पंचतत्व: देवास ने मिट्टी से जल संकट का समाधान निकाल कर कैसे बुझायी अपनी प्यास


मध्य प्रदेश में एक इलाका है मालवा. बेहद संपन्न, बेहद उपजाऊ, पर मालवा का देवास जिला इसकी संपन्नता का ठीक उलट था. वजह- गहरा जल संकट. इस इलाके में जलसंकट सन 2000 वाले दशक में इतना विकट था कि शहर में जलापूर्ति ट्रेनों के जरिये की जाने लगी थी. खेती चौपट हो गई और किसानों को साल भर में महज एक ही फसल मिल रही थी. पानी के संकट ने समृद्धि के केंद्र में बसे देवास को गुरबत झेलने पर मजबूर कर दिया था.

सवाल उठ सकते हैं कि क्या देवास में बारिश नहीं होती? होती है और बड़े कायदे की होती है. साल भर में वहां औसतन 106 सेमी बरसात होती रही है, पर दिक्कत यह थी कि वहां भूजल रिचार्ज नहीं हो पा रहा था. एक रिपोर्ट के मुताबिक, नब्बे के दशक में भूमिगत जलस्तर वहां 600 फुट से भी नीचे पाताललोक पहुंच गया था. इतनी गहराई में पानी में ऐसे खनिज और लवण घुल जाते हैं जो फसलों के लिए नुकसानदेह होते हैं.

असल में, देवास की मिट्टी काली कपासी मिट्टी है जिसमें कण बेहद बारीक होते हैं. इससे सतह पर बहने वाला जल रिसकर भूजल को रिचार्ज नहीं कर पाता. बहरहाल, मिट्टी की समस्या का समाधान भी मिट्टी ने ही निकाला.

अभियान के तहत खोदा गया एक तालाब

देवास के जिला प्रशासन ने 2006 से तालाब खुदवाने और मौजूदा तालाबों की मरम्मत करने का अभियान शुरू किया. बलराम तालाब योजना के तहत राज्य सरकार ने भी किसानों को अपनी जमीन में तालाब खुदवाने में वित्तीय मदद दी. बैंको को भी कहा गया कि तालाब के लिए कर्ज चाहने वालों को 3 लाख रुपए तक के कर्जें दिए जाएं. आज की तारीख में देवास में 10,000 तालाब मौजूद हैं. कुछ गांवों में तो अब 200 से अधिक तालाब हैं.

इसका फायदा मिल रहा है. इस इलाके के लोग अब साल में तीन फसलें लेने लगे हैं. खेतिहरों की आमदनी में इजाफा हुआ है. किसान अब संतरा उगाने लगे हैं, सब्जियों की पैदावार होने लगी है. यहां तक कि मछलियों का पालन भी शुरू हो गया है.

देवास में बुआई का कुल रकबा 2000 के दशक के मध्य के 1 लाख हेक्टेयर से बढ़कर आज की तारीख में 4 लाख हेक्टेयर हो चुका है. 2011-12 में इस परियोजना को संयुक्त राष्ट्र ने भी मान्यता दी और इसे दुनिया की तीन सर्वश्रेष्ठ जल प्रबंधन परंपराओं में से एक माना, पर हमने इन परंपराओं से कुछ सीखने की जहमत नहीं उठाई. परंपराओं को पुनर्जीवित करने के बजाय सरकारें और हमारे नीति-नियंता फौरी उपाय अपनाने पर जोर देते हैं.

जानकार, पर्यावरणविद् और स्वयंसेवी संगठन काफ़ी वक़्त से भारत में आने वाले जल संकट के बारे में ज़ोर-शोर से बता रहे है, लेकिन उनकी चेतावनी से किसी के कान पर जूं नहीं रेंगी. न सरकारों के न जनता के. नीति आयोग ने जून, 2019 में जल संकट को लेकर एक रिपोर्ट जारी की थी जिसका नाम था, “कंपोज़िट वॉटर मैनेजमेंट इंडेक्स (सीडब्ल्यूएमआई) अ नेशनल टूल फॉर वाटर मेज़रमेंट, मैनेजमेंट ऐंड इम्प्रूवमेंट.”

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इस रिपोर्ट में नीति आयोग ने माना था कि भारत अपने इतिहास के सबसे भयंकर जल संकट से जूझ रहा है. और देश के क़रीब 60 करोड़ लोगों (ये जनसंख्या लैटिन अमेरिका और कैरेबियाई द्वीपों की कुल आबादी के बराबर है) यानी 45 फ़ीसद आबादी को पानी की भारी कमी का सामना करना पड़ रहा है.

इस रिपोर्ट में आगाह किया गया था कि वर्ष 2020 तक देश के 21 अहम शहरों में भूजल (जो कि भारत के कमोबेश सभी शहरों में पानी का अहम स्रोत है) ख़त्म हो जाएगा. 2030 तक देश की 40 फीसद आबादी को पीने का पानी उपलब्ध नहीं होगा और 2050 तक जल संकट की वजह से देश की जीडीपी को 6 फीसद का नुकसान होगा.

भारत में पानी की समस्या से निपटने के लिए हमें पहले मौजूदा जल संकट की बुनियादी वजह को समझना होगा. जल संकट मॉनसून में देरी या बारिश की कमी का मसला नहीं है. सचाई यह है कि सरकार की अनदेखी, ग़लत आदतों को बढ़ावा देने और देश के जल संसाधनो के दुरुपयोग की वजह से मौजूदा जल संकट हमारे सामने मुंह बाए खड़ा है.

पंचतत्व: अकाल और सूखे की वजह है जल संरक्षण की सूखती परंपराएं

विश्व बैंक की एक रिपोर्ट कहती है कि दुनिया के औद्योगीकरण से पहले के धरती के औसत तापमान में केवल 2 फीसद के इज़ाफ़े से पानी की मांग और आपूर्ति में बहुत फ़ासला पैदा हो जाएगा. इससे भारत की ख़ाद्य सुरक्षा को बड़ा ख़तरा हो सकता है. हालांकि भारत में हाल के दशकों में हर क्षेत्र में पानी की मांग को बढ़ते देखा जा रहा है. फिर चाहे वो खेती हो, कारखाने हों या फिर घरेलू इस्तेमाल.

आज हमारे देश में ताज़े पानी का 90 प्रतिशत हिस्सा सिंचाई के काम के लिए निकाला जाता है. इसीलिए अगर हमें अपने देश में जल प्रबंधन को लेकर किसी योजना पर गंभीर रूप से काम करना है, तो सबसे पहले खेती में इस्तेमाल होने वाले पानी के प्रबंधन पर ग़ौर करना होगा.

दुनिया भर में भारत में सबसे ज़्यादा भूजल सिंचाई के लिए निकाला जाता है. देवास की मिसाल हमारे सामने है. पानी के आयात को कम करेंगे तो कम खर्च में टिकाऊ समाधान निकलेगा. भविष्य के सवालों के जवाब इसी में छिपे हैं.



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