दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय में दलित आरक्षण के लिए एक शख्स का गुमनाम संघर्ष


बिहार सरकार दलितों और पिछड़ों के अधिकारों के लिए कार्य करने का दावा करती आयी है या यूं कहें कि इनकी पूरी राजनीति ही दलितों और पिछड़ों पर टिकी हुई है, लेकिन अनगिनत ऐसे मामले हैं जिससे यह साफ हो गया है कि दलित और पिछड़े इनके लिए वोट-बैंक से अधिक कुछ भी नहीं। यहां इनके पूर्व के कारनामों के सम्बन्ध में कोई चर्चा नहीं है, बल्कि वर्तमान में कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्विद्यालय की नियुक्तियों में आरक्षण नियमों की घनघोर अवहेलना के सन्दर्भ में जनसामान्य का ध्यान आकृष्ट कराना है क्योंकि तमाम आवेदनों और शिकायतों के बाद भी अब तक किसी प्रकार की ठोस कार्रवाई नहीं की गयी है।

ब्राह्मणवादी और सवर्ण जातिवादी मानसिकता से ग्रसित गैंगों के द्वारा इस विश्विद्यालय में तमाम नियुक्तियां हो रही हैं या कर दी गयी हैं। इसमें न तो विश्विद्यालय के पारम्परिक नियमों का पालन हो रहा है और न ही आरक्षण या इसके रोस्टर आदि को ही उलट कर देखना मुनासिब समझा जाता है। सबसे बड़े आश्चर्य की बात तो यह है कि आरक्षण नियमों का पालन इस विश्विद्यालय में अपने स्थापना काल से ही अब तक नहीं किया गया है, लेकिन बिहार सरकार आखिर किन वजहों से चुप है यह समझ से परे है।

इस सम्बन्ध में आवेदन कई अधिकृत लोगों को लिखा गया लेकिन अब तक इस पर किसी भी प्रकार की ठोस कार्रवाई नहीं की गयी है। यहां भेजे गए एक ऐसे ही आवेदन को शब्दशः लिखा जा रहा है ताकि दलित अधिकारों के लिए लड़ने वाले सजग बुधिजीवियो/राजनेताओं/पत्रकारों/ आदि को इस विषय की गंभीरता का अहसास हो सके, और अगर हो सके तो इस मामले पर अपनी आवाज बुलंद करें ताकि संस्कृत विश्विद्यालय, दरभंगा सहित अन्य विश्विद्यालयों में जातिवादी दुश्चक्र और अन्य अनियमितताओं पर लगाम लगाया जा सके।

जीवछ पासवान, जो इसी विश्विद्यालय के पूर्व कर्मी रहे हैं और जातिगत उत्पीडन के कारण ही कभी उन्होंने यहां से इस्तीफा दे दिया था, ने इस सन्दर्भ का एक शिकायती पत्र प्रधान सचिव, राजभवन, पटना; मानव-संसाधन विकास विभाग, बिहार सरकार पटना; सचिव, यूजीसी, दिल्ली; सचिव, राष्ट्रीय अनुसूचित जाति/जनजाति आयोग, दिल्ली, आदि को लिखा है जो इस प्रकार है:


सेवा में,
मुख्यमंत्री, बिहार सरकार, पटना

विषय: का.सि.द.सं. विश्विद्यालय के सम्बद्ध शास्त्री-महाविद्यालयों में आरक्षण नियमों और रोस्टर की अवहेलना करते हुए 2019 से अद्यतन होने वाली तमाम नियुक्तियों पर तत्काल प्रतिबन्ध और निष्पक्ष व् उच्चस्तरीय जाँच समिति गठन करने के सन्दर्भ में.

महोदय,

विदित हो कि कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्विद्यालय, दरभंगा, बिहार में होनेवाली वर्तमान नियुक्तियों में घनघोर रूप से अनियमितता बरती जा रही है; भाई-भतीजावाद, जातिवाद आदि के द्वारा नियमों की धज्जियाँ उड़ाई जा रही है और अपने मन मुताबिक अपने पसंद के लोगों को पदासीन किया जा रहा है. शासी निकाय भी निरंकुश तरीके से कार्य कर रहा है. शासी निकाय के सदस्य आपस में एक आपराधिक गैंग की तरह कार्य करते हैं और तमाम पदों को आपस में बंदरबांट कर लेते हैं. शासी निकाय के गठन में भी अनुसूचित-जाति के सदस्यों का कोई प्रतिनिधित्व नहीं है. अतएव इस सम्बन्ध के कुछ महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर शपथपूर्वक ध्यान आकृष्ट कराना चाहूँगा ताकि इन अनियमितताओं की गम्भीरता को समझा जा सके और इसपर तत्काल प्रभाव से रोक लगाते हुए उच्च स्तरीय जाँच समिति का गठन करते हुए विधिनुकुल कार्रवाई की जा सके-

  • आरक्षण नियमों व रोस्टर की अवहेलना: आमतौर पर तो इस विश्विद्यालय के लिए आरक्षण नियमों व् रोस्टर को नकारने की परंपरा कोई नई बात नहीं है, बल्कि अपने स्थापना काल से ही इसने आरक्षण नियमों को ताक पर रखा है. जब कभी किसी अनुसूचित वर्ग के व्यक्ति की नियुक्ति हुई है भी तो वह भी गैर-वैधानिक तरीके से अपने ही किसी ऐसे व्यक्ति का चयन किया गया जो उनके हितों और स्वार्थों को साध सकें. जातिवाद और परिवारवाद की जड़े इतनी मजबूत है कि कई प्रयासों के बाद भी इस दुश्चक्र को आजतक तोड़ा नहीं जा सका है. ऐसा प्रतीत होता है कि यह विश्विद्यालय कुछ विशेष जाति और वर्ग के लोगों के हितार्थ ही कार्य कर रही है. न तो इसे विश्विद्यालय के नियमों से ही कोई मतलब है और न संविधानिक प्रावधानों से.
  • उल्लेखनीय है कि तमाम अधिकारीयों और पदाधिकारियों के अतिरिक्त विश्विद्यालय में महाविद्यालयों से आये (आमतौर पर अवैध रूप से) जो प्रतिनियोजित शिक्षक हैं वे इस महाविद्यालय और महाविद्यालयों में हो रहे भयंकर अपराधों के बीच सेतु की भूमिका में हैं. प्रतिनियोजन पर अनगिनत शिक्षक हैं जो अपने मूल महाविद्यालय में एकल पदों पर रहने के बावजूद दशकों से विश्विद्यालय में आसीन हैं और ऐसे अपराधों में अपनी अहम् भूमिका निभा रहें हैं. ऐसी स्थिति में कई सवाल खड़े होते हैं कि आखिर उन महाविद्यालयों में उस एकल पदों के विषयों का पठन-पाठन कैसे किया जा रहा है? क्या यह बच्चों के भविष्य के साथ खिलवाड़ नहीं है? उदहारण के लिए वर्तमान में विश्विद्यालय के वर्तमान सूचना पदाधिकारी श्री सुनील कुमार झा एकल पद पर रहने के बावजूद एक दशक से विश्विद्यालय में सूचना पदाधिकारी के पद पर अवैध तरीके से प्रतिनियोजित हैं और इस कारण इनसे जब भी भी RTI के द्वारा सूचना मांगी जाती तो या तो नहीं देते हैं या फिर भ्रमित करने वाली सूचना प्रदान की जाती है. कई बार राज्य सूचना आयोग में जाने के बाद भी आधी-अधूरी सूचना प्रदान की गई. सूचना की पारदर्शिता किसी भी संस्था की नियत और कार्यप्रणाली को निर्धारित करती है, ऐसे में सूचना का न प्रदान किया जाना इन नियुक्तियों की अवैधानिकता को और भी अधिक पुष्ट करता है.
  • संयुक्त सचिव, राज्यपाल सचिवालय, बिहार के पत्रांक एस.यू.-27/2019-15/रा.स.(1), 11.01.20 के अनुसार- “कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्विद्यालय, दरभंगा सत्र पर समान प्रकृति के पदों को समूहीकृत करते हुए विश्विद्यालय के स्तर पर रोस्टर क्लियर किया जाना चाहिए…”, लेकिन प्रत्येक महाविद्यालय को पृथक-पृथक इकाई मानते हुए आरक्षित पदों को तय क्या गया, हालाँकि इसके बावजूद पदों की जितनी वैधानिक संख्या तय की जानी थी उसका आंशिक भी पालन नहीं किया जा रहा है. न तो आरक्षण नियमों का और न ही रोस्टर का ही पालन किया गया. यहाँ बैकलोग का भी पालन नहीं किया गया जो गंभीर रूप से वंचित समुदायों के हितों और संविधानिक अधिकारों पर आघात है.
  • कुछ महाविद्यालयों में, जैसे डॉ जगरनाथ मिश्र संस्कृत महाविद्यालय, पसटन, मधुबनी में कोविड काल में निकाली गई विज्ञापन में विषय ‘वेद’ को अनारक्षित दर्शाया गया था, लेकिन आश्चर्यजनक रूप से उसी विज्ञापन को अब आर्स्खित श्रेणी में करने का प्रयास किया गया है. इस सन्दर्भ में एक उम्मीदवार का तो आवेदन शुल्क भी यह कहते हुए वापस कर दिया गया कि यह पद अब आरक्षित श्रेणी में चला गया है. यह दर्शाता है कि नियुक्तियां कितने अराजक और मनमाने तरीके से की जा रही है.
  • कोविड काल में विज्ञापन का निकाला जाना: जब तमाम संस्थाएं बंद थी उस समय नियुक्ति हेतु विज्ञापन का निकाला जाना भी इन नियुक्तियों की वैधता पर स्वतः प्रश्न खड़े करती है. इसके आलावा विज्ञापन भी ऐसे अखबारों में निकाला गया जिसका आमतौर पर व्यापक पाठकवर्ग नहीं है. संबद्द महाविद्यालयों के वेब-पोर्टल भी भ्रमित करने वाले थे और उन पोर्टलों के माध्यम से नियुक्ति सम्बन्धी सही सूचना वैसे ही व्यक्ति ज्ञात कर सकते थे जो इस विश्विद्यालय के अधिकारीयों और पदाधिकारियों से व्यक्तिगत रूप से परिचित हों; यह सामान्य लोगों के लिए कठिन था. इन अनियमितताओं के कारण उपजे असंतोष और आन्दोलन को ध्यान में रखते हुए कुछ महाविद्यालयों की नियुक्तियों पर तत्काल प्रतिबन्ध लगाया गया, जैसे सत्यनारायण संस्कृत महाविद्यालय, छतौनी, मधुबनी और देवशंकर हलधर संस्कृत महाविद्यालय, चनपुरा, मधुबनी. हालाँकि इन प्रतिबंधों का भी कोई असर नहीं दीखता, क्योंकि संयुक्त सचिव के द्वारा लगाये गए प्रतिबन्ध के बावजूद भी उप-शास्त्री महाविद्यालयों में धरल्ले से नियुक्तियां की जा रही है. यह अपने आप में ही बेहद दुखद और शर्मनाक है.

उपरोक्त बिन्दुओं के आलोक में निवेदन है कि वर्ष 2019 से अद्यतन हुई तमाम नियुक्तियों, विज्ञापन, और साक्षात्कार को विखंडित करने का सख्त आदेश दिया जाए जबतक कि आरक्षण और रोस्टर का विधिसमम्त रूप से पालन नहीं किया जा सके. साथ ही इन अनियमितताओं पर एक उच्च-स्तरीय जाँच समिति का गठन किया जाए जिसके सदस्यों में स्थानीय या विश्विद्यालय से प्रत्यक्ष या अप्रत्य्स्ख तरीके से जुड़े लोगों को पूर्णतः दूर रखा जाए; बिहार सरकार इस जाँच समिति में अपने स्तर से प्रतिनिधियों को नियुक्त करें ताकि जाँच समिति निष्पक्ष तरीके से फलीभूत हो सके”.

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उपरोक्त पत्र राज्य के विश्विद्यालयों में गहरे तक धंसे जातीय चक्रव्यूह और इनके वर्चस्व को तो दिखाता ही है साथ ही यह भी दिखलाता है कि किस प्रकार अरबों रुपये के लोकधन पर खड़े इन संस्थानों में भ्रष्टाचार संस्थागत रूप ले चुका है जिसे मात्र व्यक्तिगत प्रयासों से ख़तम नहीं किया जा सकता। विश्विद्यालयों में इस तरह के माहौल में क्या कुछ रचनात्मक बौद्धिक कार्य हो रहा होगा यह पत्र भी इस बात को एक सिरे से खोलकर रख दे रहा है। जहां शिक्षक और अधिकारी जातिगत समीकरण ही सेट करने में लगे हों और लोकधन का कैसे संगठित तरीके से गबन किया जाए यही एक मात्र मकसद हो तो ऐसे में वहां पढ़ने वाले छात्र चाहे किसी भी जाति/वर्ग के क्यों न हों उनका भविष्य किस दिशा में जाएगा इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।

सरकार को चाहिए कि वे इन मामलों पर त्वरित निर्णय लें और अपने सम्बंधित विभागों को इस पर जिम्मेवार तरीके से कार्य करने का निर्देश दें। दलित आरक्षण जैसे मामले पर सरकार की चुप्पी या निष्क्रियता सरकार की दलितों के प्रति दायित्वों पर सवाल खड़े करने के लिए पर्याप्त है। सरकार अगर सच में दलितों के हितों के प्रति संवेदनशील है तो इस विश्विद्यालय पर निष्पक्ष उच्चस्तरीय जांच समिति का गठन करे ताकि जातिगत समीकरण के सहारे यहां हो रहे और भी असंख्य आपराधिक मामलों का खुलासा हो सके। साथ ही विश्विद्यालय के सम्पूर्ण “पाग-धारी” और “चादर-धारी” तथाकथित विद्वान नेतृत्व की कलई खुल सके जिन्होंने विश्विद्यालय को अपनी जागीर मान लिया है।


लेखिका बनारस हिन्दू विश्विद्यालय से पत्रकारिता में परा-स्नातक हैं


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