‘साइना’ और ‘जामुन’: पुरुष वर्चस्व को चुनौती देती आज़ाद स्त्रियों की कहानियां


आज भी हमारे समाज में अधिकांश परिवारों में लड़कों का होना अतिआवश्यक माना जाता है क्योंकि लोगों की यह धारणा है कि अगर परिवार में खाली लड़कियां होंगी तो वंश आगे नहीं बढ़ेगा और वृद्धावस्था में माता-पिता की देखभाल करने वाला कोई नहीं होगा क्योंकि लड़कियां तो विवाह करके अपने ससुराल की हो जाती हैं जबकि एक लड़का वंश को आगे बढ़ाता है। वह मां-बाप के बुढ़ापे का सहारा होता है, आदि-आदि। समाज की इस सोच के चलते अल्ट्रासाउंड कराने पर और यह पता चलने पर गर्भवती स्त्री के गर्भ में लड़की है कुछ लोग भ्रूण हत्या करने में लेशमात्र भी संकोच नहीं करते क्योंकि उन्हें तो लड़का चाहिए था, फिर रिपोर्ट में लड़की कैसे आ गई? ये उन्हें बर्दाश्त नहीं होता। उनको कौन समझाए कि चाहे लड़की हो या लड़का इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है क्योंकि ऐसे कई उदाहरण हैं जहां लड़कियों ने अपने मां-बाप की पूरी देखभाल की है और समाज में उनका नाम रोशन किया है!

अभी हाल ही में रिलीज़ हुई अमोल गुप्ता द्वारा निर्देशित फिल्म “साइना” जो कि वास्तविक कहानी पर आधारित है, उसमें एक खुशहाल परिवार दिखाया है जिसमें दो लड़कियां हैं और छोटी वाली लड़की का नाम साइना है। यह फिल्म हमारे देश की मशहूर बैडमिंटन खिलाड़ी साइना नेहवाल की बायोपिक है और ऐसी मानसिकता वाले लोगों पर सीधा प्रहार करती है जो समझते हैं कि लड़के ही खेलकूद जैसे क्षेत्रों में आगे बढ़कर देश का व अपने माता-पिता का नाम रोशन कर सकते हैं जबकि लड़कियां तो खाली बचपन में गुड़िया से खेलने के लिए और बड़ा होकर चूल्हा चौका संभालने के लिए बनी हैं।

साइना की मां, जो एक भूतपूर्व बैडमिंटन खिलाड़ी हैं, बचपन से ही साइना को इस बात के लिए प्रेरित करती हैं कि वह बैडमिंटन के खेल में महारत हासिल करके अपने देश का नाम ऊंचा करे। साइना जी जान से अपनी मां के सपनों को पूरा करने में जुट जाती है और आखिरकार उसकी मेहनत रंग लाती है। वह एक अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी के रूप में अपने को स्थापित करके अपने माता-पिता को गौरवान्वित करती है जिससे यह साबित होता है कि लड़कियां किसी भी मामले में लड़कों से कम नहीं होतीं, यदि उनको लेकर हमारे मन में कोई कुंठा न जन्म ले और उन्हें आगे बढ़ने में हम भरपूर सहयोग दें।

लड़कों और लड़कियों में भेदभाव करने की मानसिकता के पीछे हमारे पितृसत्तात्मक समाज की संकीर्ण सोच है। जिस प्रकार विवाह पश्चात एक लड़का माता-पिता की देखभाल कर सकता है उसी प्रकार विवाह होने पर भी एक लड़की अपने माता-पिता की पूरी देखभाल कर सकती है, अगर वह हमारे पुरुष वर्चस्व वाले समाज के बनाये दकियानूसी नियमों का पालन न करके अपने मां-बाप के संरक्षण की जिम्मेदारी सहर्ष स्वीकार कर ले क्योंकि इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि लड़का ही मां-बाप की बेहतर देखभाल कर सकता है। 

इसी साल रिलीज़ हुई गौरव मेहता द्वारा निर्देशित फिल्म “जामुन” भी समाज की दकियानूसी सोच को बेहद भावनात्मक तरीके से नकारती है जिसमें जामुन प्रसाद (रघुवीर यादव) नाम का एक होम्योपैथिक डॉक्टर अपनी लड़की चेतना व लड़के अमर के साथ रहता है। चेतना बहुत ही परिश्रमी लड़की है जो नर्स की ट्रेनिंग ले रही है और इसके बिल्कुल विपरीत उसका भाई इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने के बावजूद नौकरी न मिलने की वजह से हताश व हीन भावना से ग्रसित है। चेतना की आंखों में भेंगापन होने की वजह से विवाह में परेशानी आने पर जामुन प्रसाद काफी चिंतित रहते हैं।

फिल्म का डायलॉग “कौन से कॉन्स्टिट्यूशन में लिखा है कि लड़की की शादी होना जरूरी है”, चेतना की सकारात्मक सोच व आत्मविश्वास को दिखाता है। चेतना अपने पिता से अत्यधिक प्रेम करती है और अस्वस्थ होने पर उनकी भरपूर देखभाल करती है जबकि उसके भाई अमर को अपने पिता से कोई मतलब नहीं होता। अपने पिता के प्रति चेतना का भावनात्मक रिश्ता व कर्तव्य-पारायणता समाज की इस सोच को एक सिरे से खारिज करती है है कि लड़कियां वृद्धावस्था में माता-पिता का सहारा नहीं होतीं।

लड़कियां भावनात्मक रूप से अपने माता-पिता से ज्यादा जुड़ी होती हैं और उनका उनसे एक अटूट रिश्ता होता है विवाह पश्चात और अधिक गहरा हो जाता है। इसके उलट विवाह पश्चात अधिकतर लड़के अपनी पत्नी और बच्चों की देखभाल करने में इतना व्यस्त हो जाते हैं कि अपने मां-बाप के लिए समय निकालना उनके लिए काफी मुश्किल हो जाता है और कभी-कभी तो वे अपने माता-पिता को बोझ समझकर वृद्धाश्रम में डाल देते हैं जो कि बहुत ही शर्मनाक है।

मेरी जानकारी में ऐसे बहुत से परिवार हैं जहां पर परिवार में खाली लड़कियां हैं और लड़का न होने पर उनके माता-पिता को जरा भी अफसोस नहीं है क्योंकि उन्होंने अपनी लड़कियों की परवरिश बहुत अच्छे ढंग से की है। आज लड़कियां विभिन्न क्षेत्रों में आगे बढ़कर अपने देश का नाम रोशन कर रही हैं और अपने माता-पिता से भी उनके संबंध काफी मधुर हैं, जिससे उन्होंने यह साबित कर दिखाया है कि लड़कों की चाह रखना परिवार की आवश्यकता नहीं है बल्कि हमारे समाज के दकियानूसी विचारों का परिणाम हैl

“बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ” का नारा लगाने वाले देश में अगर आज भी बेटों की ख्वाहिश में भ्रूण हत्याएं हो रही हैं तो ऐसे लोगों पर सख्त कार्रवाई करना हमारी सरकार का प्रथम कर्तव्य है। इसके अलावा समाज में जागरूकता फैलाना अतिआवश्यक है जिससे कि बेटियां होने पर परिवार मे एक खुशनुमा माहौल हो और उनका तहे दिल से स्वागत किया जाए।


रचना अग्रवाल स्वतंत्र पत्रकार हैं


About रचना अग्रवाल

View all posts by रचना अग्रवाल →

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *