करीब पौने दो सौ साल पहले जन्मे नगेन्द्रनाथ गुप्त देश के पहले बड़े पत्रकारों में एक थे और उन्होंने 1857 के बाद से लेकर गांधी के उदय के पूर्व का काफी कुछ देखा और बताया है. वे ट्रिब्यून के यशस्वी सम्पादक थे तो रवीन्द्रनाथ के दोस्त और विवेकानन्द के क्लासमेट. उनके संस्मरणों की किताब वरिष्ठ पत्रकार और चम्पारण के मूल निवासी अरविन्द मोहन ने ढूंढकर निकाली और अनुवाद करके प्रकाशन के लिए दी है. सेतु प्रकाशन से आ रही इस किताब का एक अंश उन्होंने प्रकाशन पूर्व छपने के लिए जनपथ को भेजा है.
संपादक
यह एक अद्भुत किताब है. इतिहास, पत्रकारिता, संस्मरण, महापुरुषों की चर्चा, शासन, राजनीति और देश के विभिन्न हिस्सों की संस्कृतियों का विवरण यानि काफी कुछ. लेकिन सबसे महत्वपूर्ण है इसका कालखंड. पढ़ने की सामग्री के लिहाज से 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद से देश के राजनैतिक क्षितिज पर गांधी के उदय तक का दौर बहुत कुछ दबा-छुपा लगता है. अगर कुछ उपलब्ध है तो उस दौर के कुछ महापुरुषों के प्रवचन, उनसे जुड़ा साहित्य और उनके अपने लेखन का संग्रह. लेकिन उस समय समाज मेँ, खासकर सामाजिक जागृति और आध्यात्मिक विकास के क्षेत्र में काफी कुछ हो रहा था. अंग्रेजी शासन स्थिर होकर शासन और समाज में काफी कुछ बदलने में लगा था तो समाज के अन्दर से भी जवाबी शक्ति विकसित हो रही थी जिसका राजनैतिक रूप गांधी और कांग्रेस के साथ साफ हुआ. यह किताब उसी दौर की आंखों देखी और भागीदारी से भरे विवरण देती है. इसीलिए इसे अद्भुत कहना चाहिए.
एक साथ तब का इतना कुछ पढ़ने को मिलता नहीं. कुछ भक्तिभाव की चीजें दिखती हैं तो कुछ सुनी सुनाई. यह किताब इसी मामले में अलग है. इतिहास की काफी सारी चीजों का आंखों देखा ब्यौरा, और वह भी तब के एक शीर्षस्थ पत्रकार का, हमने नहीं देखा-सुना था. इसमें 1857 की क्रांति के किस्से, खासकर कुँअर सिंह और उनके भाई अमर सिंह के हैं, लखनऊ ने नवाब वाजिद अली शाह को कलकता की नजरबन्दी के समय देखने का विवरण भी है और उसके बाद की तो लगभग सभी बडी घटनाएं कवर हुई हैं. स्वामी रामकृष्ण परमहंस की समाधि का ब्यौरा हो या ब्रह्म समाज के केशव चन्द्र सेन के तूफानी भाषणों का, स्वामी विवेकानन्द की यात्रा, भाषण और चमत्कारिक प्रभाव का प्रत्यक्ष ब्यौरा हो या स्वामी दयानन्द के व्यक्तित्व का विवरण. ब्रिटिश महाराजा और राजकुमार के शासकीय दरबारों का खुद से देखा ब्यौरा हो या कांग्रेस के गठन से लगातार दसेक अधिवेशनों में भागीदारी के साथ का विवरण- हर चीज ऐसे लगती है जैसे लेखक कोई पत्रकार न होकर महाभारत का संजय हो.
मूल पुस्तक अंग्रेजी में यहाँ पढ़ें
2015.233741.Reflections-Andकविवर रवीन्द्रनाथ टैगोर के लेखन अध्ययन मेँ प्रत्यक्ष भागीदारी हो या लाला लाजपत राय का शुरुआत करके शहीद होने का विवरण, ब्रह्म समाज का तीन धड़ों का आन्दोलन हो या आर्य समाज का दो धड़ों वाला, हर चीज एक काबिल पत्रकार के हिसाब से लिखी और बताई गई है, न ज्यादा लम्बी न ज्यादा छोटी. और जितने व्यक्तित्व से सीधे परिचय के ब्यौरे हैं वह हैरान करने वाला है. जो बडे नाम ऊपर लिए गए हैं, उनके अलावा कांग्रेस का लगभग पूरा शुरुआती नेतृत्व लेखक के निजी परिचय और घनिष्ठता वाला है. इसमें ए. ओ. ह्यूम, डब्लू. सी. बनर्जी, दादा भाई नौरोजी, आर. सी. दत्त, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, फिरोजशाह मेहता, जस्टिस रानाडे समेत काफी लोग तो हैं ही, गांधी के ठीक पहले वाला बड़ा नेतृत्व भी शुरुआत करता दिखता है. बाल गंगाधर तिलक, गोपाल कृष्ण गोखले, लाला लाजपत राय और पंडित मदनमोहन मालवीय जैसे लोगों के सक्रिय होने और उभरने का ब्यौरा सुखद और आश्चर्य वाला लगता है. और पत्रकार होने के चलते लेखक एक पक्ष पर नहीं रुक सकता था सो अनेक वायसरायों और अंग्रेज अधिकारियों के बारे में भी, अनेक जजों और दूसरे पदाधिकारियों के बारे में भी ब्यौरे हैं और आश्चर्यजनक ढंग से छोटे-छोटे और दिलचस्पी भरे ही हैं. राष्ट्रगान वाले बंकिम हैं पर सीधे विवरण में नहीं हैं. भगिनी निवेदिता विस्तार से आई हैं पर श्रद्धांजलि लेख के रूप में.
इनके अलावा पचासों और लोग आए हैं जिनका अलग-अलग क्षेत्रों में काफी योगदान है. कश्मीर के महाराजा प्रताप सिंह हैं तो दरभंगा के महाराजा रामेश्वर सिंह, पंजाब के दिग्गज सरदार दयाल सिंह मजीठिया है तो सिन्ध के दयाराम जेठाराम, पारसी उद्यमी मालबारी हैं तो जमशेदजी टाटा भी हैं, रतन टाटा भी हैं. आर्य समाज आन्दोलन को परवान चढ़ाने वाले डीएवी आन्दोलन के लाला हंस राज हैं तो गुरुकुल कांगड़ी वाले स्वामी श्रद्धानन्द भी. भारतीय गौरव को साथ लिए काम करने वाले आईसीएस श्रीपाद बाबाजी ठाकुर हैं तो ज्योतीन्द्रनाथ टैगोर भी और कई अंग्रेज अधिकारी भी. बांग्ला साहित्य और पत्रकारिता के काफी लोगों का व्यक्तिगत किस्म का जिक्र है तो कई सिर्फ पढ़ने वालों और अच्छी गप करने वालों का किस्सा भी है. ऐसे लोगों में रवि बाबू की रचनाओँ का शुरुआती मूल्यांकन और प्रकाशन तक रुकवाने वाले उनके और लेखक के मित्र प्रिय नाथ सेन (जिनका अपना लिखा कुछ भी प्रकाशित नहीं है और जो किसी पोस्ट पर न थे) की कहानी भी दिलचस्प है.
बल्कि जितने अनजान लोगों का किस्सा है वह उतना ही दिलचस्प है. इनमें छपरा के फकीर और अमृतसर के खराद कारीगर भाई राम सिंह का महारानी विक्टोरिया का करीबी बनने का किस्सा भी शामिल है. और लेखक को ज्यादा कुछ इसलिए भी मालूम था क्योंकि वह अनपढ़ राम सिंह की तरफ से महारानी के पत्रों का जबाब लिखता था. भागलपुर का गपोड़ पुलिसिया, उर्दू फारसी के कई गुमनाम शायर, ब्रह्म समाज और आर्य समाज के प्रचारक जैसे कई लोग किताब में आए हैं. पर यह बताने मेँ शर्म है लेकिन हर्ज नहीं है कि पत्रकारिता के पेशे में अपना पुरखा होने के बावजूद मुझे नगेन्द्रनाथ गुप्त के और उनकी इस किताब के बारे मेँ मालूम न था. उनकी अन्य रचनाओं के बारे में भी मालूम न था. और जब इस किताब से परिचय बना तो उनकी बांग्ला साहित्यिक रचनाओं को छोड़कर बाकी के बारे में काफी कुछ जान गया. और इस किताब से बनी छवि और गहरी हुई.
लेखक की मौत लगभग अस्सी साल की उम्र मेँ 1940 में अर्थात आज से करीब अस्सी साल पहले हुई. इसके अलावा उनका परिचय ज्यादा बताने का कोई खास मामला नहीं है क्योंकि यह संस्मरणों और आत्मकथा जैसी किताब है और जो भी इसे पढ़ेगा उसे नगेन्द्रनाथ गुप्त का परिचय होगा, वह उनसे बंधा महसूस करेगा. पर स्वामी विवेकानन्द का क्लासमेट होना, रवि बाबू का मित्र होना, केशब चन्द्र सेन से रिश्तेदारी में होना, और इतने महापुरुषों के सीधे सम्पर्क में होना एक स्वप्न जैसा जीने का मामला तो है ही. पर इसमें अच्छे और प्रतिभावान लोगों की पहचान की क्षमता और उनसे मैत्री बरकरार रखने लायक काबिलियत रखना तो नगेन्द्रनाथ गुप्त नामक व्यक्ति का ही गुण था, तभी उनसे अनपढ़ भाई राम सिंह ब्रिटिश महारानी के पास चिट्ठियाँ लिखवाते थे और महारानी विक्टोरिया के निधन समेत अनेक बड़े अवसर पर उनसे प्रस्ताव भी लिखवाए गए. और उस जमाने में अगर नगेन्द्र नाथ गुप्त अपने पिता तथा आसपास के लोगों की तरह सरकारी नौकरी में न जाकर पत्रकारिता की मुश्किल दुनिया में आते हैं तो यह उनके व्यक्तित्व की खास बनावट का ही मामला था. और यह व्यक्तित्व बनाने में उनके बचपन, माताविहीन घर के माहौल, तबादले वाली नौकरी करते जज पिता समेत काफी सारी चीजों का हाथ था.
मुझे उनकी जिन्दगी और इस किताब मेँ दिलचस्पी उनके पत्रकार होने के अलावा इस बात से भी हुई कि वे मेरे शहर मोतिहारी में पैदा हुए थे और दो-दो बार रहे. वे आरा, छपरा, पटना और भागलपुर में भी रहे. जो विवरण उन्होंने दिए हैं वह मेरे ऐसे लोगों के लिए तो विलक्षण हैं (जैसे यही तथ्य कि मोतिहारी का मौजूदा शहर 1934 के भूकम्प के बाद नए सिरे से बसा है जबकि पुराना मुख्य शहर आज के मोतिहारी के पूरब की तरफ था) लेकिन वे श्री गुप्त के व्यक्तित्व की बनावट के रहस्य भी खोलते हैं. भागलपुर के बाहर की वीरान गुफा की यात्रा या जंगली सूअर को गोली मारना या बाढ़ से भरी गंगा में आरा से पार करके छपरा पहुंच जाना बताता है कि वे सामान्य जीवन जीने वाले न थे. 1857 की बगावत के प्रत्यक्षदर्शियों से सुने किस्से हों या लड़ाई वाली जगहों और मकानों को खुद जाकर देखने के ब्यौरे, सब पर्याप्त दिलचस्प हैं और किशोर नगेन्द्रनाथ ने इतनी जानकारियां जुटा ली थीं कि अमर सिंह पर पूरा उपन्यास लिख दिया था. इन दिलचस्पियों ने भी उनके आगे का रास्ता तय किया.
1870 के दशक के कलकत्ता के विवरण भी कम रोचक नहीं हैं. किताब की रोचकता लेखक के गुजारे जीवन के भूगोल से भी बनती है. वे बंगाली थे, काफी समय और पढ़ाई बंगाल और कलकत्ता की थी, बाइस तेइस साल की उम्र में सिन्ध पहुंच गए, काफी समय रहे, फिर पंजाब में लम्बा अरसा बिताया, घूमकर कलकत्ता आए और कुछ समय रहकर मुम्बई रहने लगे और वहीं दम तोडा. आज हम बान्द्रा को मुम्बई का मुहल्ला न गिनें, तो बान्द्रा क्या उसके आगे थाणे तक के लोग डंडा लेकर पीछे पड़ जाएंगे. लेकिन लेखक ने सदा बान्द्रा को बम्बई से बाहर ही बताया है. और उनके बताए भूगोल से आज के पटना, कराची, हैदराबाद, सिन्ध, कोलकाता और मुम्बई को समझना कठिन है. पर यह कठिनाई दिलचस्प है. सडकों के नाम, इलाकों का पुराना ब्यौरा और रहने वालों के किस्से पांच-छह पीढियों में ऐसे बदले हैं कि समझने में काफी अक्ल लगानी होती है.
ये सब एक पहेली की तरह भी हैं. जैसे मुझे ही अपने शहर मोतिहारी की पुरानी बनावट का अन्दाजा लगते ही सिर्फ नगेन्द्रनाथ गुप्त और उनके जज पिता मथुरानाथ गुप्त का आवास वाला इलाका समझ आते ही प्रसिद्ध अंग्रेजी लेखक जॉर्ज ऑरवेल की जन्मस्थली का भी अन्दाजा हो गया, जो श्री गुप्त के मोतिहारी छोड़ने के बाद उसी शहर के उसी इलाके में जन्मे थे. उनके पिता भी मोतिहारी में तैनात थे. लेकिन उसके बाद आए 1934 के भूकम्प ने शहर को मटियामेट कर दिया था. सो उसके बाद के हमारे जैसे लोगों के लिए पुराना शहर समझना आसान हुआ. सो जो कार्नवालिस रोड, टाउनहॉल, मैदान, आर्य समाज भवन जैसे लोकेशन और नाम को आधुनिक हिसाब से समझ जा़एगा उसे अतिरिक्त आनन्द आएगा. इसीलिए किताब में आए नाम को उसकी आगे की वंशावली से और जगह को नए नामों से आज की स्थिति में लाने का प्रयास नहीं किया गया है, वह बहुत कुछ हमारे जैसे डेढ़ पौने दो सौ साल बाद के शहरों को जानने वाले लोगों के वश का है भी नहीं. पर पूरब, पश्चिम और उत्तर भारत के प्रमुख शहरों, व्यक्तियों, घटनाओं, आन्दोलनों, भाषा और रीति-रिवाजों के वर्णन वाली यह किताब बहुत खास बन जाती है. वे दक्षिण में नहीं रहे पर कांग्रेस के अधिवेशनों के ब्यौरे के क्रम में दक्षिण के प्रमुख लोगों का ठीकठाक जिक्र हुआ है.
अपनी पत्नी द्वारा सिन्धी सीख लेने और सिन्धी की बारीकियों का विवरण भले कई बार पराया लगता है लेकिन सिन्ध और सिन्धी अब भी हमारे जीवन का हिस्सा हैं. सिन्धी रीति-रिवाजों, संस्थाओं के विकास और प्रमुख व्यक्तियों का ज्यादा ही खास विवरण पुस्तक में है. और नगेन्द्रनाथ गुप्त तो उस दौर का आंखों देखा और खुद का भोगा विवरण देते जब कराची, हैदराबाद, शिकारपुर और दूसरे शहर पढ़ाई, कारोबार और राष्ट्रीय चेतना का विकास करने की शुरुआत ही कर रहे थे. कई बार व्यापार और वकालत या सरकारी अफसरी करने वाले जिस व्यक्ति की चर्चा है उसकी पांच-छह पीढ़ी के नीचे/आगे आज कौन है, कितना बड़ा कारोबार है यह भी जानना मजेदार है. पर स्थानों और सडकों के नाम की तरह यह भी हमारे वश की चीज नहीं है. हम तो अपने मित्र विश्राम वाचस्पति के पुरखे स्वामी श्रद्धानन्द के लाला मुंशीराम वाला ब्यौरा पढ़कर ही निहाल हैं. तब के ऐसे महापुरुषों के सारे ब्यौरे और उनके नाम पर सड़क, भवन, मुहल्ले का नाम, संस्थाओ़ का नाम जैसे हजारों बड़े बदलाव हुए हैं. न सबको गिनवाना सम्भव है न जरूरी. पर रुस्तमजी और टाटा परिवार के तब के ब्यौरे मजेदार हैं. यह जानना और दिलचस्प है कि रतन टाटा बम्बई छोड़कर कराची पढ़ने आए थे और जिस शिक्षक के साथ रहकर पढ़े वे बाद में टाटा संस के डायरेक्टर हो गए. उन्होंने बंगाल का, बंगाली परम्परा और पोशाक का, पढ़ाई-लिखाई और सांस्कृतिक गतिविधियों का, तब की पत्रकारिता के प्रसंगों का भरपूर विवरण दिया है तो सिन्ध और पंजाब का भी उस दौर का कुछ नहीं छूटा है. और जब मैं बार-बार भरपूर और काफी सारी बातों का जिक्र कर रहा हूं तो उसका कारण सिर्फ इतना है कि ज्यादातर ब्यौरे नए हैं और महापुरुषों से जुड़े ऐसे ब्यौरे बाहर ज्ञात नहीं हैं.
रामकृष्ण का प्रसंग भी अगर है तो आंखों देखा, वाजिद अली शाह को देखने का किस्सा है तो दिलचस्प. लेकिन इतने प्रसंगों, व्यक्तियों, आन्दोलनों, जगहों और संस्थाओं का विवरण एक अपेक्षाकृत छोटी किताब में जुटाना लेखक के बड़ा पत्रकार होने का भी प्रमाण है. कब, कहां, किससे, क्यों मिलना है, क्यों वहां पहुंचना है, रोचकता बनाए रखने के लिए क्या विवरण देना है और कब आम आदमी की खबर लेनी है कब खास की, यह सबसे अच्छे पत्रकार की निशानी है और नगेन्द्रनाथ गुप्त ने इस किताब के जरिए यही साबित किया है. उनको मालूम है कि भागलपुर में घूमते रहने वाले जर्मन भिखमंगे की कहानी लाखों हिन्दुस्तानी भिखमंगों से अलग और खास होगी, एक फकीर द्वारा खुद को अपमानित किये जाने पर बदतमीज अंग्रेज अधिकारी के दांत तोड़ना एक सामान्य दिलचस्पी का किस्सा है. किसी बदतमीज अंग्रेज अधिकारी को मजिस्ट्रेट द्वारा भरी अदालत में सार्वजनिक रूप से शर्मिन्दा करा देना ही बड़ी खबर है. और जिन चीजों की पुष्टि न हो या जिम्मा लेकर कहना उचित न हो पर कहानी के हिसाब से वह जरूरी हो तो उस तथ्य और बात को कैसे प्रस्तुत करें यह अगर किसी को जानना हो तो कश्मीर के महाराजा प्रताप सिंह वाले प्रसंग जैसे कितने ही प्रसंग किताब में हैं.
एक विवरण कुछ ज्यादा विस्तार से आया है, मैथिली कवि विद्यापति की कविताओं और गीतों का संग्रह करने का. छह साल लगाकर नगेन्द्रनाथ गुप्त ने इस काम को पूरा किया जबकि पहली डेढ़ सौ कविताओं की हस्तलिखित पांडुलिपि महाराज दरभंगा ने उपलब्ध कराई, कविवर चन्दा झा का सहयोग उपलब्ध कराया और बंगीय साहित्य परिषद के अध्यक्ष ने अपने पैसे से पुस्तक का प्रकाशन कराया. असल में, यह सामान्य काम नहीँ था. इसमें बांग्ला-मैथिली सम्बन्धों को निभाना और स्पष्ट करना था, कविताओं में आई अशुद्धता को दूर करना था और आधुनिक प्रकाशन में विद्यापति को पहली बार प्रस्तुत करना था. इस काम के महत्वपूर्ण ब्यौरों के साथ यह भी साफ करते हैं कि अगर बंगाल के लोग विद्यापति को जमाने से अपना कवि मानते थे, उनकी भाषा को बांग्ला की एक बोली ‘ब्रजबोली’ बताते थे तो यह विद्यापति को हड़पने का षडयंत्र न होकर एक भ्रम और स्नेह का मामला था और इसमें सदियों से मिथिला जाकर संस्कृत शिक्षा लेकर लौटे बंगाली विद्वानों का विद्यापति (और गोविन्द दास झा) की कविताओं और गीतों पर लट्टू होकर घर लाने का प्रेममय सम्बन्ध था. और यह घनिष्ठता इतनी थी कि श्री गुप्त को ब्रह्मपुर जैसे ठिकानों पर भी विद्यापति के कई गीत और कविताएं मिलीं जो मिथिला में उपलब्ध न थीं. नगेंद्रनाथ गुप्त का यह काम एक महान कवि की रचनाओं का संग्रह और सम्पादन तो करता है, एक इतिहास को स्पष्ट करता है, एक विवाद को विद्वतापूर्ण ढंग से सुलझाता है.
किसी पत्रकार की सबसे बड़ी परीक्षा पक्षधरता से होती है, निष्पक्षता और अपनी पक्षधरता के बीच के संतुलन से होती है. श्री गुप्त कहीं असत्य और बेईमानी या अंग्रेजी अत्याचार के साथ नहीं होते और हर उपयुक्त मौके पर गलती या असत्य को रेखांकित करने के साथ सत्य के पक्ष में खड़ा रहने का साहस दिखाते हैं. ऐसे अनेक प्रसंग किताब में हैं. बल्कि अपने अखबारों ‘फीनिक्स’ और ‘ट्रिब्यून’ वगैरह के साथ कई बार किसी प्रसंग में अभियान चलाकर सत्य का साथ देने के विवरण भी हैं. कई बार अंग्रेज अधिकारियों की घेरेबन्दी करके उनके खिलाफ कार्रवाई कराने या सरकार के फैसले बदलवाने के प्रसंग हैं. फिर तथ्यों को उठाते हुए कितनी और कैसी सावधानियां रखनी होती हैं इसके कई प्रसंग उन्होंने अपने जीवन से दिये हैं. संवाददाता को अपनी खबर के लिए कैसे खबर वाले बड़े लोगों से नजदीकी रखनी पड़ती है और टिप्पणी करने वालों को दूरी बनाकर रखना होता है यह प्रकरण भी है, व्यक्तिगत उदाहरण वाले. और जिस दौर के पत्रकार नगेन्द्रनाथ गुप्त हैं उसमें निडरता शायद सबसे बड़ा गुण थी जो उनमें कूट-कूट कर भरी लगती है. वीडियो और फोटो के जमाने वाली पत्रकारिता से काफी पहले के पत्रकार श्री गुप्त ने हर किसी का परिचय देते हुए जरूर उसके डील डौल, मुखाकृति और रंग रूप की चर्चा की है. इसमें हर बार इलाका, जाति और मजहब के साथ की पहचान भी रेखांकित करने की कोशिश हुई है. कई बार यह थोड़ा अटपटा लगता है. पर एक तो तब फोटो का चलन भी नहीं था और दूसरा समाज में परिचय का ये सब आधार थे. इसके आधार पर हम आज भी किसी को पहली बार मिलते हुए जांचते हैं. लेखक ने सम्भवत: आकृति विज्ञान भी पढ़ा था या रवि बाबू के भाई ज्योतिन्द्रनाथ टैगोर से सीखा था. उनके इस रूप की चर्चा भी लेखक ने बहुत सम्मान के साथ की है. पर आज यह नहीं चलेगा कि आप चमड़ी के रंग और चेहरे की नस्लीय आकृति को आधार बनाकर किसी को पहचानने या उसकी पहचान बताने की कोशिश करें.
यह किताब नगेन्द्रनाथ गुप्त के दौर के ही एक अन्य पत्रकार अब्दुल हलीम शरर की किताब ‘गुजिश्ता लखनऊ’ (पुराना लखनऊ) की याद दिलाती है. लखनऊ के जीवन और संस्कृति पर शरर साहब के अखबारी कॉलम को किताब का रूप देकर उसे तैयार किया गया है तो यह किताब भी श्री गुप्त द्वारा 1926 से 1931 के बीच प्रसिद्ध पत्रिका ‘मॉडर्न रिव्यू’, इंडियन नेशन, पटना और हिन्दुस्तान रिव्यू के लेखों\संस्मरणों के आधार पर बनी है. जब दैनिक अखबार निकालने की जिम्मेवारी और एक अलग किस्म की सक्रिय पत्रकारिता से वे मुक्त हुए तो अपने मित्र सच्चिदानन्द सिन्हा (संविधान सभा के पहले अध्यक्ष) और मॉडर्न रिव्यू के सम्पादक रामानन्द चटर्जी के कहने से उन्होंने संस्मरण और पत्रकारिता के आत्मकथात्मक प्रसंगों को लिखा. बल्कि एक दौर में मॉडर्न रिव्यू का कोई अंक नहीं मिलता जिसमें उनका लिखा कुछ न कुछ न हो. इनको किताब का रूप सच्चिदा बाबू ने ही दिया. और यह किताब कितना महत्वपूर्ण होती जाएगी इसका अन्दाज उन्हीं जैसे कुछेक लोगों को होगा. अगर पुराना लखनऊ एक क्लासिक है तो यह किताब भी उससे कम नहीं है. उम्मीद है कि हिन्दी के पाठक इसका स्वागत जोरदार ढंग से करेंगे.
अरविंद मोहन वरिष्ठ पत्रकार हैं, प्रस्तुत समीक्षानुमा लेख पुस्तक की उनके द्वारा लिखी गई भूमिका है।