हम सामाजिक रूप से निरक्षर समाज में रहते हैं। पहले तो व्यक्ति अपनी जाति जानता है। उसे बताया जाता है कि वह कौन सी जाति का है और जातिगत उच्चताक्रम में उसका क्या स्थान है। एक जाति के ही अंदर दूसरी उपजाति कहां आती है। शहरी भारत का एक छोटा सा हिस्सा सार्वजनिक रूप से कहता पाया जाता है कि उसे जाति का पता ही नहीं था। पहली बार इसे पता लगा जब वह कॉलेज या युनिवर्सिटी गया। दरअसल, वह बात तो सही कहता है लेकिन बहुत गलत ढंग से कहता है। उसे ‘दूसरे लोग’ पच नहीं पाते, उन्हें कमतर मानता है।
आगरा के जिलाधिकारी की 1913 की एक रिपोर्ट उस जिले में निषादों की 21 उपजातियों का उल्लेख करती है। यह संख्या 1931 में एक दर्जन के करीब रह जाती है। आप स्वयं से पूछिए कि आप कितनी जातियों के बारे में जानते हैं?
इसी प्रकार अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल कई जातियों के बारे में स्वयं इस वर्ग में शामिल मुखर जातियों के युवा, अध्यापक और सामुदायिक नेता भी नहीं जानते हैं। यही हाल अधिकारियों का है, विशेषकर उनका जिन्हें जाति प्रमाणपत्र जारी करना होता है। वे सरकारी आदेशों से बँधे-बँधाये होते हैं।
क्या आप कसगड़ नामक जाति को जानते हैं? नहीं जानते होंगे। कोई सबको नहीं जान सकता है, लेकिन जानने की कोशिश करनी चाहिए।
यही हाल अनुसूचित जातियों का है। इसमें सरकारी रूप से शामिल 66 जातियों में अधिकतर का नामलेवा नहीं है (हालाँकि उनकी जनसंख्या होती है। हर जनगणना में उनका जिलावार उल्लेख किया जाता है। इंटरनेट पर अनुसूचित जाति के जनगणना के आँकड़े हैं। डाउनलोड करें, पढ़ें)।
लोकतंत्र में हिस्सेदारी और आज़ादी के अनुभव: घुमंतू और विमुक्त जन का संदर्भ
सबसे बुरी दशा तो उन जातियों की है जिन्हें घुमंतू, अर्ध-घुमंतू और विमुक्त कहा जाता है। दो-दो आयोगों के गठन के बावजूद अभी उनकी हर जिले में जनसंख्या का कोई विश्वसनीय आँकड़ा उपलब्ध नहीं है क्योंकि कई जातियां और श्रेणियां आपस मे ओवरलैप कर जाती हैं।
तो बात फिर वहीं आती है। इस जातिगत जनगणना का करेंगे क्या?
1. अगर हम सब भारतवासी भाई-बहन हैं तो हम उनके बारे में जान पाएंगे।
2. हम भारत की जातिगत विविधता को जान पाएंगे। परिचय से प्रेम उपजता है। जाति आधारित जनगणना से जातिवाद फैलेगा, यह एक आधारहीन भय है। इसके आने से किसी की जाति संकट में नहीं पड़ जाएगी और न ही लोग मरने-मारने पर उतारू हो जाएंगे।
3. जातिविहीन समाज तब तक नहीं बन सकता है जब तक समानता न स्थापित हो, सबको बराबर की सुविधा न मिले। यह तभी संभव होगा जब हमें वस्तुस्थिति का पता हो।
4. इससे भारत, यूरोप और अमेरिका के समाजशास्त्र और मानवविज्ञान सहित अन्य सामाजिक विज्ञान विभागों की जड़ता भंग होगी। शोध के नये क्षेत्र खुल सकेंगे।
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क्या इससे जातिवाद बढ़ेगा?
नहीं। इससे जातिवाद नहीं बढ़ेगा। शुरू-शुरू में संघर्ष बढ़ेगा। ऐसा देखा जा सकता है कि बहुत सी जातियां यह खुले तौर पर आरोप लगाएं कि हमें उपेक्षित किया गया है और वे इस जनगणना के बिना भी लगाती हैं, लेकिन कुछ समय बाद इन जातियों से नये सामुदायिक नेता निकलेंगे जो तीन काम करेंगे:
i. खुद समुदाय के भीतर रहकर उसे आगे ले जाने का काम।
ii. मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियों में हिस्सेदारी की मांग।
iii. कई जातियों का एक संघ बनाकार स्वतंत्र राजनीतिक पार्टियों की स्थापना।
इससे सबसे पहले तो सभी राजनीतिक दलों को अपना लोकतांत्रीकरण करने को मजबूर होना होगा। इसके बाद सरकार को नयी श्रेणियों की रचना करनी पड़ सकती है। अनुसूचित जाति/अन्य पिछड़ा वर्ग/घुमंतू-विमुक्त में शामिल कई जातियां इधर से उधर हो सकती हैं।
जाति का उन्मूलन: कल, आज और कल
जाति आधारित जनगणना से भारतीय समाज के नये कोने-अँतरे सामने आने लगेंगे। इससे उपजी सच्चाइयों का सामना करने में देश को समय लगेगा।
जो जातियां पीछे छूट गयी हैं, उन्हें आगे लाने के लिए नये किस्म के आयोग गठित करने होंगे। इन आयोगों को उस तरह काम नहीं करना होगा जैसा काम रेनके और इदाते कमीशन ने किया है बल्कि इसे मंडल कमीशन से ज्यादा मेहनत करनी होगी। इस आयोग में न्यायाधीश, समाजविज्ञानी, सामुदायिक नेता हों। खुली और पारदर्शी जन सुनवाइयां हों, तब काम बनेगा।
तो कुछ भी आसान नहीं है।
लेखक इतिहासकार हैं और घुमंतू जातियों पर इनकी विशेषज्ञता है। यह टिप्पणी उनकी फ़ेसबुक दीवार से साभार प्रकाशित है।