मेरे हाथ पतवार खींचते हुए थकते नहीं हैं क्योंकि यदि मेरे हाथ थक गए तो मैं कैसे अपनी जीविका चला पाऊंगा? … मैं अपने परिवार का पेट पालने के लिए तुम्हारे पेट (गंगा की जलधारा) में नाव चला रहा हूँ। इसी पेट के कारण, भार से लदी हुई यह नाव चला रहा हूँ।
इस गीत को उद्धृत करते हुए इतिहासकार रमाशंकर सिंह लिखते हैं कि निषाद जन द्वारा नाव चलाने को लेकर इतनी बेधक व्यंजना शायद ही किसी मानव विज्ञानी या इतिहासकार ने दर्ज की हो जितनी इस लोकगीत में दर्ज है। उनकी किताब ‘नदी पुत्र: उत्तर भारत में निषाद और नदी’ पढ़ते हुए लगता है कि वे शायद अपनी ही शिकायत दूर कर रहे हैं।
प्राय: लोग वही किताब लिखते हैं जिसे वे लिखना चाहते हैं। भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान में फ़ेलो के रूप में काम करते हुए रमाशंकर न केवल मेरे सहयोगी थे और मित्र थे बल्कि हम दोनों एक ही स्टडी भी शेयर करते थे। वहाँ वे जिस किताब की चर्चा करते रहते थे, यह उससे कहीं ज्यादा अलग और मार्मिक है जो छपकर आने के बाद थोड़ा ज्यादा खुलकर मेरे सामने आई है। यह किताब सात अध्यायों में बँटी है जिसमें तीन कोटियों की सन्दर्भ सामग्री प्रयुक्त की गयी है: पाठ(टेक्स्ट), अभिलेखागार और क्षेत्र कार्य(फ़ील्ड वर्क)। उन्होंने न केवल ग्रन्थों, प्रसिद्ध विद्वानों की किताबों की मदद ली है बल्कि औपनिवेशिक अभिलेखों और फील्डवर्क के काम बहुत ही खूबसूरती से आपस में पिरो दिया है।
इसके एक ब्लर्ब में शेखर पाठक ने ठीक ही लिखा है कि यह किताब स्रोतों की व्याख्या और शोधविधि के लिहाज से इतिहास लेखन में एक हस्तक्षेप है। इसमें पाठ, मानवविज्ञान और अभिलेखीय सामग्री का मोहक समन्वय है। नदियों और उनकी सन्तानों की दास्तान कहते समय लेखक ने लगातार समकालीन मानवीय अनुभव को ऐतिहासिक बदलाव की रोशनी में देखा है।
नदी पुत्र: उत्तर भारत में निषाद और नदी
रमाशंकर सिंह
भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला और सेतु प्रकाशन, 2022
264 पृष्ठ
पेपरबैक में कीमत 295 और हार्डबैक में 625 रुपये
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रमाशंकर ने लखनऊ, इलाहाबाद और वाराणसी के अभिलेखागारों की सामग्री को कानपुर, इलाहाबाद, वाराणसी और चंदौली के निषादों के वर्तमान जीवन से जोड़ दिया है। वे निषाद स्त्रियों के बयान को इस तरह से आपके सामने रखते हैं कि सदियों की गुमशुदा आवाज़ें आपके समक्ष रूप धरकर आ जाती है।
इस किताब में उन्होंने पूर्व औपनिवेशिक भारत में विभिन्न जातियों के प्राकृतिक संसाधनों से सम्बन्ध, निषादों के जीवन, संस्कृति और जीविका के क्षेत्र में नदी-पारिस्थितिकी की भूमिका और उनके जीवनबोध को न केवल गहराई से समझा है बल्कि निषादों के जीवन में नदी की उपस्थिति को भी रेखांकित किया है। रमाशंकर की यह किताब वैदिककाल से होते हुए सीधे हमारे वर्तमान तक चली आती है और वे बताते हैं कि किसी निषाद के जीवन में महर्षि व्यास, एकलव्य के साथ फूलन देवी क्या भूमिका निभाते हैं। नदियों के किनारे विकसित हुई निषाद सँस्कृति के मूल्यांकन के लिए यह एक मुकामी किताब है।
नदी पुत्र बताती है कि निषाद समुदाय ऐतिहासिक रूप से राजस्व प्रदाता और धन का सृजन करने वाला समुदाय रहा है और पुराने समय में परिवहन के प्रमुख साधन के रूप में नावें ही थीं। उनसे ही देश और समाज चलता था। आजकल की तरह न तो बारहमासा सड़कें थीं और न ही पुल। नावों पर विभिन्न प्रकार के कर और पथकर लगाए जाते थे। यह बहुत रोचक है कि जिन धर्मसूत्रों और स्मृतियों में शूद्रों के बहिष्करण और अस्पृश्यता के विधान लिखे गए थे, उन्हीं धर्मसूत्रों और स्मृतियों में इस बात के पर्याप्त प्रमाण हैं कि देश के लिए समृद्धि और धन का निर्माण यही समुदाय करते थे।
रमाशंकर रेखांकित करते हैं कि एक देश के रूप में भारत इन समुदायों का ऋणी है। किताब कहती है:
वशिष्ठ धर्मसूत्र में नावों पर लगने वाले करों और पथकर/राहदारी का उल्लेख मिलता है। ऐसा प्रतीत होता है कि नावें लम्बी होती थीं और उनमें पर्याप्त यात्री होते थे क्योंकि अपेक्षा की गयी थी कि किसी नाव पर कम से कम दस नाविक होने चाहिए और उनके पास कम से कम दो यंत्र होने चाहिए। ये यंत्र सम्भवतः नाव में पानी भर जाने के समय उससे पानी निकालने के लिए जरूरी रहे होंगे। यात्रियों की संख्या भी नियन्त्रित की गयी थी। नाविकों को नाव में सौ पुरुषों और एक सौ पचास से ज्यादा महिलाओं को बैठाने की अनुमति नहीं थी। यदि नदी का पाट इतना चौड़ा है कि एक तट से तीर चलाने पर यह मध्य में गिर जाए तो नाव से पथकर/राहदारी आठमासा होना चाहिए। जिस नदी का पाट कम चौड़ा होता था, उसकी पथकर/राहदारी पाँचमासा होना चाहिए और जब नदी सिमटी हुई हो तो यह एक मासा होना चाहिए।
यह किताब आधुनिक भारत में निषादों की जीविका के क्षरित होते जाने के साथ उनके राजनीतिक सबलीकरण की कहानी को भी बड़ी प्रामाणिकता से कहती है। फूलन देवी के बारे वे कहते हैं कि ऐसा नहीं है कि फूलन देवी पहली निषाद सांसद थीं लेकिन उनके सांसद बनने से निषाद जन को प्रतिरोध की संस्कृति का व्यापक मूल्य पता चला। …फूलन देवी खुद एक प्रतीक बन गयीं, वह भी जीती-जागती।
किताब एक फील्ड नोट को साझा करती है:
“वे हमारे लिए लक्ष्मीबाई और इन्दिरा गाँधी की तरह थीं। उनके कारण नदियों के किनारे तरह-तरह के लोग हमसे बात करने के लिए आने लगे। वे न होतीं तो क्या आप मुझसे यहाँ नदी के किनारे मिलने आते? उनके कारण ही गाँवों, पुरवों और बीहड़ों में रहने वाले गरीब लोगों और मल्लाहों में ताकत आयी। अब हमें कोई धमका नहीं सकता है। कोई आँख नहीं दिखा सकता।“
इधर के एक दशक में निषाद जन में जो ताकत आई है, उसे उपर्युक्त संदर्भ में समझ सकते हैं।
और अंत में इस आशा के साथ कि यह किताब इस विषय पर काम कर रहे समाज विज्ञान के शोध छात्रों, विद्वानों, सामाजिक कार्यकर्ताओं एवं निषाद समुदाय के लिए एक उपयोगी ग्रंथ साबित होगी।
(डॉ. अजय कुमार बाबासाहेब भीमराव अम्बेडकर विश्वविद्यालय, लखनऊ के समाजशास्त्र विभाग में सहायक प्रोफेसर हैं। कवर तस्वीर रमाशंकर सिंह की फ़ेसबुक दीवार से साभार प्रकाशित है।)