करोड़ों प्रवासी भारतीयों की रोज़ी-रोटी को खतरे में डाल रही है घरेलू साम्प्रदायिकता


क्या आपको मालूम है कि आजकल अरब देशों में क्या चल रहा है? अगर हालात बिगड़ते रहे तो वहां काम करने वाले लाखों भारतीयों का कारोबार नुकसान झेल सकता है. बहुत सारे लोग अपनी रोज़ी-रोटी से वंचित हो सकते हैं. जो वहां जाकर कमाई करने के लिए सोच रहे हैं, उनका सपना अधूरा रह जायेगा. इतना ही नहीं, इन देशों के साथ भारत के व्यापारिक और राजनीतिक संबंध भी ख़राब हो सकते हैं.

भारत का कितना आर्थिक और राजनीतिक नुकसान होगा यह तो अभी विश्वास के साथ नहीं कहा जा सकता मगर देश की बदनामी हो रही है, जिसके लिए सिर्फ वे लोग ज़िम्मेदार हैं जिनको लगता है कि मुसलमान को नीचा दिखा कर उनका स्थान ऊंचा हो जाएगा. इनको लगता है कि मुसलमान के चेहरे पर कीचड़ फेंककर उनका अपना गन्दा चेहरा चमकाया जा सकता है, मगर पासा कभी उलटा भी पड़ जाता है.

अरब जगत में आजकल सोशल मीडिया पर एक ‘कैम्पेन’ चल रहा है. इसके निशाने पर भाजपा के दक्षिणी बेंगलुरु से सांसद तेजस्वी सूर्य हैं. 29 साल के सूर्य आरएसएस से जुड़े हुए हैं और वह कर्नाटक हाई कोर्ट में वकील भी हैं. उनके चेहरे पर हंसी और भोलापन अक्सर दिखाई देता है मगर इसकी तह में मुसलमानों के खिलाफ नफरत का बारूद दबा है.

उन्होंने पांच साल पहले ट्विटर पर एक पोस्ट किया था जिसमें उन्होंने अरब महिलाओं के लिए बेहद घटिया शब्दों का प्रयोग किया था, कि “अरब की 95 प्रतिशत महिलाओं ने पिछले सैकड़ों सालों से सेक्स में चरम सुख (ऑर्गेज्‍म) का अनुभव नहीं किया है. हर माँ ने सेक्स संबंध बनाकर सिर्फ बच्चे पैदा किए हैं. उन्होंने प्यार का अनुभव नहीं किया है”.

उनके इस ज़हरीले ट्वीट का असर देर से हुआ. आज नहीं तो कल अल्पसंख्यकों विरोधी राजनीति का ‘साइड इफ़ेक्ट’ तो सामने आना ही था. भारत में चल रही मुस्लिम विरोधी गतिविधियों से अरब जगत आज काफी क्षुब्ध दिख रहा है.

पहले भी उन्होंने अपनी आपत्ति ज़ाहिर की थी मगर अब सोशल मीडिया के दौर में इसका असर काफी ज्यादा दिख रहा है. अक्सर भारत सरकार और उसकी पालतू मीडिया ने उनको ध्यान से सुनने के बजाय उल्टा अरब देशों को ही निशाना बनाया, कि “आप अपने गिरेबान में झांकिए”.

समस्या से लड़ने के बजाय ‘कट्टर राष्ट्रवाद’ का सहारा लिया गया. सत्तावर्ग और मीडिया ने उल्टे हायतौबा मचाया और कहा कि ‘यह भारत का आंतरिक मामला है… भारत में अल्पसंखक सबसे ज्यादा सुरक्षित हैं….जो भारत के अल्पसंख्यक समुदाय के बारे में सवाल उठा रहे हैं पहले उनको अपनी माइनॉरिटी की फ़िक्र होनी चाहिए… जो देश खुद लोकतंत्र नहीं है वह कैसे भारत पर उंगली उठाने की हिम्मत कर सकता है…।’

कहते हैं कि ज्यादा फैला हुआ इन्फेक्शन बिना सर्जरी के दूर नहीं होता. सर्जरी तो हुई नहीं और साम्प्रदायिकता का इन्फेक्शन बढ़ता गया. हाल के दिनों में तेजस्वी सूर्य का सालों पुराना ट्वीट खोद कर वापस निकाल लिया गया. सोशल मीडिया पर ‘इस्लामोफोबिया’ के खिलाफ पोस्ट ‘ट्रेन्ड’ किया जाने लगा. जब उनको लगा कि मामला काफी आगे बढ़ गया है तो सूर्य ने अपना ट्विट हटा लिया, मगर इससे छूटा हुआ तीर वापस थोड़े आ सकता था!  

सोशल मीडिया पर बड़ी संख्या में फॉलो होने वाले कुवैत के अब्दुर रहमान निसार ने इस मुहीम को अगली पंक्ति से नेतृत्व दिया है. उन्होंने कई पोस्ट डाले हैं. 18 अप्रैल को उन्होंने एक ट्वीट में प्रधानमंत्री कार्यालय को ‘टैग’ किया और उनको संबोधित करते हुए कहा कि “प्रधानमंत्री… एक भारतीय सांसद ने अरब महिलाओं पर आरोप लगाया है और हम अरब के लोग उनको हटाने की मांग करते हैं.”

इससे दो रोज़ पहले उन्होंने कोरोना संक्रमण के लिए भारतीय मुसलमानों को निशाना बनाये जाने पर भी एतराज ज़ाहिर किया और कहा कि “कुवैत में भारतीय समुदाय कोरोना संक्रमण से सबसे ज्यादा पॉजिटिव पाया गया है मगर उनका इलाज कुवैत के बेहतरीन अस्पताल में किया जा रहा है”.

इसके अतिरिक्त उन्होंने अरब दुनिया से भारत को हो रहे करोड़ों डॉलर की  कमाई को भी याद दिलाया और यह कहना चाहा कि तेजस्वी सूर्य जैसे लोग इसको चौपट कर सकते हैं.

बीती 16 अप्रैल का उनका यह ट्वीट पढ़िए:

“हर साल, 55 बिलियन डॉलर खाड़ी के देशों से भारत के खाते में जाता है जबकि 120 बिलियन हर साल सभी मुस्लिम देशों से भारत को जाता है…इन देशों में भारतीय, विशेषकर हिन्दुओं, के साथ अच्छा सुलूक किया जाता है…।”

‘इस्लामिक आर्गेनाइजेशन आफ कोऑपरेशन’ (आई.वो.सी.) के एक मानवाधिकार संगठन (आइपीएचआरसी) ने भी 19 अप्रैल के एक ट्वीट में भारत सरकार से कहा है कि वह “प्रताड़ित” मुसलमानों के मानवाधिकार की सुरक्षा करे. उसने भारत में बढ़ रहे “इस्लामोफोबिया” पर भी चिंता व्यक्त की है.

17 अप्रैल को कुवैत के मुजम्मिल-उस-शारिका ने यहां तक कहा है कि वह संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार संगठन (यूएनएचआरसी) में भारतीय मुसलमानों की समस्या को लेकर जाएंगी. वहीं एक दिन पहले दुबई में रहने वाली अरब अमीरात की राजकुमारी हेंद अल कासमी ने कहा: “आप इस जमीन से रोज़ी-रोटी भी कमाते हैं और आप हमारा मज़ाक भी उड़ाते हैं और हमारा अपमान भी करते हैं. इसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जाएगा”.

अगर आप इस तरह के और भी कमेन्ट पढ़ना चाहते हैं तो सोशल मीडिया पर सब मौजूद हैं. दो बातें इन सब चीज़ों से सामने आयी हैं. पहला, इस्लामोफिया को बरदाश्त नहीं किया जाएगा. सूर्य के बाद मशहूर गायक सोनू निगम के एक पुराने ट्वीट पर भी आपत्ति जतायी जा रही है जिसमें उन्होंने अज़ान पर आपत्ति ज़ाहिर की थी. इसके अलावा आरएसएस जैसे कट्टर हिंदुत्व संगठन को आतंकी कहा जा रहा है और इस पर प्रतिबन्ध लगाने की भी मांग उठ रही है. दूसरा, भारत में मुसलमानों के खिलाफ हो रहे ज़ुल्म से मुस्लिम जगत काफी परेशान है और इसको दूर नहीं किया गया तो यह भारत के लिए नुकसानदेह साबित हो सकता है.

इस्लामोफोबिया सोशल साइंस में प्रचलित एक ‘कांसेप्ट’ है जिसका सीधा मतलब होता है मुसलमानों के खिलाफ नफरत और द्वेष रखना जिसका कोई आधार नहीं है. जैसे आप अक्सर हिंदुत्व के नेताओं से सुनते हैं कि ‘मुस्लिम क्रूर होता है… वह गन्दा रहता है…वह लव-जिहाद कर हिन्दू लड़कियों का धर्म परिवर्तन करता है…वह देश का वफादार नहीं हो सकता…’, वगैरह वगैरह. यह सब इस्लामोफोबिया है अर्थात मुसलमान के खिलाफ वह डर और खौफ़ जो पूर्वाग्रह और अफवाह से ज्यादा कुछ नहीं है.

जॉन एल. असपिस्टो (Espisto) ने अपनी किताब “दी चैलेंजेज़ आफ प्लूरलिज्म (2011) में ब्रिटिश रनीमेड रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहा कि इस्लामोफ़ोबिया “मुसलमान और इस्लाम के खिलाफ खौफ़, नफरत और दुश्मनी का नाम है, जिसको बनाये रखने में कुंद पड़े विचार का एक सिलसिला काम करता है. यह मुसलमानों के प्रति नकारात्मक और हिकारत वाली स्टीरियोटाइप को ज़ाहिर करता है”.

कोई पूछ सकता है कि मुसलमानों के खिलाफ पूर्वाग्रह कैसे पैदा होता है? इसको समझने में अंग्रेजी और तुलनात्मक साहित्य के प्रोफेसर एडवर्ड सईद की रचना मददगार साबित हो सकती है. 1978 में प्रकाशित उनकी ‘मास्टरपीस’ किताब “ओरिएण्टलिजम” में सईद कहना चाहते हैं कि पश्चिम के लेखकों (ओरिएण्टलिस्टों) ने अपनी रचना में पूरब (जिसमें अरब दुनिया भी शामिल है) को अपने समाज का बिगड़ा हुआ और भटका हुआ बनाकर पेश किया है अर्थात् ‘वेस्ट’ “आधुनिक, तार्किक और सेक्युलर” है जबकि ‘ईस्ट’ “परम्परावादी, अन्धविश्वासी और धार्मिक है”.

बीजेपी एमपी तेजस्वी सूर्य भी इसी पूर्वाग्रह के शिकार हैं. वह ऐसा जानबूझ के कर रहे हैं क्योंकि उनकी राजनीति हिन्दू बनाम मुसलमानों की है. यह तो हिंदुत्ववादियों की दलील रही है कि “हिन्दू लिबरल, सेक्युलर और दयालु होता है, जबकि मुस्लिम कट्टर, जुनूनी और क्रूर” होता है.

क्या मुस्लिम विरोधी राजनीति से देश का भला होगा? बिलकुल नहीं होगा. यह देशहित में नहीं है. अरब मुल्कों से हमारे संबंध हजारों साल पुराने हैं. भारत के खान-पान, भाषा और साहित्य, कलाकारी और फन-ए-तामीरी (आर्किटेक्चर) सब पर अरब की छाप है.

खुद हिंदी भाषा पर अरबी भाषा का असर देखिये. “कुर्सी”, “किताब”, “दुकान”, “मैदान”, “हवा”, “दुनिया” और फिर “हलवा” और “मुहब्बत” जैसे शब्द भी अब सिर्फ अरबी नहीं रह गये हैं. जिस शेरो शायरी के बिना हम जी नहीं सकते वह भी अरब की ही देन है.

अरब देशों से भारत के आर्थिक संबंध कल भी थे और आज भी हैं. आज भी दुनिया में सबसे ज्यादा भारतीय कहीं काम कर के रोज़ी-रोटी कमाते हैं और देश की आमदनी में योगदान करते हैं तो यह अरब देश ही हैं. यूरोप और अमेरिका में तो इसे कम ही लोग काम करते हैं.

आप ही सोचिये भारत में चल रही मुस्लिम विरोधी राजनीति कैसे देशहित में है? अगर नहीं, तो सांप्रदायिकता की आग से खेलने वालों के खिलाफ नकेल क्यों नहीं कसी जानी चाहिए?


अभय कुमार जेएनयू से पीएचडी हैं. इनकी दिलचस्पी माइनॉरिटी और सोशल जस्टिस से जुड़े सवालों में हैं. आप अपनी राय इन्हें debatingissues@gmail.com पर भेज सकते हैं.


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