“मैंने चितरंजन दा को हमेशा अपने अकेलेपन से लड़ते हुए पाया”!

यह सच है कि चितरंजन दा ने जनांदोलनों को लोकतांत्रिकता की नई दिशा दी। यह भी सच है कि उन्होंने मानवाधिकारों को कोर्ट-कचहरी की फाइलों से उठाकर साधारण आदमी की गरिमा का सवाल बनाया। यह भी सच है कि उन्होंने उन गली कूचों मोहल्लों टोलों तक अपनी पहुंच बनाई जहां व्हाटसएप, ट्विटर और फेसबुक आज भी नहीं पहुंचा है। मैं इसमें से किसी भी बात को दोहराना नहीं चाहता। एक मनुष्य अपनी सामाजिक पहचानों से ऊपर भी बहुत कुछ होता है। शायद उन पहचानों से बहुत-बहुत ज्यादा। अपने बहुत भीतर।

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हिंदी पट्टी में वामपंथ की एक और पुरानी धार सूखी, बलिया में चितरंजन सिंह का निधन

बीते कुछ साल से वे जमशेदपुर में अपने भाई के यहाँ रह कर इलाज करवा रहे थे. हाल ही में उन्हें बलिया स्थित अपने गाँव लाया गया. उन्हें बनारस में भारती कराया गया था जहां डॉक्टरों ने बताया था कि उनके कुछ अंग काम करना बंद कर चुके हैं.

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