पिछले जमाने की कहानियों में राजा की जान किसी तोते की गरदन में बसा करती थी। नागपुर के पावरहाउस से बिजली लेकर दिल्ली की गद्दी पर बैठे राजा की जान का मतलब अगर ‘हिंदुत्व’ है, तो इस हिंदुत्व का ‘तोता’ कोलकाता से कोई 60 किलोमीटर दूर कैकाला नाम के एक गांव में है- बहुत पहले बिसरा दिया गया, कब्ज़ा लिया गया, मृत।
पश्चिम बंगाल के असेंबली चुनाव में मतदान का तीसरा चरण कल है। वैसे तो इस चरण में कई दिग्गजों की किस्मत दांव पर है और परंपरागत रूप से अहम कई सीटों का सियासी फैसला मंगलवार को ईवीएम में बंद होना है, लेकिन हमारी दिलचस्पी हुगली जिले की एक छोटी सी सीट हरिपाल के एक बहुत छोटे से गांव कैकाला में थी। पिछले सात साल से भारतीय जनता पार्टी जिस ‘हिंदुत्व’ की पीठ पर सवारी गांठ कर देश की जनता को भरमाये हुए है, कैकाला उसकी जन्मभूमि है। इस गांव के बड़े ज़मींदार चंद्र नाथ बसु ने पहली बार 1892 में ‘’हिंदुत्व- हिंदुर प्रकृत्य इतिहास’’ नाम का ग्रंथ लिखा और डिक्शनरी को ‘हिंदुत्व’ शब्द दिया।
यह बार-बार कहा जाने वाला झूठ है कि हिंदुत्व के जनक विनायक दामोदर सावरकर थे। जब चंद्र नाथ बसु हिंदुत्व पर किताब लिख रहे थे, तब हिंदू महासभा और बाद में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की बुनियाद डालने वाले महान व्यक्तित्वों में वरिष्ठतम बीएस मुंजे 20 साल के थे, सावरकर महज नौ साल के थे, हेडगेवार तीन साल के थे और गुरु गोलवलकर तो पैदा भी नहीं हुए थे।
कलकत्ता के पुराने समाजवादी और ट्रेड यूनियन नेता सजल बसु ने दो दिन पहले बातचीत के दौरान भाजपा की चुनावी संभावनाओं पर टिप्पणी की थी, ‘’वो क्या हिंदुत्व सिखाएगा हमको? जब बंगाल ने ही हिंदुत्व को पैदा किया है।‘’ इसी संदर्भ में उन्होंने चंद्र नाथ बसु से हमारा परिचय कराया, तो दो दिन बाद ही हम इस महान लेखक की ज़मीन को तलाशने निकल पड़े, जिनका निधन हुए भी 110 साल से ज्यादा हो चुके हैं।
तारकेश्वर रेलवे लाइन पर कैकाला नाम की एक रेलवे क्रॉसिंग है। यहीं पटरी के पार कैकाला गांव शुरू होता है। बंगाल के गांवों की ही तरह इस गांव में भी रास्तों के दाहिने और बायें ओर हर पार्टी के झंडे तने हुए हैं। दोपहर के सन्नाटे में जब बंगाल खा पीकर सोता है, हम रेलवे लाइन के किनारे पहुंचे थे। शटर खुली एकाध दुकानों में ऊंघ रहे दुकानदारों से जब हमने बसु का नाम पूछा, तो सबने कंधा उचका दिया। एक बच्चा वहीं बैठा था। उसने जब सुना, तो हमें हाथ से रुकने का इशारा करते हुए भागा-भागा अपने घर गया। वहां से कुछ जानकारी लेकर आया और बताया कि वो तो बरसों पहले मर गए और उनका कोई भी रिश्तेदार यहां नहीं रहता।
राहत हुई कि चंद्र नाथ बसु का नाम जानने वाला कोई तो है। उसके पिता ने यह जानकारी दी थी। हमने उन्हें बुलवाया। उन्होंने रेल लाइन पार गांव के एक बुजुर्ग का पता दिया और हमसे कहा कि वहां जाकर पता करें। उनके बच्चे को साथ लेकर हम पैदल ही गांव में निकल लिए। बच्चा किन्हीं संतोष बाबू के फाटक पर रुका और उन्हें बाहर लिवा आया। उनसे बात हुई, वे चंद्र नाथ बसु से परिचित थे। उन्होंने भी यही बताया कि बसु एक बड़े जमींदार थे जो बाद में कलकत्ता के अलीपुर चिड़ियाघर के पास बर्धमान लेन में जाकर बस गये थे, इसलिए उन्हें जानने वाला यहां कोई नहीं है। हां, एक और बुजुर्ग हैं डे साहब, उनसे भी सीनियर, जो शायद कुछ बता पाएं।
डे साहब का छोटा सा घर गांव के स्कूल के पीछे तकरीबन खंडहर होती बाउंड्री में छुपा पड़ा था। स्कूल में मतदान का बूथ बना था, सैन्यकर्मी तैनात थे और सरकारी गाड़ियों की लाइन लगी हुई थी। हम बुजुर्ग के घर के भीतर घुसे। सामने कटहल से लदा एक विशाल वृक्ष दिखा। फिर एक छोटा सा आंगन और सामने खड़े एक बुजुर्ग दंपत्ति। उनके सवालों पर साथी नित्यानंद ने जब शुरुआत में बंगाली में अपना और हम सबका परिचय कराया, तब जाकर वे खुले। खुले भी क्या, घर में बैठाकर हमें शरबत भी पिलाये और बसु बाबू के बारे में जितना पता था, सब बताये।
कहानी कुछ यों है कि कैकाला गांव में दो बिरादरी की ज़मींदारी हुआ करती थी। एक बसु लोगों की और दूसरी बिस्वास लोगों की। जिस जमीन पर हम खड़े थे, वह बिस्वास की ज़मींदारी थी। जिस ज़मीन पर रेलवे लाइन से लेकर सरकारी स्कूल और संतोष बाबू का घर था, सब कुछ बसुओं की ज़मीन पर था। इसे बसुपाड़ा कहते थे। चंद्र नाथ बसु के पिता काशीनाथ बसु इतनी बड़ी ज़मीन के मालिक थे। सोचा ही जा सकता है कि उस ज़माने में जब पढ़ाई लिखाई दुर्लभ चीज हुआ करती होगी, चंद्र नाथ बसु को उनके पिता ने 1862 में कलकत्ता के प्रेसिडेंसी कॉलेज से बीए पढ़ने को भेजा।
1866 में वे इतिहास से एमए किए और अगले ही साल कानून की डिग्री लिए। ढाका की डिप्टी मजिस्ट्रेटी संभालने के बाद उन्हें बंगाल लाइब्रेरी का प्रमुख और बंगाल सरकार का आधिकारिक अनुवादक बना दिया गया। उनका पहला लिखा लेख लंदन की पत्रिका दि इंग्लिशमैन में समीक्षित हुआ। कैकाला गांव में एक लाइब्रेरी में उनका सब लिखा पढ़ा आज भी रखा है। इतवार होने के कारण हम वह सब देख नहीं पाए। यह सब बताने वाले बुजुर्ग डे साहब ने यह भी बताया कि बसु को बीए में यहां पढ़ाया जाता है।
एक लेखक के बतौर चंद्रनाथ बसु दरअसल बंकिम चंद्र चटर्जी की खोज थे। बंकिम चंद्र के कहने पर ही चंद्र नाथ अंग्रेजी छोड़कर बांग्ला में लिखने लगे और 19वीं सदी की मशहूर पत्रिका बंगदर्शक के स्तंभकार बन गए, जिसकी स्थापना खुद बंकिम चंद्र ने 1872 में की थी और जिसे 1901 में गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर ने अपने संपादकत्व में दोबारा जिंदा किया।
चंद्र नाथ बसु ने कई किताबें लिखीं लेकिन हिंदुत्व पर उनकी किताब सबसे अग्रणी थी। जाहिर है, इसमें हिंदुत्व की कोई राजनीतिक परिभाषा जैसी चीज नहीं थी लेकिन यह बुनियादी रूप से अद्वैत वेदान्त के दर्शन से प्रेरित कुछ विरोधाभासी संहिताओं का एक संकलन था। उनके हिंदुत्व में दो बातें मोटे तौर पर बताये जाने लायक हैं: पहला, बसु का हिंदुत्व किसी परम सत्ता के मानवीकरण यानी किसी ब्रह्मस्वरूप या सुपरमैन को नहीं मानता था और इस लिहाज से मिथकीय नहीं सांसारिक था। दूसरे, उनके हिंदुत्व में हिंदू एक श्रेष्ठ मनुष्य था जो किसी अन्य आस्था के अनुयायी से ज्यादा श्रेष्ठ, ईमानदार, सच्चा और सद्भावपूर्ण था।
चूंकि चंद्र नाथ बसु हिंदुत्व को हिंदुओं की जीने की शैली के हिसाब से परिभाषित कर रहे थे, तो उन्होंने हिंदू पुरुषों और हिंदू स्त्रियों के लिए कुछ संहिताएं बनायीं। आज की तारीख में ये संहिताएं पिछड़ी हुई मानी जाएंगी, लेकिन जिस ज़माने की यह बात है तब की राजनीतिक परिस्थिति अलहदा थी। अंग्रेजी उपनिवेश के खिलाफ 1857 का पहला स्वाधीनता आंदोलन समाप्त हो जाने के बाद विद्वान सब अपने-अपने स्तर से औपनिवेशिकता की काट को खोजने में लगे थे। सनातन धर्म और हिंदुओं के सांस्कृतिक जगत के कई आयाम काउंटर के तौर पर निकल कर सामने आ रहे थे। बसु इन्हीं में एक थे, जो बंकिम चंद्र की वैचारिक धारा से थे। यह धारा आगे रबींद्र नाथ टैगोर और श्री अरविंद तक जाती है।
चंद्र नाथ बसु जो कुछ लिखकर गए, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा के सांस्कृतिक सामाजिक चिंतन में वे अधिकतर चीजें आज भी नारों की शक्ल में दिखायी-सुनायी देती हैं। डेढ़ सौ साल की आधुनिकता और सभ्यता भी संघ और उसके विचार को चंद्र नाथ बसु से आगे नहीं ले जा सकी जबकि खुद बसु के गांव और क्षेत्र में उनका नामलेवा भी अब कोई नहीं रहा। खुद संघ बसु को भूल गया, उस शख्स को जिसने उसके विचारों के बीज रखे थे। जाने किन तरीकों से सावरकर को हिंदुत्व का क्रेडिट दे दिया गया, जबकि परिवार, समुदाय और समाज के बारे में सावरकर का हिंदुत्व अनिवार्यत: चंद्र नाथ बसु का हिंदुत्व है। फर्क बस इतना है कि सावरकर ने हिंदुत्व को एक ‘’राजनैतिक विचारधारा’’ के रूप में विकसित किया जबकि बसु के यहां हमें हिंदुत्व की परंपरागत सांस्कृतिक दृष्टि मिलती है।
चंद्र नाथ बसु पर दिवंगत वामपंथी इतिहासकार डीएन झा और तनिका सरकार अन्यत्र टिप्पणी कर चुके हैं। बहुत खोजने पर अंग्रेजी में कायदे से केवल एक पेपर अमिय पी. सेन का लिखा मिलता है जो चंद्र नाथ बसु के काम पर केंद्रित है। प्रो. मकरंद परांजपे ने भी एक लेख कहीं लिखा था जो ऑनलाइन उपलब्ध है। चंद्र नाथ बसु के हिंदुत्व को समझने की इच्छा रखने वाले अमिय सेन का पेपर नीचे पढ़ सकते हैं।
Amiya-Senआज, जबकि भाजपा और आरएसएस का देश में राज आये सात साल हो चुका है और बंगाल की बारी लगी हुई है, हिंदुत्व के जनक चंद्र नाथ बसु को कहीं भी दक्षिणपंथी प्रचार साहित्य में जगह नहीं मिल पायी है। सौ साल अगर कांग्रेस ने और चालीस साल अगर बंगाल के वाम शासन ने चंद्र नाथ बसु को नहीं पूछा, तो इसकी ठोस वैचारिक वजहें हैं। आज जब कांग्रेस, वाम, टीएमसी और तमाम अन्य राजनीतिक दल संघ के ही धार्मिक-साम्प्रदायिक पाले में उछलकूद मचाए पड़े हैं, चंडीपाठ से लेकर जाने क्या-क्या नाटक खेले जा रहे हैं, तब कायदे से विपक्ष को सामने आकर यह बताना चाहिए था कि संघ और भाजपा जिस हिंदुत्व का दम भरते हैं वह तो अपने तमाम संस्करणों में बंगाल की ही देन है।
आम तौर पर किसी चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की जीत को हिंदुत्व की लाइन पर ध्रुवीकरण का परिणाम और हिंदुत्व की जीत का पर्याय बता दिया जाता है, लेकिन बंगाल के मामले में यह धारणा बिलकुल गलत होगी। अव्वल तो यहां हिंदुओं में अब तक कोई स्पष्ट धार्मिक ध्रुवीकरण नहीं हुआ है, दूसरे यहां भाजपा की संभावित कामयाबी हिंदुत्व की कामयाबी नहीं होगी। इस बात को वरिष्ठ समाजवादी सजल बसु अच्छे से समझाते हैं:
बंगाल के लोगों को संघ/भाजपा के हिंदुत्व से कोई लेना-देना नहीं है। वे बस बदलाव चाहने के चक्कर में भाजपा को वोट दे सकते हैं। यहां बंगाल में बाहर से आकर हिंदुओं को कोई हिंदुत्व क्या सिखाएगा? सब कुछ तो यहीं का है। भाजपा वालों को ये सब नहीं पता तो क्या किया जाय। बाकी पार्टियां खुद इतनी भ्रष्ट हैं कि वो इतिहास में नहीं जाना चाहतीं, केवल नकल मारती हैं।
बसु के गांव कैकाला में फिलहाल वाम, टीएमसी और भाजपा तीनों के झंडे लहरा रहे हैं। बंगाल में आए बदलाव को समझना हो तो बुजुर्ग डे साहब के परिवार को देखना काफी होगा। खुद डे साहब सीपीएम करते रहे हैं जिंदगी भर, तो संघ और भाजपा से वैचारिक रूप से नफरत करते हैं। उनका इंटर पास बेटा जो माइक्रोफाइनेंस की एक कंपनी में काम करता है, उसे बदलाव की दरकार है। बदलाव का मतलब भाजपा हो या टीएमसी, उसे इससे खास फ़र्क नहीं पड़ता। और अंत में डे साहब की बहू, जो बर्धमान की पैदाइश हैं, भाजपा प्रेमी हैं। डे साहब जब यह बात हमें बताते हैं, तो उनकी बहू मुस्कुराती और शर्माती हैं।
ये है एक फ्रेम में पूरा बंगाल। इस फ्रेम से भाजपा और संघ का हिंदुत्व एक विचार के रूप में गायब है। ठीक वैसे ही, जैसे भाजपा और संघ के हिंदुत्व में से चंद्र नाथ बसु गायब हैं।
अभिषेक श्रीवास्तव जनपथ के माडरेटर हैं और स्वतंत्र पत्रकार हैं। इस कहानी में साथी पत्रकार नित्यानंद गायेन का महत्वपूर्ण योगदान है।