प्रियंका गांधी ने अपने व्यवस्थित राजनीतिक सफर की शुरुआत दो तीन साल पहले उत्तर प्रदेश के करना तय किया। इस मायने में उनका राजनीतिक अनुभव अधिक नहीं है। कांग्रेस की राजनीति के लिए जो अनिवार्य तत्व होने चाहिए वे उनमें खूब हैं। सबसे जरूरी बात तो आज के दौर में अभय होने की है। उनको डर छू नहीं गया है और यह बात उन्होंने साबित भी की है। जब बड़े-बड़े गैर कांग्रेसी क्षेत्रीय नेता भाजपा का जमीन पर विरोध करने की खानापूरी भी नहीं किये और भाजपा से डर व असुरक्षा के कारण घरों में रहकर ट्विटर खेलते रहे, तब वो निडर होकर लगभग अकेले रातों में निकलती रहीं।
प्रियंका में दूसरी बात कांग्रेस वैचारिकी से जुड़ाव की है। उन्होंने साफ साफ कहा कि हमें जातिवाद और साम्प्रदायिकता दोनो से लड़ना है। यह बात कांग्रेस वैचारिकी की है और कांग्रेस में इसकी लंबी व महान परंपरा आजादी की लड़ाई के दौर से रही है। जातिवाद और साम्प्रदायिकता दोनो से लड़ने की बात का सीधा मतलब है कि आप जातिवादी विमर्शों व आइडेंटिटी पॉलिटिक्स के खिलाफ हैं। पिछले 30-40 सालों में आइडेंटिटी पॉलिटिक्स ने भारत में फासीवाद की जमीन बनाई है। बिना इसका भूत दिमाग से उतारे कांग्रेस अपनी जड़ें मजबूत नहीं कर सकती, यह बात प्रियंका गांधी कितना आत्मसात कर सकीं है, यह देखने की बात है। अभी इस पर वही नहीं बल्कि कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व को अपनी सोच साफ करनी है। व्यक्तिगत सोच के तौर पर राहुल जी और कांग्रेस के बहुत से विद्वान नेता इसी दिशा में हैं लेकिन कार्य-पद्धति और राजनीतिक संरचनात्मक व्यवस्था के तौर पर कांग्रेस मे अभी भी स्पष्ट नीति नहीं बन सकी है। कांग्रेस में आइडेंटिटी पॉलिटिक्स के पैरोकार महत्त्वपूर्ण वैचारिक भूमिका में सक्रिय हैं और यही कांग्रेस की गति को अवरुद्ध करता है।
सवाल है कि उत्तर प्रदेश में इस चुनाव में कांग्रेस क्या हासिल करना चाहती थी और कैसे हासिल करना चाहती थी। प्रियंका और कांग्रेस इस ‘क्या’ के बिंदु पर क्लियर थी कि उसे उत्तर प्रदेश में निष्क्रिय पड़ी पार्टी को पुनर्जीवित करना है। ‘कैसे’ के बिंदु पर कांग्रेस के पास कोई बुनियादी कार्यक्रम नही था। संगठन मजबूत करना है, यह तो पता था पर कैसे करना है इसको लेकर समझ का अभाव था।
राजनीतिक संगठन कैसे बनते हैं, अपनी वैचारिकी के अनुरूप कार्यकर्ता कैसे तलाशे जाते हैं, उन कार्यकर्ताओं को क्या करना होगा, कार्यकर्ताओं में आपस में कैसे सामंजस्य बने आदि बिंदु बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। इन सब सवालों के जवाब तलाशने में उत्तर प्रदेश कांग्रेस ने कांग्रेस वैचारिकी व परंपरा का सहारा नही लिया। उसने समाजवादी और वामपंथी सोच से निकले तरीकों को अपनाया जो कि कम से कम कांग्रेस के लिए तो बिल्कुल अनुपयुक्त है।
उदाहरण के लिए, जन आंदोलनों के जरिये कार्यकर्ता-नेता चुनने का अभ्यास बल्कि उसे जन आंदोलन किसी सटीक शब्द की अनुपलब्धता के कारण कहा, वास्तव में वे शो इवेंट ही हैं। यानि, एक अच्छा कार्यकर्ता कौन हो सकता है? वो जो खूब धरना प्रदर्शन करता हो, अखबार में और सोशल मीडिया में उसकी पुलिस के झड़प की खबरें तस्वीरें हों, जो नारे बढ़िया से लगा लेता हो, जो खूब जोश में भरकर भाषण दे लेता हो, रैली के लिए भीड़ जुटा लेता हो, आदि आदि। इस तरह की सोच का सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ है कि राजनीति से गंभीरता चली गयी और ब्रांडिंग कल्चर आ गया और झूठी हवा हवाई तुर्रमखांपंथी ही एक अच्छे राजनीतिक कार्यकर्ता की पहचान हो गयी।
प्रियंका ने इसी जन आंदोलनकारी पद्धति का सहारा लिया कांग्रेस संगठन के विस्तार के लिए। यह जो सड़क पर उतरकर ही राजनीति बढ़ती है और जनांदोलनों से नेता कार्यकर्ता निकलते हैं, वल्गर समाजवादी सोच है जो भारत में लोहियावादियों ने गैर-कांग्रेसवाद के लिए अपनायी। ये सड़क की राजनीति ने भावुकतावाद को राजनीति का पर्याय बना दिया। वामपंथी पार्टियों ने भी इसका खूब सहारा लिया कांग्रेस के खिलाफ। इसका सबसे बड़ा खामियाजा कांग्रेस ने ही भुगता है। कैसे?
यूपीसीसी में पिछले तीन साल के दौरान लाये गए नये-नवेले रंगरूटों के बारे में बहुत सी शिकायतें सामने आई हैं, जिनमें खासकर प्रियंका गांधी के निजी सहायक संदीप सिंह को लेकर सार्वजनिक राजनीतिक जीवन में उग्र व्यवहार, शीर्ष नेतृत्व से सूचनाओं का छुपाव और कांग्रेस आफिस के भीतर गोलबंदी के आरोप हैं। यह कांग्रेस की परंपरा और गरिमा के अनुकूल नहीं है।
कांग्रेस को अपने संगठन के पुनर्निर्माण या मजबूती के लिए इन गैर-कांग्रेसी संस्कारों वाले युवाओं की जरूरत क्यों पड़ी यह समझ से परे है। यह केवल कांग्रेस की आत्मविश्वासहीनता है कि उसे अपनी वैचारिकी को एक्स्प्लोर करने और मजबूत करने के बजाय उग्र वामपंथ में प्रशिक्षित युवाओं की ओर देखना पड़ा जो किसी अर्थ में कांग्रेस में जिम्मेदारी देने लायक ही नहीं थे।
संदीप सिंह पहले राहुल गांधी के कार्यालय में थे। जब से वे प्रियंका गांधी के निजी सहायक बने हैं, अंदरखाने और सार्वजनिक रूप से भी सवाल उठ रहे हैं कि क्या कांग्रेसी संस्कृति और वैचारिकी को अपने व्यक्तित्व व सोच में वे आत्मसात कर सके हैं और क्या वह उन दायित्वों के लिए भरोसेमंद व उपयुक्त हैं जो उन्हें दिया गया है? जो सूचनाएं और खबरें कांग्रेस जमात में चल रही हैं उनसे यह बात साबित होती है कि संदीप सिंह व उनकी जमात कांग्रेस कार्य के लिए न केवल अनुपयुक्त बल्कि नुकसानदेह ही है।
श्रेष्ठताबोध, दूसरों का उपहास, उग्र महत्त्वाकांक्षा, परस्पर अविश्वास व शंका, गंभीर चिंतन के बजाय वामपंथी शब्दाडम्बर, संवाद के बजाय खारिज करने की आदत, कांग्रेस और भाजपा को एक तराजू पर तौलना, अस्मितावादी विमर्श को मौकापरस्ती से अपनाना, जन आंदोलन को ही राजनीति समझना, अनैतिक कर्म को जबरन सैद्धांतिक आधार देना, औसत बुद्धि युवाओं को फंसाना- ये कुछ ऐसी प्रवृत्तियां हैं जिन्हें लेकर यूपी कांग्रेस के भीतर प्रियंका गांधी के करीबी घेरे के खिलाफ भयंकर रोष है।
उत्तर प्रदेश कांग्रेस की मशीनरी के ऊपर इन तत्वों का अब मुकम्मल कब्जा हो चुका है।
जनान्दोलनकारिता की इस राजनीति ने साम्प्रदायिकता और जातिवाद के खिलाफ इसका इस्तेमाल नही किया। आरएसएस-भाजपा ने साम्प्रदायिकता के फैलाव के लिए सड़क और जन आंदोलन की नीति का सबसे कुशल दुरुपयोग किया। जातिवादी पार्टियों ने भी जातीय विमर्श और जातिवाद को राजनीति में स्थापित करने के लिए इसका उपयोग किया। बसपा, सपा मूलतः जातिवादी पार्टियां ही हैं न कि जातिविरोधी दल। वास्तव में जाति-विरोध की राजनीति जातीय अस्मिता को और जातीय एकता व ध्रुवीकरण को मजबूत करने का एक जरिया है।
पिछले कई दशकों से और खासकर 1980 के बाद से राजनीतिक समझ के लिए अस्मितावादी विमर्श का सर्वाधिक बोलबाला रहा है। आजाद भारत के बाद में गैर-कांग्रेसवाद का प्रमुख वैचारिक उपकरण यह रहा। जैसे-जैसे कांग्रेस पर हमले तेज होते गए वैसे-वैसे यह अस्मितावादी विमर्श भी हावी होता गया। यहां इस पर विस्तार से लिखने का समय नहीं है लेकिन जैसे राष्ट्रवाद और साम्प्रदायिक समाज को देखने समझने का एक वैचारिक टूल है वैसे ही यह अस्मितावादी विमर्श भी। इसमें लघु यथार्थ/सीमित सच को व्यापक यथार्थ/वृहत्तर सच के ऊपर इस तरह से आरोपित किया जाता है कि वह लघु यथार्थ ही सबसे महत्त्वपूर्ण कारक या कारण मान लिया जाता है सामाजिक परिवर्तन का। तो इस अस्मितावादी राजनीति का देश के तमाम हिस्सों में अलग-अलग प्रभाव हुआ और तमाम क्षेत्रीय अस्मितावादी नायक उभरे। इस अस्मितावादी विमर्श आधारित राजनीतिक पार्टियों ने राष्ट्रीय विकल्प बनने के लिए राजनीतिक सत्ता उपभोग हेतु गठबंधन भी बनाए। वामपंथी पार्टियां भी इसमें अपनी गणित के अनुसार जुड़ती या अलग होती रहीं।
जैसे-जैसे 1990 के साथ कांग्रेस कमजोर पड़ती गयी तो कांग्रेस के थिंक टैंक के बहुत से लोग इन अस्मितावादी पार्टियों के साथ सहयोग व गठजोड़ की वकालत करने वाले हो गए। उनमें राजनीतिक सत्ता का लोभ था। कांग्रेस ने अपनी आंतरिक कमजोरियों और सांगठनिक कमियों को दूर करने के बजाय सत्ता-लाभ हेतु शॉर्ट कट अपनाया और इनसे मैत्री भाव बढ़ाया और इन्हें अपनी राजनीतिक सत्ता में फायदे दिए। इस सबका परिणाम यह हुआ कि यह अस्मितावादी विमर्श कांग्रेस की वैचारिकी में स्थान पाता गया। कांग्रेस की मूल वैचारिकी खो गयी।
जिस पार्टी के पास महात्मा गांधी, नेहरू जैसे राष्ट्रवादी नायक थे वह उस अस्मितावाद में फंस गई जिसका जन्म और विकास ही कांग्रेस विरोध पर हुआ था। कांग्रेस का यह मूल वैचारिक संकट बन गया जिससे कांग्रेस की अपनी वैचारिक धार ही कुंद होती गयी। कांग्रेस में अपनी मूल वैचारिकी का आत्मविश्वास जाता रहा और समाज देश पर उसका असर कम होता गया।
प्रियंका गांधी की उत्तर प्रदेश कांग्रेस को खड़ा करने की सारी नेकनीयती और प्रयासों का वांछित परिणाम न निकलने की यह कुछ वजहें हैं जिन पर उन्हें ध्यान देना होगा। संक्षेप में, क्या करना जरूरी है-
1. जन आंदोलन को संगठन विस्तार का सबसे जरूरी तरीका न मानना।
2. आइडेंटिटी पॉलिटिक्स की वैचारिक पैरोकारी से अलग हटना।
3. आधुनिक भारत निर्माण, भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के मूल्य, महात्मा गांधी, नेहरू की वैचारिकी को समझना और आत्मसात करना।
4. उत्तर प्रदेश कांग्रेस कार्यालय के पदाधिकारियों/कर्मचारियों को तुरंत उनकी जिम्मेदारियों से मुक्त करना। अगर राहुल या प्रियंका पहले स्वयं संतुष्ट होना चाहें तो उनके खिलाफ निजी तरीकों से जांच कराने का भी रास्ता उनके पास है।
लेखक इतिहास के अध्येता व शिक्षक हैं। संपर्क: alokbajpaihistory@gmail.com