1962 के युद्ध के बाद पहली बार भारत-चीन सीमा, जो असल में भारत-तिब्बत सीमा है परन्तु तिब्बत पर 1951 से चीन का कब्जा चला आ रहा है, पर कोई भारतीय सैनिक शहीद हुआ। भारत और चीन के बीच बाकायदा लिखित समझौता था कि उनके सैनिक एक-दूसरे पर गोली नहीं चालाएंगे। कहां तो हम मांग कर रहे थे कि भारत और पाकिस्तान के बीच भी ऐसा ही समझौता हो लेकिन नरेन्द्र मोदी की सरकार की विदेश नीति की असफलता का परिणाम है कि चीन सीमा पर तो सैनिक मारे ही गए, अब तो नेपाल सीमा पर भी हमारा एक नागरिक शहीद हो गया है और पहली बार नेपाल सीमा, जिसके आर-पार अभी तक आने-जाने की खुली छूट थी, पर सैनिकों को तैनात कर रहा है।
नरेन्द्र मोदी की सरकार जिस दिन से बनी है सारा जोर राष्ट्रवाद पर है। दुश्मन को दो टूक जवाब देने, उसको नीचा दिखाने, उसके घर में घुस कर मारने, जैसी बातें बता कर हमें गौरवान्वित महसूस कराया जाता रहा है। दुश्मन से बातचीत करना कमजोरी समझा जाता है, हालांकि चीन बातचीत से ही पीछे हटा है। अब जब नेपाल चीन के ज्यादा करीब चला गया है हम उसे समझा रहे हैं कि भारत और नेपाल की साझा संस्कृति है। यह काम पहले ही कर लिया गया होता तो यह नौबत नहीं आती कि हमें लगभग चुनौती देते हुए नेपाल ने अपना नक्शा परिवर्तित करके लिपुलेख, लिम्पियाधुरा व कालापानी का वह हिस्सा अपने में मिला लिया जो भारत अपना मानता आया है। क्या अब हम नेपाल से युद्ध करेंगे? क्या युद्ध ही इन समस्याओं का हल है?
यह भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रवाद की राजनीति को अति तक ले जाने का परिणाम है, जिसमें बार-बार राष्ट्रवाद की भावना का दोहन कर चुनाव जीतने का प्रयास किया जाता रहा है, कि हमारे पड़ोसियों के साथ सम्बंध खराब हो गए हैं। नरेन्द्र मोदी ने बालाकोट हमले के बाद लोकसभा के पहले चुनावी सभा में युवाओं से अपील की कि वे अपना पहला मत देश के सैनिकों के नाम पर दें। सेना का इस तरह चुनावी राजनीति के लिए इस्तेमाल सेना के मनोबल के लिए कितना ठीक है यह सोचने वाली बात है? सेना का उत्साह बढ़ाने के लिए अपनी छुट्टी मनाने सीमा पर जाना एक बात है लेकिन अगर उसका उद्देश्य राजनीतिक दोहन है तो उसकी गम्भीरता खत्म हो जाती है। नरेन्द्र मोदी छह साल से सेना को मजबूत करने की बात करते रहे लेकिन हकीकत यह है कि चीन ने हमारे बीस सैनिक मार डाले और हम उन्हें बचा न पाए। पाकिस्तान सीमा पर लगातार हमारे लोग मर ही रहे हैं।
नागरिकता संशोधन अधिनियम बना कर साम्प्रदायिक राजनीति करने का परिणाम है कि बांग्लादेश भी हमसे नाराज हो गया है। अमित शाह घुसपैठियों को बाहर निकालने की बात कर भाजपा के सम्भावित मतदाताओं को तो लुभा सकते हैं लेकिन उनकी संकीर्ण समझ में यह बात नहीं आती है कि बंग्लादेश इस बात से विचलित होता है।
जिस तरह सीमा पर जवानों के लम्बे समय के बाद इतनी बड़ी संख्या में मारे जाने की घटना हुई, उसी तरह उत्तर प्रदेश में आठ पुलिसकर्मियों को विकास दूबे नामक दहशतगर्द के बदमाशों ने मौत के घाट उतार दिया जबकि योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री बनने के बाद से ही बदला लेने की राजनीति कर रहे हैं। उन्होंने फिल्मी अंदाज में घोषणा की थी कि अपराधियों को ठोक दिया जाएगा, जबकि न तो उन्हें न ही उनकी पुलिस को किसी को मारने का अधिकार है। उनके कार्यकाल में करीब सौ तथाकथित अपराधियों को मुठभेड़ में मार डाला गया। इसके बाद ऐलान किया गया कि बदमाशों का सफाया हो गया है अथवा वे अपनी अपनी जमानत रद्द करा कर जेल पहुंच गए हैं। किंतु सवाल यह है कि विकास दूबे कैसे छूट गया या उसे क्यों छोड़ा गया?
असल में मुठभेड़ में मारे गए ज्यादातर तथाकथित अपराधी दलित, अन्य पिछड़ा वर्ग या अल्पसंख्यक समुदाय से हैं जबकि भाजपा दावा करती है कि वह जातिवाद की राजनीति नहीं करती। सवर्ण बदमाशों को छोड़ दिया गया था क्योंकि इन्हें लगता है कि यह उनकी सरकार है। इसके अलावा और क्या कारण हो सकता है कि योगी के ’ठोक दो’ अभियान से विकास दूबे बच गए?
यह भी गौर करने वाली बात है कि जबकि 2011 में नीतीश कुमार को भ्रष्ट आई.ए.एस. अधिकारी एस.एस. वर्मा के खिलाफ कार्यवाही करनी थी तो उन्होंने उनके घर को सरकार के कब्जे में लेकर वहां महादलित बच्चों हेतु एक प्राथमिक विद्यालय खोला जबकि योगी ने विकास दूबे का घर गिरवा दिया व उसकी गाड़ियां चकनाचूर करवा दीं।
नागरिकता संशोधन अधिनियम व राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर के खिलाफ आंदोलन में शामिल लोगों के खिलाफ योगी आदित्यनाथ ने बदले की भावना से कार्यवाही की। हिंसा के दौरान हुई क्षति की भरपाई के लिए एक अध्यादेश जारी किया गया लेकिन गिरफ्तारियां ज्यादातर निर्दोष लोगों की हुईं जिनका हिंसा से कोई लेना-देना नहीं था।
सोशलिस्ट पार्टी (इण्डिया) के प्रदेश अध्यक्ष एडवोकेट मोहम्मद शोएब, सेवानिवृत आइपीएस एस.आर. दारापुरी, कांग्रेस पार्टी की सदफ जफर, शिक्षक राॅबिन वर्मा, संस्कृतिकर्मी दीपक कबीर, शिक्षक पवन राव अम्बेडकर, शिक्षाविद् कल्बे सिब्तैन, शिया मौलाना सैफ अब्बास व अन्य निर्दोष लोगों के खिलाफ उपर्युक्त आंदोलन में हिस्सा लेने के नाम पर फर्जी मुकदमा लिखा गया, वे जेल भेजे गए जहां से जमानत पर छूटे हैं। उनको अवैध वसूली के मांगपत्र भेजे गए हैं और सम्पत्ति कुर्क किए जाने की धमकी दी जा रही है। माहेनूर चौधरी नामक कबाड़ व्यापारी व धर्मवीर सिंह की कपड़े की दुकानें सील कर दी गई हैं। कलीम नामक रिक्शाचालक को वसूली के मांगपत्र के जवाब में रकम न जमा कराए जाने के कारण पुनः जेल भेज दिया गया है।
बिना मुकदमे की सुनवाई किए हुए और फैसला आने से पहले यह कैसे तय हो सकता है कि उपर्युक्त लोग हिंसा या तोड़-फोड़ के दोषी हैं और उनसे वसूली की जानी चाहिए। एडवोकेट शोएब व एस.आर. दारापुरी तो 19 दिसम्बर, 2019 को अपने अपने घरों में नजरबंद थे और नजरबंद व्यक्ति कैसे किसी तोड़-फोड़ करने की घटना में शामिल हो सकता है जिससे नुकसान की भरपाई उससे की जाए? जबकि नागरिकों से अपेक्षा की जा रही है कि कोरोना के आंतरिक संकट व चीन के कारण सीमा पर उत्पन्न संकट के दौर में लोग सरकार का सहयोग करें लेकिन भाजपा की केन्द्र व राज्य सरकारें राजनीति करने से इस दौर में भी बाज नहीं आ रही हैं। आखिर सरकार की ऐसी कौन सी मजबूरी है कि नागरिकता संशोधन अधिनियम व राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर के खिलाफ आंदोलन में शामिल लोगों को एक-एक करके गिरफ्तार किया जा रहा है, जैसा कि कांग्रेस पार्टी के उत्तर प्रदेश के अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ के अध्यक्ष शहनवाज आलम के साथ किया गया, अथवा पूछताछ के नाम पर आतंकित किया जा रहा है और अवैध वसूली के मांग पत्र भेजे जा रहे हैं? इसके अलावा राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारों से मतभेद रखने वाले बुद्धिजीवियों जैसे डाॅ. बी.आर. अम्बेडकर के परिवार के प्रोफेसर आनंद तेलतुम्बडे व गौतम नवलखा को भी इसी दौर में, जबकि जेलों में कोरोना का खतरा देखते हुए कैदियों की संख्या कम की जानी चाहिए थी, को जेल भेज दिया गया।
भाजपा की सरकारों को अपना राजनीतिक एजेण्डा छोड़कर फिलहाल देश के अंदरूनी व बाहरी संकट पर ध्यान देना चाहिए।
लेखक सोशलिस्ट पार्टी (इण्डिया) के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं।