क्या ‘लार्जर पॉलिटिक्स’ का गला घोंट रही है उत्तर प्रदेश की ‘न्यू कांग्रेस’?


एक साल पहले एक सीरीज़ काफी चर्चित हुयी थी. सात किश्तों की इस सीरीज़ का शीर्षक था— “उत्तर प्रदेश कांग्रेस की स्थिति”. यह सीरीज़ कांग्रेस के उच्च नेतृत्व से लेकर ग्रासरूट कार्यकर्ताओं तक ने दिलचस्पी से पढ़ी थी, लेकिन उत्तर प्रदेश कांग्रेस के प्रभुत्वशाली गुट ने इसे दुष्प्रचार करार दिया था. वैसे भी उन्हें लगता है कि हम गाँधी-नेहरू की “ओल्ड कांग्रेस” में जीने वाले लोग हैं जबकि यूपी कांग्रेस रेडिकल वामपंथियों के तत्वावधान में “न्यू कांग्रेस” बनाने निकली है.

तमाम असहमतियों के बावजूद हमारी शुभकामनाएं उत्तर प्रदेश कांग्रेस के साथ थीं. हम जैन परंपरा के स्याद्वाद से प्रेरित हैं. “मे बी” यानी “हो सकता है” की सोच हमें अंतिम सत्य का दावा करने से रोकती है. अंतिम सत्य का दावा करने का लोभसंवरण तो कार्ल मार्क्स ने भी सिखाया है- “डाउट एवरीथिंग (हर चीज़ पर संदेह करो)”. इसलिए हमने स्वयं पर भी संदेह किया. हमने माना कि ‘हो सकता है’ हम तक पूरा सत्य न पहुँचा हो. ‘हो सकता है’ यह टीम कांग्रेस के संगठन को पुनर्जीवित कर ही डाले. ‘हो सकता है’ पंचायत चुनाव परिणाम हम सबको झूठा सिद्ध कर दें.

पंचायत चुनाव उत्तर प्रदेश विधानसभा का सेमीफाइनल हैं. उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में अब मात्र 10 महीने बाकी हैं. इसलिए पंचायत चुनावों के परिणाम ग्रामीण उत्तर प्रदेश की मूडमैपिंग कर देंगे. पंचायत चुनाव का दोहरा महत्व है. पहला, यह एकदम तृणमूल स्तर तक लोगों के बीच जाने का अवसर देता है. दूसरा, यह ग्रामीण समाज का राजनीतिक रुझान स्पष्ट कर देता है, हालाँकि अधिकतर सत्ताधारी दल ही इस चुनाव में बाजी मार ले जाते हैं परन्तु इस बार उत्तर प्रदेश पंचायत चुनाव भाजपा के लिए भारी झटका सिद्ध हुए हैं. इस कठिन परीक्षा में कांग्रेस का फर्स्ट आना जरूरी नहीं था. उसका सेकंड या थर्ड आना भी बेहद उत्साहजनक हो सकता था, लेकिन जो कुछ ‘हो सकता था’, नहीं हुआ. पंचायत चुनाव के आंकड़ों में कई बार थोड़ा-बहुत अंतर रहता है, लेकिन लार्जर पिक्चर एकदम साफ़ दिखाई दे रही है.

पंचायत चुनावों में जिला पंचायत सदस्यों का चुनाव सबसे अहम् माना जाता है. इंडिया टुडे-सीवोटर के अनुसार कांग्रेस को कुल 3050 जिला पंचायत सीटों में मात्र 61 सीटें मिली हैं. यह कुल सीटों का लगभग 2% मात्र होता है. इंडियन एक्सप्रेस के अनुसार कांग्रेस को लगभग 70 सीटें मिली हैं. दैनिक भास्कर वहीं कांग्रेस को 125 सीटें दे रहा है. अमर उजाला की मानें तो कांग्रेस को 76 सीटें मिली हैं. नवभारत टाइम्स भी कांग्रेस को 60 सीटें देता है.

इस तरह आंकड़ों की विविधता के बावजूद कांग्रेस इस चुनाव में कम से कम चौथे स्थान पर है. सबसे अधिक से कम के क्रम में समाजवादी पार्टी, भाजपा और बसपा के बाद कांग्रेस चौथे स्थान पर आती है, परन्तु ध्यान रहे आम आदमी पार्टी को भी अमर उजाला 64 और राष्ट्रीय लोकदल को 68 सीटें देता है. वहीं इंडियन एक्सप्रेस आप को कांग्रेस के बराबर लगभग 70 सीटें देता है. यानी कांग्रेस चौथे स्थान के लिए रालोद और आप के साथ कड़े मुक़ाबले में है. इनमें से एक क्षेत्रीय दल है और दूसरा उत्तर प्रदेश में एक गुमनाम-सी ताकत है.

भले ही यह आँकड़े देखने में सुखदायी न हों, परन्तु यही फ़िलहाल उत्तर प्रदेश का राजनीतिक यथार्थ है. अब यहाँ से विधानसभा चुनाव साफ़ दिखाई देने लगे हैं. क्या उत्तर प्रदेश कांग्रेस एक बार फिर शुतुरमुर्ग की तरह अपना सिर रेत में छुपा लेगी? क्या वो फिर आंकड़ों की बाजीगरी से ख़ुद की आँख में धूल झोंकेगी? अगर हाँ, तो समझिए हम लार्जर पॉलिटिक्स का गला घोंट रहे हैं.

राजनीति में हार- जीत लगी रहती है. हार को जीत में बदलना एक कला है. इसकी बुनियादी शर्त है— कठोर आत्मनिरीक्षण. आत्मनिरीक्षण के लिए हार स्वीकारनी पड़ती है. विनम्रतापूर्वक हार स्वीकार करना कांग्रेस की परंपरा रही है, परन्तु उत्तर प्रदेश कांग्रेस में कुछ लोग नई परिपाटी बना रहे हैं. उन्होंने हार को जीत में बदलने का नया नुस्ख़ा ईज़ाद किया है.

पंचायत चुनाव के रुझान आते ही प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष ने कहा: “पंचायत चुनाव हमारी प्राथमिकता में नहीं थे”. उसके कुछ ही घंटों बाद वो अपने बयान से पलट गए. उन्होंने दावा किया कि कांग्रेस ने दरअसल 270 सीटें जीती हैं. साथ ही 511 सीटों पर कांग्रेस प्रत्याशी दूसरे और 711 सीटों पर तीसरे स्थान पर रहे हैं. अब अगर प्राथमिकता नहीं थे तो वो पंचायत चुनाव प्रचार में संलग्न क्यों थे? उनके चुनाव प्रचार की तस्वीरें और रिपोर्ट्स प्रादेशिक अखबारों में भरी पड़ी हैं.

दूसरे, ग्रामीण जनता से सीधे संवाद का अवसर आपकी प्राथमिकता में क्यों नहीं था? पंचायत चुनाव के सहारे बूथ लेवल माइक्रो मैनेजमेंट में मदद मिलती है. कांग्रेस की विचारधारात्मक पहुँच ग्राम स्तर तक पहुंचाई जा सकती थी. इस बहाने प्रतिबद्ध कैडर का निर्माण होता जो रणनीतिक लिहाज से आगामी विधानसभा चुनाव में महत्वपूर्ण हो सकता था. भारत में पंचायती राज की अवधारणा गाँधीजी का दर्शन था. राजीव गाँधी ने ग्राम स्वराज के उस सपने को संवैधानिक आकार दिया था.

इस नुस्ख़े में दूसरे और तीसरे नंबर पर आना भी उपलब्धि की तरह पेश किया जाता है. इसके पहले यह पार्टी के आंतरिक विश्लेषण का हिस्सा हुआ करता था. इसलिए प्रदेश अध्यक्ष ने पहले के साथ-साथ दूसरे और तीसरे स्थान को अपनी उपलब्धि की तरह गिनाया. इस आधार पर भी देखें तो कांग्रेस ने हारी हुई जिला पंचायतों में दूसरे और तीसरे स्थान के लिए सबसे अच्छा प्रदर्शन किया है. जिला पंचायतों के मामले में उसका सबसे ख़राब प्रदर्शन पहले स्थान के लिए रहा है.

प्रदेश अध्यक्ष के इन स्वयंभू दावों के पीछे किसका दिमाग है, सबको पता है. तो क्या ये लोग आगामी विधानसभा चुनावों के बाद भी ऐसे ही आँकड़े पेश करेंगे? क्या वो यह बताकर संतोष करेंगे कि उनके कितने प्रत्याशी दूसरे और तीसरे स्थान पर आये? अगर भारत में आनुपातिक प्रतिनिधित्व होता तो भी कुछ बात थी. यहाँ कुल पाए गए वोटों के आधार पर सदन में प्रतिनिधित्व तय नहीं होता है. यहाँ अंततः चुनावी प्रदर्शन हार और जीत की बाइनरी में तय होते हैं. सबसे बढ़कर; अगर सपा, भाजपा और बसपा भी अपने दूसरे व तीसरे नंबर कैंडिडेट्स की लिस्ट जारी कर दें तो कांग्रेस तो फिर चौथे नंबर पर ही जाकर टिकेगी.

बहरहाल, आंकड़ों की यह बाजीगरी पहली बार नहीं हुयी है. पिछले उपचुनावों में भी ऐसा ही कुछ देखने को मिला था. मिसाल के तौर पर घाटमपुर विधानसभा उपचुनाव लीजिए. कांग्रेस के इन्हीं नए कर्ताधर्ताओं ने घाटमपुर और बांगरमऊ में दूसरे नंबर पर आने को अपनी उपलब्धि बताया था. उनके हिसाब से यह मरी हुई ‘ओल्ड कांग्रेस’ में जान फूंकने का ‘न्यू कांग्रेस’ अचीवमेंट था. 2020 के घाटमपुर उपचुनाव में कांग्रेस प्रत्याशी डॉ. कृपा शंकर को 36,585 वोट मिले थे, लेकिन इसी सीट पर 2017 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के नंदराम सोनकर ने 40,465 वोट हासिल किये थे. इसी प्रत्याशी ने 2012 के चुनावों में इस विधानसभा में 42,772 वोट हासिल किये थे.

क्या यहाँ कांग्रेस को मिले कुल वोट को प्रदर्शन का आधार माना जा सकता है? 2012 से 2020 के चुनावों में कांग्रेस को मिले कुल वोट का अंतर 6,187 वोट का है. क्या घटे हुए इन वोटों के आधार पर ‘न्यू कांग्रेस’ का प्रदर्शन ‘ओल्ड कांग्रेस’ से ख़राब नहीं रहा है? इसी प्रकार 2002 विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 26,224 वोट मिले थे. तो क्या 2002 से लेकर 2012 के बीच बढ़े 16,548 वोटों को “ओल्ड कांग्रेस” का अचीवमेंट नहीं माना जाने चाहिए?

हम इस प्रकार के किसी वैल्यू जजमेंट में विश्वास नहीं रखते हैं. हम जानते हैं कि इन आंकड़ों में वोट प्रतिशत भी लिखना जरूरी है. बावजूद इसके हम यहाँ कुछ बताना चाहते हैं. आँकड़ेबाजी से उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का उद्धार नहीं होगा. उसके लिए बहुत ईमानदार प्रयासों की जरूरत है.


सौरभ बाजपेयी इतिहास के अध्यापक हैं और नैशनल मूवमेंट फ्रन्ट के संयोजक हैं


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