ईब आले ऊ: बन्दरों के बहाने लुटियन के सियासी गलियारे की एक पड़ताल


लुटियन की दिल्ली में बन्दरों का आतंक जाना-पहचाना है। ये वही जगह है जहां से देश की राजनीति या समूचे देश को चलाया जाता है। कहानी लुटियन की दिल्ली से बन्दरों को भगाने से शुरू होती है। फिल्म है “ईब आले ऊ” जिसमें प्रतीक वत्स ने बन्दरों के बहाने दिल्ली के वर्ग विभाजन, राष्ट्रवाद का अंधापन,फासीवाद का प्रभाव जैसे मुद्दे को बिना किसी पक्ष लिए तलाशने का प्रयास किया है। फ़िल्म को वीआरवन ने यूट्यूब पर एक दिन के लिए फ्री किया है।

अंजनी प्रोटागोनिस्ट (शार्दुल भारद्वाज) प्रवासी मजदूर के किरदार में हैं। प्रवासी मजदूर के काम के समय परेशानी, फ्रस्ट्रेशन, काम को किसी भी हालत में पूरा करने का मानसिक बोझ और काम के बाद की ज़िंदगी अंजनी के माध्यम से फ़िल्म में स्पष्ट दिखायी गयी है।

अंजनी की दो जिंदगी एक ही समय पर चलती है। पहला लुटियन्स में काम के दौरान और दूसरा तुग़लकाबाद के घेटो में काम के बाद का समय। हर सम्भव प्रयास करने पर भी अंजनी बन्दर भगा पाने में असफल रहता है। दूसरी तरफ घेटो की ज़िंदगी अपने आप में बोझ है। कहानी कामगार वर्ग के राष्ट्रीय राजधानी के बदनुमा जंगलों में भटकने की है। यह वह दुनिया है जहां युवा प्रवासी मजदूर काम की तलाश में आता है और जीवन सुरक्षित करना चाहता है, परंतु अंत में उसे केवल अंदरूनी डर, फ्रस्ट्रेशन और अनादर को झेलने के कारण आत्मकटुता ही हाथ आता है। 

अंजनी का अपने दोस्त और मेंटर महेंद्र (महेंद्र नाथ) से ये कहना “कहां नरक में डाल दिये हो”, प्रवासी मजदूर की ज़िन्दगी के विभिन्न पहलुओं को दर्शाने में सफल है।

फ़िल्म में छोटी सी प्रेम कहानी भी है, हालांकि प्रेम में कोई किरदार उतना शराबोर नहीं है कि उस पर नजर जाये लेकिन बिना किसी अटेंशन के प्रेम कहानी लिखी गयी है। फ़िल्म में हर एक किरदार जीवन्त और अर्थगर्भित नजर आता है। अंजनी की बहन जब डॉक्टर को बताती है कि अंजनी सरकारी नौकरी करता है, इस समय उसके चेहरे की हंसी और उच्चतर होने का गर्व चेहरे पर स्पष्ट दिखायी देता है, हालांकि अंजनी कॉन्ट्रैक्ट पर काम करता है।

प्रतीक वत्स ने फ़िल्म में शासक वर्ग और शोषित वर्ग की महीन रेखा खींचने का सफल प्रयास किया है। यह आम धारणा है कि शासक वर्ग को हर तरह का आराम चाहिए बिना किसी परेशानी के और यह भी जगजाहिर है कि यह आराम शोषितों को कुचल कर ही हासिल किया जा सकता है। फ़िल्म का एक डायलाग उद्योग भवन, विज्ञान भवन, कृषि भवन एवं लुटियन्स दिल्ली के तमाम ऐसे भवनों के बारे में हैः “बिल्डिंग को खरोंचे मार गयी तो साली सरकार गिर जाएगी”।

फ़िल्म के आखिर में बन्दर को हनुमान मानने वाली भीड़ अंजनी के मेंटर और दोस्त महेंद्र को मौत के घाट उतार देती है। किसी पर कोई फर्क नहीं पड़ता सिवाय अंजनी के। प्रतीक वत्स ने कोरे कागज की तरह स्पष्ट रूप से वर्ग विभाजन, राष्ट्रवाद का उदय और इसका अंधापन व्यंग्य और ड्रामा के जरिये दिखाने का प्रयास किया है। हो सकता है फ़िल्म कई दिनों तक आपको सदमे में रखे। समापन तक आते-आते बारहा ग़ालिब याद आते हैंः

बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मिरे आगे
होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मिरे आगे


चंदन जामिया के छात्र हैं


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