अन्नदाता, जागो और देखो, हल की जगह चलाये जा रहे हैं बुल्डोजर!


‘सतपुड़ा की पगडंडियां’ युवा कवि रमेश गोहे का सद्य: प्रकाशित पहला कविता संग्रह है। इन कविताओं से गुजरते हुए सहज ही महसूस किया जा सकता है कि यहाँ जो ‘मैं’ है, वह एक ‘समाज’ है। वह सभी कालों और सभ्यताओं के मनुष्यों का प्रतिनिधित्व करता है। बेशक वह कवि के समय का, हमारे अपने समय का निवासी है लेकिन उसे भरपूर अहसास है कि वह एक परंपरा में स्थित है, बल्कि उसी के हाथों निर्मित है। कवि इन कविताओं में स्वयं माजूद है।

कविता प्रकाशित होने के पश्चात जब पाठक के सम्‍मुख आती है तो वह उसका आस्वादन करता है। मुख्यत: पाठक उस रचना में भाव ढूंढता है, कोई बिम्ब, कोई प्रतीक या कोई विचार उसे उद्वेलित करता है वह उस कविता में अपने आसपास के परिदृश्य की तलाश करता है। पाठक के मन की कोई बात यदि उस कविता में हो तो वह उसे पढ़कर प्रसन्न होता है। यदि कविता में उसके आक्रोश को अभिव्यक्ति मिलती है या उसे अपनी समस्याओं का समाधान नजर आता है तो वह कविता उसकी प्रिय कविताओं में शामिल हो जाती है। रमेश गोहे की कविताएं कविता की इन परम्पराओं में अपने को फिट पाती हैं। जब कवि स्वयं लिखता है कि ‘मेरी कविताओं को पढ़ना मेरे साथ चलने जैसा है। मेरे भोगे हुए यथार्थ के बहाने मेरी कविताओं को पढ़कर अपने मन की तहें खोलने जैसा है और कुछ हद तक मुझे समझने जैसा भी। मेरी कविताएं निश्चित रूप से मेरे जीवनानुभवों, आत्मसंघर्षों, संवेदनात्मक ज्ञान और सांसारिक सुख-दुख कि पीड़ाजन्य अनुभूतियों का दस्तावेज़ हैं।’


पुस्तक – सतपुड़ा पगडंडियाँ
प्रकाशक- एविन्सपब पब्लिशिंग, बिलासपुर, छत्तीसगढ़
कवि- रमेश गोहे
वर्ष – दिसंबर 2022  
मूल्य – 199 रुपये


रमेश गोहे की कविताओं की विषयवस्तु में विविध संवेदनात्मक अभिव्यक्ति है। यहां प्रकृति भी है और प्रेम भी, बम भी है और बारूद भी, गांव भी है और शहर भी। रमेश गोहे ‘सतपुड़ा की पगडंडियां’ के माध्यम से सम्पूर्ण जंगल-गाथा कह देने में संकोच नहीं करते। ये कविताएं जमीन से जुड़कर मानवीय अस्मिता पर प्रहार करती नीतियों के प्रति आवाज उठाती हैं। कविताओं में सौंदर्य का बखान करने के लिए उन्हें बाह्य रूपकों की आवश्यकता नहीं पड़ती बल्कि कवि अपनी परंपरा से जुड़ी चीजों में से ही रूपकों का निर्माण करता है। कविताएं रचाव व बचाव की प्रवृत्ति को आत्मसात करती हुई खत्म होती मानवीय संवेदना और सहजीविता को पुनर्स्थापित करने की वकालत करती हैं। कविताएं मनुष्यता का आख्यान रखती हैं। जहां आज के समय में मनुष्य के अंदर स्वार्थपूर्ति की भावना आ गई है वहीं कवि आगे आकर संवेदना को समझने का प्रयास कर रहा है।

मैं यहां ठीक हूं!
आशा है तुम भी वहां ठीक होंगे!
चिट्ठियों में हम
न जाने क्या-क्या लिखते जाते हैं!
चिट्ठी लिखते समय
हम कितने स्वस्थ हो जाते हैं!

कवि सहजीविता की बात करता हैं। सपाटबयानी रमेश गोहे की विशेषता है। कविता प्राकृतिक और मानवीय राग का सुंदर चित्रण है।

तुम अपनी बात कहो
मैं सुनता हूं
तुम्हारी सालों की पीड़ा का दर्द कह दो मेरे कानो में।

कवि ने अपने समय और समाज की संवेदना को ध्यान में रखते हुए कविता की विषयवस्तु का चयन किया है। उनकी कविता मुक्ति के स्वप्न की कविता है। उनके यहां स्वप्न बार बार दुहराया जाने वाला का विषय है। रमेश गोहे की कविताओं का परिदृश्य काफी बहुमुखी और विविधतापूर्ण है। वस्तुत: हिन्दी कविता का संसार या क्षितिज बहुत फैलाव लिए हुए है। दरअसल कविता की भाषा कुछ तो कवि के पास सहज रूप में उपलब्ध होती है, कुछ अभ्यास से कवि अपनी भाषा के रूप में सुधार भी लाता है। रमेश गोहे ने भाषा का भावबोध एकदम सरल रखा है जिससे उसके शिल्प में दुरूहता नहीं आए। ऐसे समय में जब कविता का परिदृश्य साहित्य की राजनीति से संचालित हो रहा हो, कुछ जरूरी बातों को कहने के लिए खतरे उठाने ही होंगे।

ऐसे में रमेश गोहे स्पष्ट लिखते हैं

कुत्तों का आतंक है,
और बंदर
बच्चों को पेट से चिपटाए,
हाँफ-हाँफ कर दौड़ रहे हैं।

किसानों के लिए भी कवि के अंदर उतनी ही संवेदना है जितना कि प्रेम को बचाने के लिए-

अन्नदाता
जागो और देखो
धरती के साथ दु:शासन
खेल रहा है,
चीरहरण का खेल!
रचा जा रहा है कोई षडयंत्र,
हल की जगह चलाये जा रहे हैं बुल्डोजर। 

आज कविता का संसार औसत का संसार है। कवि जिस जमीन में रहता है उस जमीन और परिवेश जिसे हम व्यापक अर्थों में लोक की संज्ञा देते हैं उसका सन्निवेश। और जिस लोक पर कविता लिखी जा रही हो उस लोक की संस्कृति, भाषा व सामाजिक संरचना का पूरा बोध होना चाहिए। यदि ऐसा नहीं है तो कविता में वास्तविकता भ्रामक कल्पना के रूप में प्रवेश करती है और पाठक को मिथ्या तर्क देते हुए लोक की वास्तविक विसंगतियों से ध्यान भटका देती है। कवि के लोक को हम कवि “व्यक्तित्व” का सन्निवेश कह सकते हैं। कविता में कवि के व्यक्तित्व का प्रवेश ही कवि के लोक का प्रवेश है। इससे कविता में “यथार्थ” बचा रहता है और भ्रम की संभावनाएं समाप्त हो जाती हैं। एक कविता देखिए-

गुब्बारे जो अपने देश की हवा से फूलकर

ऊंची उड़ान भरते हैं
सात आसमान पार करते हैं
पर वापस लौटकर नहीं आते कभी।

कविताओं में वैयक्तिकता भी प्रमुखता से उभर करके आई है। उनके प्राणों की विविध अनुभूतियां उनकी कविता में अनायास ही नहीं आ गई हैं लेकिन गाथा में आलंबन अत्यंत सूक्ष्म होने के कारण वैयक्तिकता ही प्रमुख रूप से उभर कर के आई है जिनमें उनके अश्रु, दुख, विरह और वेदना ने ही स्थान पाया है –

धरती जब चादर पीली ओढ़ लेती है
तब बनती है कविता
कविता बनती है
जब दर्द हद से गुजर जाता है
हां कविता तब नहीं बनती
जब इंसान की
संवेदना मर जाती है।

स्त्री की सामाजिक स्थिति के साथ-साथ आर्थिक स्थिति का सजीव वर्णन भी रमेश गोहे की कविताओं के माध्यम से हमें देखने को मिलता है। दरअसल आदिवासी लेखन जीवन का लेखन है यह कल्पना और मनोरंजन का किस्सा नहीं है और न ही आदिवासी औरतें नुमाइश की वस्तु है। किन्तु आज के समय में मीडिया के माध्यम से आदिवासी स्त्रियों को बाजार की नुमाइश की वस्तु बना दी गई है।

सिर पर लकड़ी का गट्ठर लादकर
सुबह-सुबह जब एक के पीछे एक कतार में
निकलती हैं आदिवासी लड़कियां
तो मीडिया का आदमी
मुंह इंधारे फ्लैश चमकाकर
मिचमिचाती आँखों से खींचता है
उनकी अधनंगी तस्वीर

जनजीवन को कविताओं में उकेरने वाले कवि रमेश गोहे शुक्ल प्रेम और प्रकृति के कवि हैं। वे सीधे सरल शब्दों में जादुई बातें कहने के ऐसे माहिर हैं, जो नदी, पहाड़, घाटी से लेकर ‘जमीन से जुड़े हुए आदमी’ को अपनी कविता में समेट लेते हैं। वास्तव में वे सजग शिल्प के कवि हैं, जो बेहद महीनी से शब्दों को पिरोते हैं। उनकी काव्य भाषा, शिल्प और कहन कविताओं को सतपुड़ा के जंगलों से सीधे जोड़ती है। समाज में प्रेम को लेकर एक असंवेदनशीलता दिखाई देती है जिसे रमेश गोहे बेरंग होती दुनिया में प्रेम को घोल देना चाहते हैं।  

पुरुष जो प्रेम से दूर होता है
प्रेम सिखाती हैं उसे स्त्रियाँ
पुरुष जो बेरंग होता है
रंग भरती हैं उसमें स्त्रियाँ  

वास्तव में यदि कोई कवि होगा, उसके भीतर प्रेम होगा। प्रेम ही आदमी को कवि बनाता है। कवि की ज़रूरत इसलिए होती है कि जब हवाओं में घृणा भरी हो, वह प्रेम का संगीत बाँटता है। वह सुंदरता से प्रेम करना सिखाता है और बताता है, क्या सुंदर है, क्या नहीं। आधुनिकतावादी समय में प्रेम की भाषा ठीक वैसी नहीं हो सकती थी, जैसी क्लासिकल या रोमांटिक युग में थी। बदली जीवन स्थितियों में प्रेम का अनुभव अलग तरह का होगा, पर उसमें क्लासिक और रोमांटिक संस्कारों की गूँज न हो, यह संभव नहीं है। यदि प्रेम में अनुभव की सच्चाई के साथ एक कलात्मक गहराई मौजूद हो, इन संस्कारों की गूँज होगी जरूर।


लेखक हिन्दी विभाग, गुरु घासीदास विश्वविद्यालय, बिलासपुर, छत्तीसगढ़ में अध्यापन करते हैं


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