इस सिन्‍ड्रेला को अपनी रिहाई के लिए किसी शहज़ादे का इंतजार नहीं है!


तिलोत्तमा शोम और विवेक गोम्बर की फिल्म ‘इज़ लव एनफ़? सर’ नवम्बर 2020 में नेटफ्लिक्स पर रिलीज़ हुई। इससे पहले यह फिल्म 14 मई 2018 को कॉन फिल्म फेस्टिवल में भी प्रदर्शित हो चुकी है। इस फिल्म को दर्शकों की ओर से ढेर सारा प्यार और प्रोत्साहन मिल रहा है। विशेषकर इसमें ‘रत्ना’ का किरदार निभाने वाली तिलोत्तमा शोम की भूमिका को खूब सराहा जा रहा है।

तिलोत्तमा ने अपने करियर की शुरुआत 2001 में आई ‘मॉनसून वेडिंग’ से की थी। इसके अलावा उन्होंने शैडो ऑफ टाइम, शंघाई और किस्सा में भी अभिनय किया। उनकी फिल्म ‘ए डेथ इन द गूंज’ के लिए उन्हें 2014 का 63वां बेस्ट सपोर्टिंग एक्ट्रेस का फिल्म फेयर पुरस्कार मिला। दो दशक के अपने फिल्मी करियर में उन्होंने हिन्दी, अंग्रेजी, बांग्ला और पंजाबी की कई फिल्मों में छोटी-बड़ी भूमिकाएं निभायी हैं।

तिलोत्तमा शोम और विवेक गोम्बर अभिनीत ‘इज़ लव एनफ़? सर’ इसे अन्य हिन्दी फिल्मों से इस मायने में अलग करती है कि अब तक हम जो हिन्दी फिल्में देखते रहे हैं उसमें यह होता है कि प्रेम हो जाने के बाद हर तरह की दूरी, हर तरह के अंतर को पार करते हुए, हर सामाजिक रूढ़ि को धता बताते हुए प्यार करने वाले मिल जाते हैं। रूढ़ियों को पार करके यह मिलना अपने आप में एक परिवर्तनकारी, यथास्थिति को तोड़ने वाली गतिविधि साबित होती है। प्यार करना भी एक क्रांतिकारी गतिविधि मालूम पड़ती है। पर इस फिल्म में ऐसा नहीं होता जैसा कि हम अपने बचपन से देखते आए हैं। इसमें थोड़ा अलग यह होता है कि स्त्री यह सवाल उठाती है कि क्या प्यार ही पर्याप्त है? इज़ लव एनफ़?

फिल्म में महाराष्ट्र के एक पिछड़े इलाके से आने वाली यह स्त्री रत्ना जो शादी के चार महीने बाद ही विधवा हो गई है, वह मुंबई में रहकर एक व्यक्ति (विवेक गोम्बर जिन्होंने आश्विन की भूमिका निभाई है) के घर पर रहते हुए घरेलू कामगार के तौर पर काम करती हैं। बहन को पढ़ाना चाहती है, खुद का फैशन डिजाइनर बनने का सपना पूरा करना चाहती है। उसका नियोक्ता आश्विन, जो मुंबई में आर्किटेक्ट का काम करता है, बहुत ही सज्जन इंसान है। हाल ही में उसकी शादी टूटी है। धीरे-धीरे वह अपनी इस कामवाली बाई को प्यार करने लगता है।

रत्‍ना अपनी अलग पहचान बनाना चाहती है। किसी का एहसान लेना उसके लिए स्वीकार्य नहीं है भले ही वह कितनी भी उदारता से क्यों न दिया जा रहा हो। किसी के अधीन होकर सुविधापूर्ण जीवन अपना लेने के बजाय, अपनी अलग हैसियत रखते हुए तकलीफ़ उठाना उसे स्वीकार्य है। इसी वजह से वह अपने मालिक और प्रेमी आश्विन का प्रेम प्रस्ताव ठुकरा कर उसका घर छोड़कर चली आती है।

उसकी इस मदद के लिए रत्ना उसे धन्यवाद कहने के लिए उसके घर आती है पर वह वहां नहीं मिलता। उसी समय उसका फोन आता है। रत्ना, जो पूरी फिल्म में उसे ‘सर’ कहकर संबोधित करती रही है, वह अब उसे आश्विन कहकर पुकारती है। उनके बीच अब बराबरी का रिश्ता है। दोस्ती का रिश्ता है, इसलिए वह स्वयं को उसके बराबर रखके बात कर सकती है।

ज्यादातर हिन्दी फिल्मों में हम यही देखते रहे हैं कि प्यार हुआ, प्यार की राह में तमाम रुकावटें आयीं, फिर उनको पार करके शादी हुई या प्रेमी जोड़े मिल गये। यह फिल्म इस मायने में अलग है कि यह सवाल करती है क्‍या प्‍यार ही पर्याप्‍त है। यह एक लम्बी छलांग है हिन्दी फिल्मों की इस परम्परा में, जो प्रेमी जोडे के बीच समानता और प्रतिष्‍ठा का नया आयाम खोलती है।

यह फिल्म हिन्दी के अलावा मराठी और अंग्रेजी में भी बनी है। इस फिल्म की लेखिका और निर्देशिका रोहना गेरा रत्ना के किरदार के बारे में कहती हैं, ‘रत्ना कोई सिंड्रेला नहीं है जो अपनी रिहाई के लिए किसी शहजादे के इंतजार में है।’

अपने फिल्म की सफलता पर एक इंटरव्यू में तिलोत्तमा कहती हैं, ‘’दर्शकों ने मुझे बड़े सपने देखने का हौसला दिया है। किसी व्यवसायिक सफलता या उसके हिसाब-किताब में पड़ने का नहीं। अचानक हुई काम की बढ़ोतरी से मैं प्रसन्न हूं। लेकिन मैं कौन सी फिल्में करूं और क्यों… इसे तय करने में मैं समय लूंगी।‘’

इसके अलावा वह यह भी कहती हैं कि ‘’बौद्ध धर्म का मेरा अभ्यास मुझे इस विश्वास का आनन्द लेने का मौका देता है कि एक मजबूत नींव बनाने में लम्बा समय लगता है और उसकी अनदेखी नहीं होती है। उसमें समय लगता है। चकाचौंध से दूर और दूसरों की निगाहों से दूर रहकर… इसलिए मैं जहां हूं ठीक वहीं जहां मुझे होना चाहिए।‘’

तिलोत्तमा अनुवादक भी हैं। उन्होंने बांग्ला कहानियों का अंग्रेजी में अनुवाद किया है। इस तरह की उनकी दो किताबें उपलब्ध हैं।


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