तीसरे फेज की वोटिंग के दिन कई पत्रकारों से मेरी बात हुई। कई ने मुझसे सीधा पूछा कि नतीजों के बारे में मेरी क्या राय है, क्या अनुमान है? मैं चूंकि चुनावी नतीजों के बारे में भविष्यवाणी नहीं करता, तो मना ही किया, लेकिन बहुत ज़ोर देने पर अपनी राय दी। वह राय थी कि बिहार में या तो छत्तीसगढ़ जैसा परिणाम होगा या उत्तर प्रदेश जैसी स्थिति बनेगी, लेकिन संभावना यूपी के ही दोहराए जाने की है।
यह भविष्यवाणी एक लिहाज से गलत हुई है। बिहार की जनता ने बेहद परिपक्व और रणनीतिक रूप से वोटिंग की है- काफी सुलझा और समझदारी से भरा हुआ यह कदम है। बाहुबली लगभग हार रहे हैं। लवली आनंद से लेकर शत्रुघ्न सिन्हा के बेटे और शरद यादव की बेटी की हार बताती है कि बिहार ने नेपोटिज्म को नकार दिया है। मतदाता अपराध से डरा नहीं है और तेजस्वी को मजबूत तो किया ही है, लेकिन इतना नहीं कि वह बिहार की रास अपने हाथ में संभाल सकें।
तेजस्वी इस चुनाव में विजेता बनकर उभरे हैं क्योंकि वह नीतीश के प्रतिद्वंद्वी के तौर पर वोट जुगाड़ पाए; क्योंकि प्रधानमंत्री को भी उन पर हमलावर होना पड़ा- जंगलराज के युवराज कहना पड़ा; क्योंकि फायरब्रांड भाजपा नेता योगी आदित्यनाथ को भी कई सभाएं करनी पड़ीं जिसके चलते मसला आखिरकार सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का तो हो ही गया। आरजेडी को इसीलिए इतनी अधिक सीटें और 20 फीसदी से अधिक वोट आ रहे हैं।
तेजस्वी अगर इस चुनाव के एकल विजेता हैं, तो मुख्यमंत्री नीतीश कुमार हार के सर्वाधिक उचित व्यक्तित्व। वैसे तो राजनीति में नैतिकता और शर्म नामक शब्द होते नहीं, लेकिन नीतीश को नतीजे देखते हुए खुद ही अब संन्यास ले लेना चाहिए, केंद्र की राजनीति चाहें तो करते रहें। जनता ने नीतीश को धूल चटा दी है। सीधे शब्दों में यह जनादेश किसी के लिए नहीं, नीतीश और एकमात्र नीतीश के खिलाफ है। उन्हें इसका सम्मान करना चाहिए।
भाजपा क्लियर विनर बनकर उभरी है, लेकिन इसका वह कितना फायदा उठा पाएगी यह कहना मुश्किल है। भूपेंद्र यादव का गुट सीधे तौर पर अपनी पीठ थपथपा कर सारी लाइमलाइट उड़ा लेना चाहेगा, लेकिन प्रदेशाध्यक्ष संजय जायसवाल का गुट भी इतनी आसानी से राह छोड़ने वाला नहीं है। भाजपा में अधिकांश को डर है कि कहीं फिर से परमानेंट डिप्टी सीएम सुशील मोदी ही केंद्रस्थ न हो जाएं और बिहार भाजपा फिर से उसी एकरस ढर्रे पर न चलने लगे। यह बिहार भाजपा के लिए बदलाव का एक बड़ा मौका है, प्रधानमंत्री की वक्र दृष्टि भाजपा के गुनहगारों पर है, लेकिन सज़ा इस बार मिलती है या नहीं यह देखने की बात होगी।
बिहार भाजपा की नाव में इतने छेद थे कि इसका पार उतरना तो दूर, मतदान की नदी में सुरक्षित रहना भी बड़ी मुश्किल बात थी। इसी से संबंधित मसले पर बात करें तो हमें पता चल जाएगा कि सारे विद्वान (एक्जिट पोल की बात नहीं कर रहा, क्योंकि उससे बचकानी और वाहियात बात कुछ नहीं होगी) गलत कहां हो गए।
1. पहली बात, दिल्ली में बैठकर विद्वान बिहार की जनता का मूड भांपते रहे। जो बिहार पहुंचे भी, वे पटना तक ही रह गए। उनके लिए बिहार में पत्रकारिता का मतलब गमछा डालना, लिट्टी खाना और ‘बिहार में का बा’ पूछ लेना मात्र रह गया था। ज़मीन से उनका कोई कनेक्ट नहीं था। जो पत्रकार ज़मीन तक पहुंचे, वे नतीजों के आसपास भी पहुंच गए। बिहार की ज़मीन से होकर लौटे किसी भी पत्रकार से पूछिए, वह बताएगा कि तेजस्वी की केवल हवा थी। यह हवा बनायी गयी थी।
2. दूसरी बात, महिलाओं ने लगभग हरेक चरण में वोटिंग अधिक संख्या में की। महिलाओं का वोट मोदी-नीतीश की जोड़ी को गया। नीतीश कुमार भले ही शराबबंदी में बुरी तरह असफल रहे, लेकिन ग्रामीण महिलाओं का एक बड़ा हिस्सा अब भी उनका मुरीद है। केंद्र सरकार की योजनाओं के चलते मोदी फैक्टर ने आरजेडी तक के वोट बैंक में तोड़फोड़ की, आप मानें या न मानें।
3. तेजस्वी का फैक्टर और आंधी सिर्फ उनके पेड सलाहकारों, पेड पत्रकारों, सोशल मीडिया और कुछ लिक्खाड़ों की खड़ी की हुई थी। यहां तक कि दिल्ली के कुछ बड़े पत्रकार भी महीने भर से तेजस्वी की हवा बनाने और दिल्ली एक्सपोर्ट करने के लिए पटना में डेरा डाले हुए थे। यह बड़ी बात रही कि ये सब मिलकर आरजेडी को इतनी सीटें दिलवा सके, लेकिन उनकी आंधी या तूफान जैसा कुछ भी नहीं था।
फाइनल नतीजे देर रात तक जो भी आएं, नीतीश कुमार द्वारा 2015 में आरजेडी को दी हुई संजीवनी व्यक्तिगत तौर पर भले महंगी न पड़े, लेकिन वे भाजपा को एक परमानेंट विरोधी औऱ सिरदर्द तो दे ही गए हैं। चूंकि नीतीश के जाने के बाद जद-यू का नामलेवा तो कोई नहीं बचेगा, लेकिन तेजस्वी के पास अभी उम्र है, मौका भी है और समीकरण तो खैर हइए है…।
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