पंचतत्व: अकाल और सूखे की वजह है जल संरक्षण की सूखती परंपराएं


बहुत साल पहले की बात है. बिहार में एक जगह है, लखीसराय. उन दिनों बहुत अकाल आते थे वहां, खेती खराब हो जाती थी, मवेशियों के पीने लायक पानी नहीं बचता था. लखीसराय हालांकि चौर का इलाका है. चौर मतलब वह निचली जमीन जहां बरसात में बाढ़ का पानी बचा रहा जाता है और सर्दियों के उतरने तक बना रहता है. उन दिनों वहां पानी बमुश्किल ही बचता था.

लखीसराय के राजा (जमींदार) को एक चतुर पंडित ने ऐसे ही सूखे के दौरान चतुराई भरी सलाह दी कि राजा अपनी रानी को अपरूप सुंदर बनाना चाहते हों तो उसे हर रोज अलग-अलग तालाबों के पानी से नहाना चाहिए. नए किस्म के पानी से रानी की त्वचा दमकती रहेगी और उनके चेहरे की चमक हमेशा बरकरार रहेगी. आनन-फानन में राजा की आज्ञा आई और लखीसराय के इलाके में तीन सौ पैंसठ तालाब खुद गए.

तालाब खोदने के काम में स्थानीय लोगों को लगाया गया, जिन्हें काम के बदले अनाज दिया जाता था.

यह कहानी मैंने क्यों सुनाई है? कुछ वजहें स्पष्ट होंगी अगर आप आगे के तथ्यों पर ध्यान देंगे.

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2020 भारतीय इतिहास में आठवां सबसे गर्म साल रहा और औसत तापमान सामान्य से 0.29 डिग्री सेल्सियस अधिक रिकॉर्ड किया गया. नेशनल सेंटर फ़ॉर इनवायरमेंटल इनफ़ॉर्मेशन की रिपोर्ट के अनुसार जनवरी 2021 इतिहास का सबसे गर्म जनवरी का महीना था. 1990 में ग्लेशियर के पिघलने की दर 80,000 करोड़ टन प्रति वर्ष थी जो 2017 में बढ़कर 1,30,000 करोड़ टन सालाना हो गई है. इस साल फरवरी में पूर्वी ओडिशा का औसत तापमान 3-4 डिग्री सेल्सियस बढ़ गया, इसलिए प्रवासी पक्षी कुछ सप्ताह पहले ही वापस चले गए.

भारत के हालिया जलवायु परिवर्तन मूल्यांकन रिपोर्ट के मुताबिक़ भारत के औसत तापमान में 0.7 डिग्री सेल्सियस का परिवर्तन देखा गया है. स्थानीय और वैश्विक तापमान में हुई इस बढ़ोतरी का सीधा असर हमें विभिन्न मौसमी घटनाओं में आए तेज बदलाव के रूप में देखने को मिल रहा है.

बारिश का पैटर्न बदल गया है. अरब सागर में जल्दी-जल्दी और अधिक तेज़ चक्रवातों का आना बढ़ गया है. हिमालय के ग्लेशियर तेज़ी से पिघल रहे हैं और महासागर गर्म हो रहे हैं. हिंद महासागर का जल-स्तर बढ़ रहा है.

विभिन्न शोधपत्रों में यह दर्ज किया गया है कि पिछले 20-25 साल से भारतीय उप-महाद्वीप में मौसमी परिवर्तन स्पष्ट रूप से दिखने लगे हैं और हमारा वसंत सिकुड़कर कम अवधि का रह गया है. हम सर्दियों के मौसम से सीधे गर्मियों में चले जा रहे हैं. इस साल फरवरी में तापमान का अचानक 33 डिग्री तक चला जाना इसी का परिणाम है और मार्च के आखिर तक यानी होली से पहले दिन का तामपान 43 डिग्री सेल्सियस तक जा सकता है, ऐसा अंदेशा है.

कुदरत की लय अब सम पर नहीं है, ताल बिगड़ गया है. जीवों के मैथुन काल में बदलाव आ गया है और प्रवासी पक्षियों से लेकर फूलों और फलदार पेड़ों पर इसका असर दिख रहा है.

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इसका एक संभावित असर सूखे की भयावहता में दिखेगा. देश के अधिकांश शहरों और कस्बों में पेयजल और सिंचाई के जल की आपूर्ति या तो ट्यूबवेल से होती है या नहरों से. भूजल की स्थिति खतरनाक है और पंजाब और हरियाणा में इसके दुष्प्रभावों पर हमने इसी स्तंभ में पहले चर्चा की है. मई आते-आते देशभर में पानी के लिए हाहाकार मच सकता है, खासकर उत्तरी राज्यों में.

देश में यह अकाल कोई पहली दफा तो नहीं आय़ा होगा! पानी की जरूरत पूरा करने के लिए हम हमेशा पानी के आयात पर ही क्यों निर्भर रहते हैं? मुझे नहीं पता कि सरकारें पानी के आयात पर इतना जोर क्यों देती हैं. असल में, सभी सरकारों ने नामामूल वजहों से वॉटरशेड मैनेजमेंट को नजरअंदाज किया है. यह पानी जमा करने की तकनीक है. इस तकनीक में कुछ भी रॉकेट साइंस नहीं है.

किसी भी इलाके के सबसे ऊंचे बिन्दुओं के बीच का इलाका जलछाजन क्षेत्र (वॉटरशेड) कहलाता है और इस क्षेत्र में बरसे हुए पानी को जमा करके और उसी के हिसाब से उसको खर्च करने की कोशिश करनी चाहिए. जलछाजन क्षेत्र में उपलब्ध पानी के ही हिसाब से फसलों का चयन भी करना चाहिए. यह तकनीक पानी को करीने से खर्च करने की भी बात बताती है.

इसके साथ ही कुछ कड़वे सवाल भी उठते हैं. ज़रा बताइए तो, कम पानी के इलाकों में धान उगाने की बुद्धि किसने दी? पंजाब जैसे कम पानी के इलाके में बासमती क्यों उगाया जाता है? झारखंड जैसे राज्यों मे पेयजल संकट तो सिरे से अहमकाना बात लगती है क्योंकि इस सूबे में औसतन 170 सेंटीमीटर से अधिक बरसात होती है. कहां जाता है सारा का सारा पानी?

साफ है कि हम सारे पानी को यूं ही बह जाने देते हैं.

सूखे से बचाव के लिए या खेतों और घरों तक पानी पहुंचाने के लिए बांध बनाकर नहर से पानी पहुंचाना फौरी फायदा दे सकता है, लेकिन नहरों के किनारे मिट्टी में लवणता भी पैदा होती है. सिंचाई के लिए ट्यूबवेल से पानी खींचेंगे, तो भूमिगत जल का स्तर पाताल जा पहुंचता है. ज़मीन में दरारें फटती हैं. पंजाब, हरियाणा में ऐसी बहुतेरी जगहें हैं जहां जमीन में गहरी दरारें फट गई हैं. खेतों में आहर-पईन की व्यवस्था खत्म हो गई.

बुंदेलखंड में तालाबों की बड़ी बहूमूल्य परंपरा रही थी, लेकिन आधुनिक होते समाज ने तालाब को पाटने में बड़ी तेजी दिखाई. मदन सागर, कीरत सागर जैसे बड़े तालाब कहां हैं आज बुंदेलखंड में? उनमें गाद भर गई है. अनुपम मिश्र ने सही लिखा था कि गाद तालाबों में नहीं, हमारे दिमाग में है इसीलिए हमने तालाबों को उनके हाल पर छोड़ दिया है.

अब भी देर नहीं हुई है. तालाबों को फिर से जिंदा करने की जरूरत है. नए तालाब खोदने की जरूरत है, लेकिन ठेकेदार के मार्फत नहीं, गंवई तकनीक के ज़रिये. तालाब यानी जलागार, नेष्टा वाला तालाब. जैसलमेर के पास नौ तालाब एक सिलसिलेवार ढंग से बने हैं. यानी एक में पानी जरूरत से ज्यादा हो जाए तो नेष्टा, यानी निकास द्वार के जरिये पानी दूसरे तालाब में जाकर जमा हो.

लखीसराय के राजा ने जो तीन सौ पैंसठ तालाब खुदवाए थे उसके पानी में नहाकर रानी ताउम्र सुंदर बनी रही या नहीं इसका साक्ष्य तो नहीं है, लेकिन उस इलाके को अकाल का कभी सामना नहीं करना पड़ा इसके सुबूत इतिहास में दर्ज हैं.



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