“हे जनार्दन (जनता), तुम्हें जीने का अधिकार चाहिए या मोक्ष का अधिकार”? यशस्वी प्रधानमंत्री ने एक सभा में पूछा। जनार्दन ने दो मिनट सोचने के बाद, चेहरे पर एक हल्की सी कुटिल स्मित लाते हुए जवाब दिया- “हे ब्रह्म के ग्यारहवें अवतार, इस धराधाम पर जीना तो सुलभ है, एक जैविक क्रिया के वशीभूत जन्म लेना अत्यंत सामान्य बात है, आदि-व्याधि या रोग-वय से मृत्यु भी एक आम घटना है लेकिन मोक्ष प्राप्त करना शास्त्रों में एक श्रमसाध्य कार्य बतलाया गया है जो सभी के भाग्य में नहीं होता। ऐसे में अगर आप हमें सीधा मोक्ष दिला सकते हैं तो इस जन्म-मृत्यु की भाव बाधा से मुक्ति मिले और राग-विराग से भी निजात। हमें मोक्ष का अधिकार चाहिए।”
सभा में एकत्र हुए लाखों जनार्दनों ने समवेत् स्वर में मोक्ष मांग लिया। शास्त्रों में बताए गए चार पुरुषार्थों अर्थ, काम, धर्म और मोक्ष में अंतिम और सबसे बड़े पुरुषार्थ की प्राप्ति अगर एक ‘वोट’ मात्र के देने से होती है तो सौदा घाटे का नहीं रहा, ये सोचते हुए जनार्दन अपने अपने घरों को लौट गए। इसके विषय में चर्चा बहुत रही। लोगों को इस बात पर भरोसा ही नहीं हो रहा था मृत्युलोक का एक व्यक्ति जो हमारी ही तरह हाड़-मांस, रक्त-मज्जा से बना है, आखिर कैसे एक संसदीय क्षेत्र की पूरी जनता के लिए एक साथ मोक्ष की व्यवस्था कर पाएगा। किसी ने कहा- अरे बहुत मायावी है यह इंसान, बल्कि यह तो इंसान ही नहीं है… ये कहने वाला आगे भी कुछ कहना चाह रहा था लेकिन किसी और ने उसे टोक दिया और अपनी बात शुरू कर दी।
उसने कहा- देखो, जब कहा है तो करेगा ज़रूर। वो कौन सा शिक्षा, रोजगार, स्वस्थ्य आदि की बात थी भाई, कि भूल जाएगा। देखो, इसकी काबिलियत यही है कि मोक्ष के द्वार तक तो लोगों को ले ही जाता है और फौरी तौर पर उन्हें इस मृत्युलोक से फारिग तो कर ही देता है, लेकिन जब चाह लेगा कि जिन्हें मृत्युलोक से फारिग किया उन्हें मोक्ष में भी धकेलना है तो वो भी कर ही लेगा। भरोसा रखो। जब बोला है, वचन दिया है तो ज़रूर कुछ करेगा।
मोक्ष के प्रति जनता जनार्दन का उत्साह देखकर उधर ब्रह्मावतार भी हलकान हुआ जा रहा था। सोच रहा था कि फौरी तौर पर यह राहत की बात थी कि लोगों ने इस लोक के लिए कुछ नहीं मांगा, लेकिन दुविधा यह है कि परलोक में तो अपनी चलती भी नहीं है। आखिर क्या सेटिंग करें कि सबको नहीं तो कम से कम कुछ प्रमुख व्यक्तियों को मोक्ष तक पहुंचा दें। फिर कुछ जुगाड़ करके उनका लाइव टेलिकास्ट करवा दें। कम से कम दीपकवा को ही भेज कर उनका एक्सक्लूसिव इंटरव्यू करवा दें। अगर ये हो गया तो सालों साल बेरोकटोक राज करना आसान हो जाये।
इसी उधेड़बुन में दिन बीतते गये। एक तरफ जनता जनार्दन मोक्ष जाने की तैयारी करने लगी, तो दूसरी तरफ अवतारी इस फिक्र में दुबला हुआ जाय कि क्या किया जाय? तभी अकस्मात् एक वैश्विक बीमारी ने देश में दस्तक दे दी। सलाहकारों ने, विपक्ष के नेताओं ने, दानिशमंदों ने समझाया कि इस महामारी को आने से रोका जा सकता है, लेकिन वो तो अलग ही ख्यालों में डूबा हुआ था। उसने सबको अनसुना किया और महामारी को न केवल आने दिया बल्कि ताली, थाली, दीया, झाल और मंजीरों से उसका स्वागत भी किया और करवाया। उसका मनोरथ पूर्ण होने वाला था। एक साथ इतने लोगों को मोक्ष दिलवाने की अदम्य इच्छा उसके मन में मचल रही थी।
इस अदम्य इच्छा से कालांतर में जन्म लिया एक युगांतरकारी नारे ने, जिसे ‘आपदा में अवसर’ कहा गया। जिनका ध्यान केवल मृत्युलोक के छिटपुट मुद्दों पर रहा, वे इस नारे के पीछे केवल यही देख पाये कि इससे डिजास्टर कैपिटलिज्म को निर्बाध रास्ता दिया जा रहा है, चंद अमीर मित्रों को भरपूर मुनाफा पहुंचाया जा रहा है, आदि आदि, लेकिन यह उनकी सोच-समझ की सीमा है। इस नारे का वास्तविक और दूरगामी लक्ष्य यही था कि अगर लोगों को मोक्ष के लिए तैयार कर लिया जाय और इसके लिए एक सुगम पथ का निर्माण कर दिया जाय तो जनता ऐसे कई मामलों से राहत पा सकती है जिसे लेकर वो हमेशा परेशान रहती है।
ताली, थाली के शोर में भी ये बंदा कुछ और ही सोच रहा था। अपने कक्ष में एकांत में खुद से ही कुछ बोलता बतियाता रहता था। एकालाप की एक बानगी देखिए:
विपक्ष या दानिशमंदों का क्या है? उन्हें कौन सा मोक्ष चाहिए। वो तो कभी इस धरती के मामूली से मुद्दों से ऊपर नहीं उठ सकते। उनकी परवाह करने की ज़रूरत नहीं है। और मोक्ष का नशा? क्या ही बला है भाई। मोक्ष मतलब जीवन-मृत्यु के चक्र से मुक्ति। मोक्ष मतलब परमात्मा से मिलन। मोक्ष मतलब परमानंद। क्या यह आनंद शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और भाईचारे में है? कदापि नहीं। बल्कि ये सब दुर्गुणी चिंताएं हैं। मनुष्य जीवित रहेगा तो उसे खाना चाहिए, शिक्षा चाहिए, स्वास्थ्य चाहिए, रोजगार चाहिए, तरक्की चाहिए और ये सब लालसाएं हैं। मोक्ष क्या है? इन्हीं क्षुद्र लालसाओं से मुक्ति। हमने तय किया है सभी को मोक्ष। क्या हिन्दू क्या मुस्लिम, क्या सिख क्या पारसी और क्या बौद्ध क्या ईसाई? सबका साथ, सबका विकास। हम मोक्ष को सार्वभौमिक अधिकार बनाएंगे। सबको मिलेगा। बिना मांगे मिलेगा। मोक्ष के द्वार काशी के मणिकर्णिका घाट से खुलते हैं। हम मणिकर्णिका घाट के पथ को ‘मोक्ष मार्ग’ घोषित करेंगे।
इधर एकालाप खत्म भी नहीं हो पाया कि बनारस, जो मोक्षदायिनी काशी नगरी का एक नाम है, वहां इसकी पार्टी के एक पार्षद को अदृश्य बेतार से एक संदेश मिला और उसने मणिकर्णिका पथ को मोक्ष मार्ग में बदलने की ठान ली। आनन-फानन में एक दस हजारी टीन शेड का निर्माण करवाया गया। इसमें मायावी द्वारा बार-बार पैरवी किये गये मॉडल का सहारा लिया गया, समाज के वणिकों से चन्दा लिया गया और नागरिकों की भागीदारी सुनिश्चित की गयी। लीजिए, बन गया एक टीन शेड।
वस्तुत: यह एक टीन शेड है जिसकी औकात उस रेत से भरी बाल्टी से ज़्यादा नहीं है जिस पर आग लिख दिया जाता है। कई ऐसी जगाहों पर इस तरह की बाल्टियां पायी जाती हैं जहां आग लगने की संभावना हो। इस टीन शेड का महत्व इसके टीन शेड होने से नहीं है बल्कि इसके रंगरोगन, इस पर लिखे हर्फों से है। और इसी वजह से यह महज़ एक चित्र नहीं है बल्कि एक ख़बर है। बाजाफ़्ता एक खबर। एक अदम्य इच्छा का वाहक यह टीन शेड कुछ रोज़ से सोशल मीडिया पर दाँय दिये हुए है। कल इस नाचीज़ तक भी पहुंचा। इसकी तह में गये तो पता चला कि ये चित्र पूरी खबर के बिना मृतप्राय है, हालांकि खबर में जितने अल्फ़ाज़ हैं लगभग उतने ही शब्द यहां अंकित किये गये हैं। सुधि पाठकों के लिए पूरी खबर की लिंक यहां पेश-ए-नज़र है।
इस तस्वीर को गौर से देखिए। किसी को कुछ भी दिख सकता है लेकिन यहां अपुन को तो लोकतन्त्र और संविधान की अर्थी दिख रही है। अपुन को हिंदुस्तान की मानसिक दुर्दशा दिख रही है। और तो और, अपुन को इसमें माननीय प्रधानमंत्री की प्रेरणा तक दिख रह रही है। निर्लज्जता और दिमागी दिवालियापन थोड़ा कम वज़न के शब्द हैं अन्यथा इस तस्वीर को यह कहकर भी काम चलाया जा सकता था।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से प्रेरणा प्राप्त, पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप यानी पीपीपी मॉडल के तहत, शहर के वणिकों के अनुदान और नागरिक भागीदारी से सम्पूर्ण हुए इस उद्यम का कुल हासिल क्या है? मोक्ष का अधिकार? माना कि पेंटर को जो बोला गया होगा, उसने वो लिख दिया और लिखवाने वाले श्री विजय श्री के बड़अक़ल होने के कोई ऐतिहासिक दस्तावेज़ भी नहीं हैं, लेकिन जिसकी प्रेरणा से यह अभूतपूर्व कृत्य फलीभूत हुआ क्या वो वाकई मानता है कि मोक्ष पाना एक ‘अधिकार’ है?
भारत का संविधान मानवीय गरिमा के साथ जीवन जीने का अधिकार देता है उसमें भी मोक्ष का अधिकार देने की हैसियत नहीं है या उसने इसके बारे में कुछ नहीं सोचा किया। क्या प्रेरणादायी नरेन्द्र मोदी देश के संविधान में छूट गये अधिकारों का सृजन अपने नागरिकों के लिए कर रहे हैं? मृत्यु से बचाने के लिए संविधान ने कई तरह की जिम्मेदारियां इस प्रेरणादायी प्रधानमंत्री को दी हैं और उन्हें हासिल करने के मौलिक अधिकार अपने नागरिकों को दिये हैं, लेकिन मृत्यु उपरांत की व्यवस्था तो संविधान ने किसी के लिए नहीं की और इस प्रधानमंत्री की जिम्मेदारियां भी वहां नहीं हैं। तो क्या अब संविधान में कुछ और पन्ने जोड़े जाएंगे जिनमें मृत्यु के उपरांत नागरिकों के अधिकारों पर विशेष अनुच्छेद होंगे?
शास्त्रों की ऐसी कुटिल व्याख्या? यह शास्त्रसम्मत भी है क्या? आज मणिकर्णिका घाट पर मोक्ष की चाह में मारे नागरिकों के शवों को घंटों इंतज़ार करना पड़ रहा है। क्या वाकई इस धरा-धाम में मोक्ष के इस शॉर्टकट को लेकर अतिउत्साह का माहौल देखा जा रहा है? सैकड़ों की तादाद में लोग मोक्ष की तरफ जाने वाली आग की लपटों की लाइन में लगे हैं? मोक्ष जाने के रास्ते भारी ट्रैफिक जाम का सामना कर रहे हैं? क्या ही प्रेरणा दिए हो प्रधानमंत्री जी। गज़ब किया है आपने!
थोड़ा भारी पदावली में इस चित्र को समझें तो यह हमारे गणतन्त्र का सबसे विद्रूप रूपक है। जहां जीना आसान नहीं रहा, मरना उत्साहित कर रहा है। जीने के तमाम सुभीते मरने की आस में मर गए हैं। संविधान और गणतन्त्र के शव भी इसी शव विश्रामस्थल पर ठिठके हुए हैं।
चलिए, एक बार अंतिम दर्शन कर आते हैं। इससे पहले कि मोक्ष मार्ग पर ट्रैफिक जाम खुल जाय। शवों की आवा-जाही सामान्य हो जाय। चलिए अब… देर न हो जाय…!