उत्तराखंड ने फिर एक तबाही का मंजर देखा। चमोली जिले में ऋषिगंगा में अचानक से आई जलप्रलय में रैणी गांव के स्थानीय निवासी, बकरियां चराने वाले बकरवाल व 13.5 मेगावाट के ऋषिगंगा पावर प्रोजेक्ट में कार्यरत मजदूर-कर्मचारी मारे गए या लापता घोषित हुए हैं।
जलप्रलय ने धौलीगंगा में पहुंचकर तपोवन विष्णुगढ़ पावर प्रोजेक्ट (520 मेगावाट) के पूरे बांध को ध्वस्त किया और पावर हाउस की ओर जाने वाली सुरंगों में काफी दूरी तक मलबा व गाद भर दिया। इस परियोजना में भी जो लोग सुरंग काम कर रहे थे उनकी खोजबीन अभी जारी है। कुछ शव मिले हैं। बाकी लापता हैं।
जो लापता हुई वो कब, कैसे मिलेंगे? और कितने लोग वास्तव में मारे गए, उनकी संख्या कभी सामने नहीं आएगी क्योंकि रिकॉर्ड में वही मजदूर होंगे जिनका रजिस्टर बनता है। छोटे-छोटे ठेकेदारों के कितने लोग कहां-कहां काम कर रहे थे उसका कोई रिकॉर्ड नहीं होता। आज तक 2 जून 2013 की आपदा में लापता हुए और मारे गए लोगों का पूरा रिकॉर्ड हो ही नहीं पाया।
पूरे घटनाक्रम में दोष प्रकृति को दिया जा रहा है। ग्लेशियर टूटने की बात जमकर के प्रचारित हो रही है, किंतु हिमालय की नाजुक पारिस्थितिकी में इतनी बड़ी परियोजनाओं को बनाने की, अनियंत्रित विस्फोटकों के इस्तेमाल की, जंगलों को काटने की, पर्यावरणीय कानूनों व नियमों की पूरी उपेक्षा पर न सरकारों का कोई बयान है न कहीं और ही चर्चा हुई।
सरकारों ने अब तक की बांध संबंधी रिपोर्टों, पर्यावरणविदों की चेतावनियों, प्रकृति की चेतावनी पर ध्यान नहीं दिया है।
मध्य हिमालय में बसा यह राज्य प्राकृतिक सुंदरता से भरपूर है, किंतु साथ ही प्राकृतिक आपदाओं का खतरा हमेशा बना रहता है। प्रकृति के साथ लगातार की जा रही छेड़छाड़ इस तरह की आपदा को और अधिक भयावह रूप दे देती है।
7 फरवरी, 2021 की तथाकथित ग्लेशियर टूटने की घटना, यदि यह दो बांध नीचे नहीं होते तो जान माल का न्यूनतम से न्यूनतम ही नुकसान करती। सरकारों को देखना चाहिए कि इन परियोजनाओं के कारण ही मजदूर व अन्य कर्मचारी, गांव के निवासी तथा बकरवाल मारे गए हैं।
रैणी गांव के लोगों ने अति विस्फोट की बात लगातार उठायी थी। वे उत्तराखंड उच्च न्यायालय में भी गए और न्यायालय ने जिलाधिकारी को जिम्मेदारी दी।
तपोवन-विष्णुगढ़ परियोजना की पर्यावरण स्वीकृति को भी हमने तत्कालीन “राष्ट्रीय पर्यावरण अपीलीय प्राधिकरण” में चुनौती दी थी, जिसको समय सीमा के बाद अपील दायर करने के मुद्दे पर प्राधिकरण ने रद्द कर दिया था। इसके बाद भी पर्यावरण से जुड़े तमाम मुद्दों को हम उठाते रहे किंतु सरकार ने कभी कोई ध्यान नहीं दिया। दोनों ही बांधों के पर्यावरणीय उल्लंघन के लिए हम स्थानीय प्रशासन, उत्तराखंड राज्य के संबंधित विभाग व केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय को पूर्ण रूप से दोषी मानते हैं।
उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री स्वर्गीय नारायण दत्त तिवारी ने टिहरी बांध बनने के बाद कहा था कि अब कोई ऐसा बड़ा बांध नहीं बनेगा, मगर उसके बाद महाकाली नदी पर पंचेश्वर व रूपाली गाड बांध की पूरे धोखे के साथ 2017 में जनसुनवाई की गई। टोंस नदी पर एक बड़े किशाउ बांध को सरकार आगे बढ़ा रही है। ये सीधा आपदाओं को आमंत्रण है।
जून 2013 की आपदा के बाद सुप्रीम कोर्ट ने “अलकनंदा हाइड्रो पावर कंपनी लिमिटेड बनाम अनुज जोशी एवं अन्य” के केस में स्वयं उत्तराखंड की आपदा पर संज्ञान लेकर सरकार को आदेश दिया कि उत्तराखंड की किसी भी बांध परियोजना को, किसी तरह की कोई स्वीकृति न दी जाए और जल विद्युत परियोजना के नदियोँ पर हो रहे असरों का एक आकलन किया जाए।
पर्यावरण मंत्रालय ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश को गंगा की कुछ नदियों तक सीमित कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश को सीमित करने पर पर्यावरण मंत्रालय को कभी दोषी नहीं ठहराया। ना इस पर कोई संज्ञान लिया। समिति ने रवि चोपड़ा की अध्यक्षता में वन्य जीव संस्थान, देहरादून की 2012 वाली रिपोर्ट में कही गई 24 में से 23 परियोजनाओं को ही रोकने की सिफारिश की किंतु सुप्रीम कोर्ट ने 24 परियोजनाओं को ही रोकने योग्य माना।
इसके बाद पर्यावरण मंत्रालय ने एक नई समिति बनाकर 24 में से छह बड़ी परियोजनाओं को आगे बढ़ाने की अनुशंसा दी। सेंट्रल इलेक्ट्रिसिटी अथॉरिटी ने भी एक समिति बना दी, मगर जल शक्ति मंत्रालय, ऊर्जा मंत्रालय और पर्यावरण मंत्रालय की ओर से जो साझा शपथ पत्र सुप्रीम कोर्ट में दाखिल करना था जो कि आज तक नहीं हुआ है। सुप्रीम कोर्ट ने भी इस पर लंबे समय से कोई सुनवाई नहीं की है।
सुप्रीम कोर्ट जलवायु परिवर्तन के तथा लोगों की हत्याओं से जुड़े इतने बड़े मुकदमे को ना सुनने के लिए दोषी है। इसलिए इस दुर्घटना के के लिए सर्वोच्च न्यायालय भी जिम्मेदार है।
2016 में तत्कालीन ऊर्जा मंत्री पीयूष गोयल ने कहा था कि हम आवश्यकता से अधिक बिजली का उत्पादन कर रहे हैं। सरकारी आंकड़ों के अनुसार यदि वर्तमान की विद्युत परियोजनाएं 70 से 75% भी उत्पादन करती हैं तो हमें नई परियोजनाओं की कोई आवश्यकता नहीं है। तो फिर हिमालय के इतने संवेदनशील इलाकों में ऐसी परियोजनाओं की क्या जरूरत है?
यह बात भी दीगर है कि उत्तराखंड की एक भी बांध परियोजना में पुनर्वास और पर्यावरण की शर्तों का अक्षरश: पालन नहीं हुआ है। ऐसा ही यहां पर भी हुआ है। बांध किसी भी नदी में आई प्राकृतिक आपदा को विकराल रूप में बदलते हैं। रवि चोपड़ा कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में यह स्पष्ट लिखा था।
जून 2013 की आपदा में ऐसे अनेक उदाहरण हमारे सामने हैं। अलकनंदा नदी पर बना विष्णुप्रयाग बांध नहीं टूटता तो नीचे के पुल नहीं टूटते। बद्रीनाथजी और हेमकुंड साहेब के हजारों यात्रियों को अटकना नही पड़ता। इसी नदी पर श्रीनगर बांध के कारण निचले क्षेत्र की सरकारी व गैर सरकारी संपत्ति जमीदोंज हुई। लोग आज भी मुआवजे की लड़ाई लड़ रहे हैं।
सरकार ने 2013 की आपदा से कोई सबक नहीं लिया। सुप्रीम कोर्ट ने भी इस पर कोई कदम आज तक नहीं लिया है।
माटू जनसंगठन के अलावा उत्तराखंड व देश के हिमालयप्रेमी व पर्यावरणविद आदि सभी ने 2013 में ही सरकार को इस मुद्दे पर चेताया था कि ऐसी दुर्घटनाएं पुनः हो सकती हैं इसलिए बड़ी परियोजनाओं को रोकना ही चाहिए।
इन मुद्दों पर जनप्रतिनिधियों, नीतिकारों, अधिकारी वर्ग व सरकार की जवाबदेही सुनिश्चित होनी ही चाहिए। वे ही इन बांधों को विकास और बिजली के लिए आगे बढ़ाते हैं।
परियोजनाओं में कार्यरत मजदूरों का पूरा रिकॉर्ड बनाने के आदेश जारी हो।
विमल भाई
माटू जन संगठन
ग्राम छाम, पथरी भाग 4, हरिद्वार, उत्तराखंड
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