स्मृति शेष: बड़े भाईसाहब से कैसे साथी बने कॉमरेड केसरी सिंह


केसरी सिंह जी के साथ मेरा कोई 35 वर्षों पुराना परिचय रहा। उनका भाई अमरसिंह और मैं 11वीं में अशोकनगर में साथ पढ़ते थे। उस नाते स्वाभाविक रूप से मैंने उन्हें अपना भी बड़ा भाई मान लिया था। उनकी पोस्टिंग उस वक़्त सरगुजा में थी और जब वे अशोकनगर आते तो वे वहाँ की बोली की नकल “तोला-मोला” करके सुनाते थे। पढ़ने के लिए समझाते थे लेकिन ज़्यादा पीछे नहीं पड़ते थे। हम लोगों के लिए वे एक सहज उपस्थिति रहते थे।

दस महीनों का वो 1987 का छोटा सा वक्फा मेरी तेज़ रफ़्तार बदलती ज़िंदगी में लगभग विस्मृत सा हो गया था और मेरा अनापेक्षित रूपांतरण अराजक गतिविधियों में संलग्नता से साहित्यिक और सांस्कृतिक गतिविधियों की ओर हो गया था।

वक़्त ने अमरसिंह और केसरी सिंह भाईसाहब की स्मृतियों पर भी धूल की मोटी परत बिछा दी थी। मैं 2004 में मध्य प्रदेश का प्रलेस का महासचिव बना दिया गया था और उसी के आसपास मंदसौर के साथी कमल जैन (स्मृतिशेष) और हरनाम सिंह जी ने बताया था कि मंदसौर में प्रलेस से जुड़े बीएसएनएल के एसडीओ केसरी सिंह जी आपको जानते हैं। उनके मंदसौर रहते तो उनसे संक्षिप्त मुलाकातें ही हुईं। लेकिन उनके रिटायरमेंट के बाद उनके इंदौर आ जाने और फिर बीएसएनएल के उनके यूनियन लीडर और हमारे प्रलेस अध्यक्ष एसके दुबे जी के साथ उनके जुड़ जाने से वे प्रलेस के साथ सक्रियता से जुड़ गए।

काम करने के दौरान उन्होंने मुझे कभी भी व्यक्तिगत परिचय और बड़े भाई होने का एहसास नहीं करवाया। एक कॉमरेड की तरह बराबरी से ज़िम्मेदारी बाँटने में वे सदा तत्पर रहे। अकेले में मिले और घर परिवार की बातें कीं तो अलग बात, वर्ना हमेशा उत्साह से वर्तमान और भविष्य की संभव-असंभव, व्यावहारिक और अव्यावहारिक योजनाएँ बनाईं, विचारीं।

कॉमरेड एसके दुबे के जाने से हम सबको इंदौर में बहुत आकस्मिक सदमा भी लगा था और काम पर भी असर पड़ा था। लेकिन फिर हरनाम सिंह जी के मंदसौर से इंदौर आ जाने और केसरी सिंह जी, राम आसरे पांडे जी, हरनाम सिंह जी, विवेक मेहता जी और सारिका आदि के शहर के एक ही हिस्से में रहने की वजह से एक सक्रिय केन्द्रक के निर्माण की संभावनाएँ महसूस होने लगी थीं। चिडार जी आसपास रहने वाले सभी साथियों के घर जाते, प्रलेस से लेकर देश-दुनिया, घर-परिवार की बातें करते और प्रलेस के संपर्कों को जीवंत और पुनर्नवा करने की कोशिश करते। इस सिलसिले में वे अजय-सुलभा लागू, अनंत श्रोत्रिय जी, प्रांजल, ब्रजेश कानूनगो जी और भाई सुरेश पटेल आदि के साथ काफ़ी नियमित संपर्क में रहते थे। मैं लगातार बाहर रहता था लेकिन जब भी आता तो रामआसरे जी और चिडार जी आने के एकाध दिन के भीतर ही मिलने घर आ जाते और इन सब लोगों के हाल-अहवाल, संगठन की आगामी योजना और अपने नये लिखे-पढ़े की बातें करते।

उनका प्रसन्नचित्त स्वभाव उन्हें सबके साथ सहज रखता था। रिटायर होने के बाद से वे वायलिन सीख रहे थे। हमने एक बार कहा सुनाओ तो उन्होंने कहा कि उसे तो सीखने में वक़्त लगेगा लेकिन आप तबला सुन लो। फिर उन्होंने मुँह से तबले की आवाज़ भाँति-भाँति की मुखमुद्राओं के साथ निकाली और हम सब उनकी इस प्रतिभा के भी कायल हुए।

पिछले इंदौर प्रवास में पता चला कि उन्हें कैंसर डायग्नोज़ हुआ है और उसी में पीलिया हो जाने से इलाज भी शुरू नहीं हो पा रहा। उनकी बेटी पल्लवी से बात हुई, फिर चिडार जी से भी कहा कि सब ठीक हो जाएगा। फिर वे इंदौर आये, मुझे अगले ही दिन बाहर निकलना था। मैं उसी रोज़ शाम को उनसे मिलने पहुँचा। ख़ूब बातें कीं। उस वक़्त की भी जब वो मेरे बड़े भाई हुआ करते थे और फिर अब की भी जब वो मेरे कॉमरेड बन गए थे। मेरी पत्नी ने उनसे पूछा कि आप उर्दू भी तो सीख रहे थे। जवाब में वे कमज़ोर आवाज़ लेकिन बड़े उत्साह से बोले, “हाँ, अब मैं तेज़ी से उर्दू पढ़ लेता हूँ लेकिन अभी इस बीमारी में आराम करते-करते मैं तेज़ी से लिखने का भी अभ्यास कर लूँगा।”

नीम के पेड़ की डालियाँ उनकी छत पर तक आ गईं थीं जिनके तले पहली मंजिल पर खुले में हम बैठे थे। मच्छर बेशक ज़्यादा थे लेकिन चिडार जी बोले कि इस नीम की छाँव और चारों तरफ़ घने पेड़ों से आती ऑक्सीजन मुझे ठीक कर देगी।

वो ठीक नहीं हुए। 27 अप्रैल 2023 की शाम उन्होंने दुनिया को अलविदा कह दिया।

उनके ठीक होने की इच्छा, उनके अंतिम समय तक कुछ न कुछ सार्थक करने और सीखने का व्यक्तित्व हमेशा हमारी यादों में रहेगा। मौत तो सबको ही आती है लेकिन वे लोग मौत के बाद भी जीते हैं जो मौत के डर से जीते-जी हथियार नहीं डाल देते।

हाल में जब हमने इंदौर में “धीरेन्दु मजुमदार की माँ” नाटक का प्रदर्शन किया तो वे नाटक की निर्देशक साथी जया मेहता से अपनी दर्शकीय प्रतिक्रिया साझा करने जया के घर आये थे। विह्वल होकर बोले, “आपने हमें शेख मुजीबुर्रहमान का वो दौर याद दिला दिया जिसमें एक अलग ही दुनिया का सपना साकार होता लगता था। दिनमान के वो अंक आज भी मेरे पास कहीं सँभले हुए रखे होंगे जिनमें शेख मुजीब के बारे में विशेष सामग्री निकली थी।” उनकी आँखें वैसे भी बालसुलभ औत्सुक्य, ख़ुशी और कुछ करने के उत्साह से भरी ही होती थीं, लेकिन उस दिन उनमें कुछ और भी चमक रहा था – वो थी एक बेहतर दुनिया के ख़्वाब की हक़ीक़त में बदलने की उम्मीद। हम सब जितना जीते हैं, उसी ख़्वाब और उसके पूरे होने की उम्मीद की ख़ातिर जीते हैं। और हमें केसरी सिंह जी हमेशा अपनी उन्हीं आँखों के साथ याद रहेंगे, जिनमें जानने की उत्सुकता थी, करने की ललक थी और इंसानियत पसंद दुनिया की उम्मीद थी।

साथी केसरी सिंह को लाल सलाम।


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