और कभी-कभी दोनों का उपालंभ भी मिला है। आध्यात्मिकता पर गहरा विश्वास करते हुए भी वे समाजवादी हैं, किन्तु जैसे उनकी आध्यात्मिकता किसी सम्प्रदाय कठघरे में बन्दी नहीं है। उनकी कल्पना के समाजवादी समाज में व्यक्ति और समाज दोनों का मुक्त स्वस्थ विकास समस्या को समझने और चित्रित करने के लिए उसे समाज के भीतर रखकर देखना ही नागर जी के अनुसार ठीक देखना है। इसीलिए बूँद (व्यक्ति) के साथ ही साथ वे समुद्र (समाज) को नहीं भूलते। अपने लेखक-नायक अरविन्द शंकर के माध्यम से उन्होंने कहा है, ”जड़-चेतन, भय, विष-अमृत मय, अन्धकार-प्रकाशमय जीवन में न्याय के लिए कर्म करना ही गति है। मुझे जीना ही होगा, कर्म करना ही होगा, यह बन्धन ही मेरी मुक्ति भी है। इस अन्धकार में ही प्रकाश पाने के लिए मुझे जीना है।”
नागर जी आरोपित बुद्धि से काम नहीं करते, किसी दृष्टि या वाद को जस का तस नहीं लेते। अमृतलाल नागर हिंदी के अतिविशिष्ट लेखकों में से एक हैं। उनके उपन्यास हों, उनकी कहानियाँ हों या कि ‘गदर के फूल’, ‘ये कोठेवालियाँ’ जैसी विशिष्ट कृतियाँ हों जिनकी परंपरा तब तक के हिंदी संसार में नहीं ही थी, उनकी यह सभी कृतियाँ उन्हें एक ऐसा महानतम रचनाकार सिद्ध करती हैं जिसकी जड़ें अपनी जमीन, अपनी परंपरा में गहराई तक धँसी थीं।
नागर जी का एक अत्यंत महत्वपूर्ण उपन्यास है ‘भूख’, दुर्योग से जिसकी साहित्य जगत में बहुत चर्चा नहीं हुई। उन्हीं के शब्दों में-
सन् ’43 के बंग दुर्भिक्ष में मनुष्य की चरम दयनीयता और परम दानवता के दृश्य मैंने कलकत्ते में अपनी आँखों से देखे थे। सियालदह स्टेशन के प्लेटफार्म, कलकत्ते की सडकों के फुटपाथ ऐसी बीभत्स करुणा से भरे थे कि देख-देखकर आठों पहर जी उमड़ता था। कलकत्ते वालों को उन दृश्यों से घिर जाने के कारण अपना शहर काटता था। इतनी बड़ी भूख के वातावरण में लोगों से मुँह में कौर लेते नहीं बनता था। बहुत-से ऐसे भी थे जिनके ऊपर उन दृश्यों का उतना ही असर होता था जितना चिकने घड़े पर पानी का होता है। ‘दुनिया दुरंगी मकारा सराय, कहीं खूब-खूबां कहीं हाय-हाय।’ यही हाल था। धनाभाव में अथवा अपने से शक्तिशाली के द्वारा भूखे रहने पर विविश किये जाने और स्वेच्छा से व्रत लेकर निराहार रहने में, बात एक होने पर भी जमीन-आसमान का अंतर होता है। सन् ’41 में एक बार अर्थाभाव के कारण मुझे बंबई में चार दिनों तक भूख की ज्वाला सहनी पड़ी थी। सन् 43 के अंत में कलकत्ते से वापस लौटने पर मैं स्वेच्छा से चार दिनों तक भूखा रहा था। पहले अनुमान में बड़ी घुटन, बेबसी और विद्रोह-भावना पाई, दूसरे में सहनशक्ति बढ़ी और चेतना गहराई। मेरा मन उन दिनों कलकत्ते के दृश्यों से इतना भरा हुआ था कि अपनी इच्छा से आरोपित भूख को जनमत की करुणा में लय करके सहज बिसार देता था। इस उपन्यास के आरंभिक नोट्स मैंने उसी उपवास के दौर में लिखे थे। लेकिन यहां पर अपना एक और अनुभव लिखे बिना बात अधूरी ही रह जाएगी। सन् ’44 में अपने फिल्मी धंधे से एक महीने की छुट्टी लेकर बंबई से आगरे आने पर जब मैं इस कथानक के दृश्य बाँधने लगा तो शुरू के आठ दस दिनों तक मुझे भूख ने बेहद सताया। लिखते-लिखते बीच में कुछ खाने को मचल उठता था। बाद में यह मनोविकार स्वयं ही दूर भी हो लिया। सन् ’43 का बंग-दुर्भिक्ष दैवी प्रकोप न होकर मनुष्य के स्वार्थ का एक अत्यन्त जघन्न रूप प्रदर्शन और उसका स्वाभाविक परिणाम था। भारत के एक प्रसिद्ध अर्थशास्त्री प्रो. महालनोबिस ने उन दिनों सही आँकड़े प्रस्तुत करके यह सिद्ध कर दिखलाया था कि उस साल बंगाल में धान की उपज के हिसाब से अकाल पड़ने की कोई संभावना ही नहीं थी। द्वितीय महायुद्ध में गला फँसाए हुए तत्कालीन ब्रिटिश सरकार और निहित स्वार्थों-भरे अफसर-वैपारियों के षडयंत्र के कारण ही हज़ारों लोग भूखों तड़प-तड़प मर गए, सैकड़ों गृहिणियां वेश्याएं बनायी जाने के लिए और सैकड़ों बच्चे गुलामों की तरह दो मुट्ठी चावल के मोल बिक गए। महायुद्ध की पृष्ठभूमि में तस्वीर यों बनती थी कि एक शक्तिशाली पुरुष दूसरे के मुँह का निवाला छीन और खुद खाकर तीसरे शक्तिशाली से मारने या मर जाने की ठानकर लड़ रहा था। उसके इसी हठ में असंभव संभव हो गया। वही असंभव संभव इस उपन्यास में अंकित है। उत्तर प्रदेश के एक बड़े कम्यूनिस्ट नेता, मेरे मित्र रमेश सिन्हा ने सुप्रसिद्ध फोटो चित्रकार श्री युत चिन्ताप्रसाद से बंबई में भेंट करा दी। उन्होंने अकालग्रस्त क्षेत्र में जाकर कई सौ चित्र खींचे थे। चिन्ता बाबू ने मुझे उन चित्रों के पीछे की घटनाएं भी सुनायी थीं। श्रीयुत ज़ैनुल आब्दीन के बनाये रेखाचित्र भी देखने को मिले थे। मानवीय करुणा के उन मार्मिक चित्रों से मैंने प्रेरणा पायी थी अतः इनका कृतज्ञ हूँ।
नागर जी की जिंदादिली और विनोदी वृत्ति उनकी कृतियों को कभी विषादपूर्ण नहीं बनने देती। ‘नवाबी मसनद’ और ‘सेठ बांकेमल’ में हास्य व्यंग्य की जो धारा प्रवाहित हुई है, वह अनंत धारा के रूप में उनके गंभीर उपन्यासों में भी विद्यमान है और विभिन्न चरित्रों एवं स्थितियों में बीच-बीच में प्रकट होकर पाठक को उल्लसित करती रहती है। नागर जी के चरित्र समाज के विभिन्न वर्गो से गृहीत हैं। उनमें अच्छे बुरे सभी प्रकार के लोग हैं, किन्तु उनके चरित्र-चित्रण में मनोविश्लेषणात्मकता को कम और घटनाओं के मध्य उनके व्यवहार को अधिक महत्त्व दिया गया है। कहा जा सकता है कि नागर जी की जगत् के प्रति दृष्टि न अतिरेकवादी है, न हठाग्रही। एकांगदर्शी न होने के कारण वे उसकी अच्छाइयों और बुराइयों, दोनों को देखते हैं किन्तु बुराइयों से उठकर अच्छाइयों की ओर विफलता को भी वे मनुष्यत्व मानते हैं। जीवन की क्रूरता, कुरूपता, विफलता को भी वे अंकित करते चले हैं, किन्तु उसी को मानव नियति नहीं मानते।
जिस प्रकार संकीर्ण आर्थिक स्वार्थों और मृत धार्मिकता के ठेकेदारों से वे अपने लेखन में जूझते रहे, उसी प्रकार मूल्यों के विघटन, दिशाहीनता, अर्थहीनता आदि का नारा लगाकर निष्क्रियता और आत्महत्या तक का समर्थन करने वाली बौद्धिकता को भी नकारते रहे। इसीलिए उन्होंने अपने समय का मुकम्मल यथार्थ रचने के साथ साथ ऐसी भी बहुत सारी कृतियाँ हमें दीं जिनमें भविष्य के ठेठ भारतीय स्वप्न विन्यस्त मिलते हैं। जाहिर है नागर जी भारतीय जनजीवन के आशावान स्वप्नों के चितेरे रचनाकार थे जिनसे उनके परवर्ती रचनाकारों को प्रेरणा मिलती रही है।