Roster Movement: अंबेडकरवाद के नाम पर एक राष्ट्रव्यापी आंदोलन के मूकनायकों की उपेक्षा!


विगत 7 अगस्त को रोस्टर आंदोलन पर बनी एक डाक्युमेंट्री फिल्म की स्क्रीनिंग का पोस्टर जारी हुआ। स्क्रीनिंग का आयोजन दिल्ली में आइटीओ के नजदीक राजा राम मोहन राय मेमोरियल हॉल में किया गया। बहुत सारे लोगों को सोशल मीडिया चैनलों के जरिये जब यह खबर पहुँची कि राष्ट्रव्यापी ऐतिहासिक रोस्टर आंदोलन पर कोई डाक्युमेंट्री फिल्मायी गयी है तो सबके मन में हर्ष एवं उल्लास का भाव तैरने लगा। विशेषकर वो लोग जो इस ऐतिहासिक आंदोलन के शिल्पकार, सक्रिय सहभागी एवं साक्षी रहे हैं। इस स्वागतयोग्य व सराहनीय प्रयास हेतु निर्माता टीम एवं निर्देशक के लिए प्रशंसा के स्वर मन में फूटना स्वाभाविक था।

इस दस्तावेज के निर्माताओं ने स्क्रीनिंग कार्यक्रम के दौरान यह दावा किया कि ये बहुजन एकता की जीत है जिसने प्रचंड बहुमत वाली वर्तमान संघ सरकार को घुटनों पर ला दिया। इसका उत्सव मनाया जाना चाहिए और इतिहास में इस आंदोलन को मुकम्मल तौर पर दर्ज करने के लिए हमें अपनी कहानी खुद कहनी होगी क्योंकि कोई और आपकी कहानी कहने नहीं आएगा। अंबेडकरवादियों या देश के शोषित-वंचित वर्ग की तरफ से हमेशा यह प्रश्न उठाया जाता है कि अब तक जो इतिहास, साहित्य या सिनेमा में जिन कहानियों या घटनाओं  को चित्रित किया गया है वह एकांगी, अभिजात्य एवं सवर्ण वर्चस्व को पोषित एवं स्थापित करने के दृष्टि से किया गया है। बहुजन या सबाल्टर्न दृष्टिकोण को हर जगह उपेक्षित किया गया या फिर उसे एक साजिश के तहत हाशिये पर धकेल दिया गया।

ब्राह्मणवादी शास्त्रों, मिथकों एवं साहित्य में जिन चरित्रों को केंद्र में रख कर साहित्य सृजन किया गया है वो आडंबर, झूठ, कपोल कल्पना एवं तर्कविहीनता के साथ ही साथ वर्ण व्यवस्थावादी वर्चस्व को स्थापित करने की मंशा से रचा गया है। यहां कुछ नायकों के महिमामंडन के चक्कर में यथार्थ एवं तर्क के साथ खड़े चरित्रों को खलनायक, उपद्रवी या विकृत करने का सायास प्रयास किया गया। भारतीय सिनेमा जगत का भी यही चरित्र रहा है जिसके जरिये कुछ खास वर्गों के साहित्य, संस्कृति एवं आचार-व्यवहार को बहुजन समाज के मानस में स्थापित करने का निरंतर प्रयास किया गया है। हाल की फिल्मों में ‘उरी’ ‘द एक्सीडेंटल प्राइम मिनि‍स्टर’, ‘पद्मावत’, ‘बाजीराव मस्तानी’ जैसी कितने फिल्में एक खास वर्ग के चरित्रों को आधारहीन कल्पना एवं इतिहास की मिलीजुली चाशनी में परोस कर बहुजन जनता के जनमानस को सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक रूप से विकृत करने के उद्देश्य से निर्मित हुई हैं। ठीक इसी दौर मे तमिल सिनेमा जगत में समाज की जिन विद्रूपताओं एवं सामाजिक बिंदुओं को केंद्र में रख कर ‘असुरन’, ‘कर्णन’ आदि फिल्में आ रही हैं वो समाज की सच्चाई एवं भारतीय परिवेश को संपूर्णता में प्रस्तुत करने की सार्थक कोशिश कर रही हैं।

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शोषण के विरुद्ध किसी समुदाय या वर्ग विशेष के सामूहिक संघर्षों पर आधारित डाक्युमेंट्री फिल्मों के इतिहास पर नजर डालें तो हम पाएंगे कि दुनिया में शोषण एवं आतंक के साये में सिसकते मानव समुदायों का विस्तृत एवं व्यापक दस्तावेज उपलब्ध है। जारशाही के खिलाफ जर्मनी में शोषण, यातना एवं आतंक की असह्य पीड़ा झेलते यहूदी या राजनीतिक बंदियों के जीवन पर कितनी रोचक एवं मार्मिक डाक्युमेंट्री फिल्में हमारे सामने उपलब्ध हैं जिन्हें देख कर आपके समक्ष उस दौर का पूरा मंज़र जीवंत होकर उपस्थित हो जाता है। यातना एवं संघर्ष के हर सूक्ष्म पहलू को कैमरे में कैद करने की कोशिश इन फिल्मों के निर्माता एवं निर्देशकों के दृष्टिकोण में दिखेगी।

सत्ता के जुल्म से मुझे द्वितीय विश्व युद्ध के कथानक पर बनी डाक्युमेंट्री फिल्म ‘Schindler’s List’ याद आ गयी जिसमें हिटलर की तानाशाही नीतियों एवं आतंक से सिसकते यहूदी समुदाय की दास्तान का चित्रण आपके आंखों को भिगो देने की ताकत रखता है। इसी पृष्ठभूमि पर आधारित फिल्म ‘The Photographer Of Mauthausen’ एक ऐसे समाजवादी बंदी के चरित्र को प्रतिबिंबित करती है जो नाजियों के यातना कैंप में फोटोग्राफर की नौकरी करते हुए कैमरे के निगेटिव रील को चुराता है जिसमें यातना के हर बर्बर पहलू दर्ज हैं ताकि बाद की पीढ़ी वर्तमान क्रूर सत्ता के अमानवीय यातनाजन्य घटनाओं के इस मंजर को इस दस्तावेज के सहारे अपने इतिहास में दर्ज सके।

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इसी तरह वास्तविक घटना पर आधारित फिल्म ‘12 Years of a Slave’ में अमेरिका के आजाद अफ्रीकी-अमेरिकी नवयुवक का वाशिंगटन में अपहरण करके लौसियाना राज्य में गुलाम के तौर पर बेच दिया जाता है जहां वो 12 साल अपने जिंदा बचे रहने एवं आजाद होने के लिए संघर्ष करता है। अफ्रीकी-अमेरिकी गुलामों की असह्य पीड़ा एवं निर्दयता को जितनी व्यापकता एवं मार्मिकता के साथ यह फिल्म बयान करती है मानो पूरा दौर आपकी आंखों के सामने से गुजर रहा हो। दुनिया में वास्तविक घटनाओं पर आधारित ऐसी कई फिल्में निर्मित हुई हैं। इन फिल्मों का जिक्र करने का मकसद यहां यह है कि किसी दौर की ऐतिहासिक घटना या उससे जुड़े पहलुओं को निर्माता कैसे अपने गंभीर शोध एवं व्यापक दृष्टिकोण से उसे परदे पर प्रदर्शित करता है ताकि उस दौर के आंदोलित समाज के परिवेश को आप संपूर्णता में देख-समझ सकें। भारत की भी कुछ डाक्युमेंट्री फिल्मों को इस संदर्भ में देखा जा सकता है।

उपर्युक्त संदर्भ में जब मैं द शूद्र एवं न्यूज बीक (पहले द शूद्र नाम से चलने वाला यू ट्यूब चैनल: संपादक) द्वारा ज्वाइंट फोरम फॉर एकेडमिक एवं सोशल जस्टिस के सहयोग से निर्मित रोस्टर मूवमेंट डाक्युमेंट्री फिल्म को देखता हूं तो कई सहज सवाल में मन में कौंधने लगते हैं। फिल्म निर्माताओं का शोध इतना कमजोर, सतही एवं सीमित है कि वह रोस्टर आंदोलन की हलचलों एवं घटनाओं को संपूर्णता में समाहित करने में विफल है। सर्वविदित है कि रोस्टर आंदोलन का चरित्र राष्ट्रव्यापी एवं सुदूर ग्रामीण अंचल तक फैला हुआ था। यह डाक्युमेंट्री फिल्म पूर्णतः दिल्ली की सड़कों पर हुई हलचलों तथा उसमें शामिल, चिन्हित एवं चयनित कुछ अकादमिक एवं राजनीतिक चेहरों के इर्द-गिर्द घूमती रहती है। इसमें आपको पूरब, पश्चिम एवं दक्षिण भारत की गलियों व सड़कों पर आंदोलित चेहरे एवं सामाजिक-राजनीतिक जनसंगठन, उनके नारे, झंडे, पोस्टर-बैनर तथा उनके बयान नदारद हैं। दिल्ली से बाहर उत्तर भारत के प्रमुख शहरों में हुए आंदोलन की घटनाओं का चलताऊ जिक्र एवं उससे जुड़े फोटो क्लिप की एक झलक आपको जरूर देखने को मिलेगी लेकिन उनका चेहरा एवं संगठन गायब कर दिया गया है जो लोगों को घरों एवं कालेजों से मोबिलाइज करके सड़कों पर लाठियां खा रहे थे, रेल रोक कर, चक्का जाम करके आज भी मुकदमे झेल रहे हैं।

भारतीय इतिहास लेखन परंपरा में जिस तरह सबाल्टर्न गायब हैं या फुटनोट में दर्ज हैं वैसे ही इस फिल्म में दिल्ली व उससे बाहर के अंबेडकराइट या सोशलिस्ट आदि विभिन्न धारा के लोगों का योगदान एवं आंदोलन यहां गायब है।

कैमरे के लेंस के पीछे एक दिमाग एवं दृष्टिकोण होता है जो यह तय करता है कि किस गतिविधि एवं चेहरे को कैद करना है और कहां फोकस करना है। उसी दिमाग की उपज यह डाक्युमेंट्री फिल्म है जिसके बारे में ‘ज्वाइंट फोरम फॉर एकेडमिक एवं सोशल जस्टिस’ का गठन करने वाले कई प्रमुख सदस्यों तथा संगठन के नेताओं को भनक भी नहीं लगी कि ऐसी कोई फिल्म बन रही है या उसका प्रस्ताव आया है। न ही फिल्म निर्माताओं ने यह जानने एवं शोध करने की जहमत उठायी कि ज्वाइंट फोरम के हिस्सेदार कौन-कौन हैं। आंदोलन खड़ा करने के लिए ज्वाइंट फोरम के गठन की जरूरत क्यों पड़ी? देश के विभिन्न हिस्से में काम करने वाले जनसंगठनों के नेताओं को किस समझदारी के तहत एवं समान मुद्दों पर फोरम के प्लेटफॉर्म से जोड़ा गया? इस फिल्म को देखने के बाद ज्वाइंट फोरम से जुड़े वे सारे लोग एवं संगठन अपने आप को अंबेडकर के ‘बहिष्कृत भारत’ जैसा महसूस कर रहे हैं।  

200 प्वाइंट रोस्टर आंदोलन के पीछे मूल दर्शन एवं अवधारणा यह थी कि सभी जातियों एवं वर्गों की भागीदारी विश्वविद्यालयों तथा उसके नीति-निर्णायक जगहों पर सुनिश्चित हो ताकि विश्वविद्यालय का प्रांगण लोकतांत्रिक एवं हर प्रकार से समावेशी हो, लेकिन जो चैनल या व्यक्ति अंबेडकराइट होने का दावा करते हैं और उपर्युक्त अवधारणा की जोर-शोर से वकालत करते हैं उन्हीं का दृष्टिकोण एवं चरित्र यहां अलोकतांत्रिक एवं बहिष्कृत करने वाला साबित हुआ। बहुजनों की सामूहिक भावना से लैस राष्ट्रव्यापी रोस्टर आंदोलन का दस्तावेजीकरण अंबेडकरवादियों द्वारा इस तरह से चयनित एवं तंग नजरिये से तैयार किया जाएगा तो बहुजन आंदोलन की एकता कमजोर होगी और पुनः राष्ट्रीय फलक पर रोस्टर सरीखा कोई अन्य आंदोलन खड़ा नहीं हो पाएगा।  

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यह डाक्युमेंट्री फिल्म अंबेडकरवादी सिनेमा के मूल्यों एवं मानदंडों पर पूरी तरह से विफल है क्योंकि इस आंदोलन के जो मूकनायक थे, जो नींव की पत्थर की तरह चुपचाप रोस्टर आंदोलन के शिल्प एवं संरचना को मजबूत कर रहे थे, नये-नये नारे गढ़ रहे थे, पोस्टर-बैनर बनवा-चिपका रहे थे, कविताएं, कार्टून एवं गीत रच रहे थे तथा लोगों को घरों से निकाल कर सड़कों पर लामबंद कर रहे थे वे सभी गायब एवं उपेक्षित कर दिये गए हैं। वह आंदोलन मंडी हाउस से जंतर-मंतर के बीच सड़कों पर नारे लगाते हुए चहलकदमी करने वाले चंद चेहरों तक सीमित नहीं था बल्कि उसमें पूरब-पश्चिम-दक्षिण के सैकड़ों चेहरे एवं आवाजें शामिल थीं। अतः ये फिल्म रोस्टर आंदोलन की भावना को बहुत संकुचित एवं सीमित दायरे में प्रस्तुत करती है जोकि बहुजन एकता की भावना को कमजोर करने में सहायक साबित होगी।

ब्राह्मणवादी अभिजात्य मीडिया एवं सिनेमा की तरह संकुचित, व्यक्ति-केंद्रित एवं एकपक्षीय नजरिये से अंबेडकरवादी कैमरे भी बहुजन आंदोलन की तस्वीर प्रस्तुत करेंगे तो बाबा साहब का बहुरंगी, समतामूलक एवं समावेशी भारत बनाने का सपना महज सपना ही रह जाएगा। इस तरह की संकुचित प्रवृति एवं व्यक्तिवादी विचलन अंबेडकरवाद की न्यायिक अवधारणा एवं सिद्धांत को कुंद एवं विकृत करने में सहायक सिद्ध होंगे।


(लेखक  समाजवादी विमर्श वेब पत्रिका के संपादक एवं जेएनयू के पूर्व शोध-छात्र हैं।)


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