एक काला पहाड़ के पापों का बोझ भी सबको बांटना ही पड़ेगा…


28 मार्च को जब पहले लॉकडाउन के चार दिन भी नहीं बीते थे, तब भी NH-24 पर यही दृश्य था। रवींद्रनाथ ठाकुर के शब्दों में- ‘महासमुद्र’ जो ठाठें मार रहा था, सड़कों पर। यूपी और बिहार की जनता थी, मूलतः जिनको ‘बेदिल-दिल्ली’ ने ठुकरा दिया था। कल ग़ाज़ियाबाद में फिर से मानवों का महासमुद्र उमड़ पड़ा था, तमाम ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ और ‘दो गज की दूरी’ को धता बताते हुए। उसमें आज भी वे ही बिहार-यूपी के लोग थे, जो अपने राज्य लौटने के लिए निबंधन कराने आये थे।

28 मार्च को लॉकडाउन-1 था, उसके चार दिन हुए थे। आज लॉकडाउन-4 है, उसका दूसरा दिन है। तब लोगों ने कहा था कि सरकार ने चार घंटे से भी कम का समय देकर गलत किया, सरकार को तैयारी के साथ लॉकडाउन करना चाहिए था। आज लगभग दो महीने बाद लोगों ने कहा- सरकार में समन्वय और तैयारी का घोर अभाव है।

सड़क पर तब भी मजदूर थे, आज भी हैं। मैं तब भी लखनऊ के अपने मकान में बैठकर लैपटॉप पर कुछ लिख रहा था, आज भी लिख रहा हूं। मैंने तब भी कहा था कि योगी आदित्यनाथ ने पैंडोरा का बॉक्स खोला है और उनके सलाहकार एक नंबर के जाहिल हैं। अब चीज़ें हाथ से निकल चुकीं, तब भी मैं यही कहूंगा कि यूपी के सीएम को इन सलाहकारों के रहते दुश्मन की जरूरत नहीं है।

कोरोना के इस पूरे संकटकाल में, यानी अब तक मैंने मजदूरों के दुख-दर्द पर कुछ नहीं लिखा। इसलिए नहीं लिखा क्योंकि डर चहुंओर व्याप्त है। एक तो चौतरफा इतना दुख, इतना कोरोना, इतनी कविताएं, इतने वेबिनार, इतनी वीडियो कांफ्रेंसिंग, बाइट्स, टीवी, मास्क, सैनिटाइजेशन, पैकेज, आर्थिक स्टिम्युलस और सूचनाएं हैं, इतना ज्ञान है कि कुछ कहते हुए आदमी डरता है। दूसरे, दर्द भी खेमों में बंटा हुआ है।

मजदूरों पर लिखा तो किसानों पर क्यों नहीं? इरफान पर आप कैसे लिख सकते हैं? ऋषि कपूर पर क्यों नहीं लिखा? उस समय क्यों नहीं लिखा, अब क्यों लिख रहे हो? क्षणजीवी समय में दरअसल आंकड़े इतने विशाल हैं कि वे हमारे दिल तो छोड़िए, दिमाग तक को नहीं छू पाते। इतने मसले हैं कि किसी एक पर टिककर, सोचकर, प्रतिक्रिया देने का समय कहां है। कहीं दूसरे मसले पर कुछ ट्वीट न किया तो मुद्दा बुरा न मान जाएगा! हमें हरेक चीज़ पर, हरेक विषय और हरेक आदमी पर बोलना है, हैशटैग चलाना है, ट्वीट करना है, लेकिन हमारी संवेदना के तार उस एक ट्वीट, एक पोस्ट तक ही झंकृत होते हैं या शायद वह भी नहीं।

ओ माइ गॉड! इरफान डाइड… ओहो, जल्दी से एक ट्वीट, हैशटैग- ‘पर्सनल लॉस’! ओहो, 20 लाख करोड़ रुपए का इकॉनॉमिक स्टिम्युलस, हुंह… ‘फक दिस गवर्नमेंट, दिस इज़ नॉट एनफ’, हैशटैग- मजदूर सड़क पर! ओहो, मोदीजी देश के लिए 18 घंटे काम कर रहे हैं और ये लिबरल-सिकुलर उनको कुछ कहेंगे? निकालो लाठी! हैशटैग- ‘भारत निर्माण’!

संख्याएं हमें अब आतंकित नहीं करतीं। हम उनके मायने ही नहीं समझते। चित्र हमें अब डराते नहीं। वे हमें क्योंकि छूते ही नहीं। वक्तव्य हमें आंदोलित नहीं करते, क्योंकि हम सुनते ही नहीं। किताबें हमें जकड़ती नहीं, क्योंकि हम पढ़ते ही नहीं। सिनेमा हमें पकड़ता नहीं, क्योंकि हम देखते नहीं।

केविन कार्टर आज होता तो शायद जी जाता। नहीं? आपको क्या लगता है? सूडान में भूख से मरते उस बच्चे और उसके मरने का इंतजार करते गिद्ध की तस्वीर ने कार्टर को पुलित्जर दिलवा दिया, लेकिन वह तीन महीने बाद ही खुदकुशी कर के मर गया क्योंकि किसी ने पूछ लिया- ‘उस बच्चे का क्या हुआ कार्टर’? वह सवाल कानों में उसके गूंजता रह गया, नींद हराम हो गयी, आखिरकार आखिरी नींद सोकर ही चैन आया उसको।

यहां तो हम 24 मजदूरों के ट्रेन-पटरी पर कटने के शोक से मुक्त होते ही हैं कि औरैया में ट्रक वाला कांड हो जाता है। अब एक ही दिल है साहब, कितनी जगह दुखी हों। चरैवेति-चरैवेति। एक दुख से आगे का दुख। फिर, अपनी पार्टी को भी तो सपोर्ट करना है, घेरना है, उसके हिसाब से अपनी संवेदना का बांट-बखरा करना है। समझते नहीं हो यार!

अभी देखिए, बात कहां से शुरू हुई और कहां पहुंच गयी? कहा था न, यह भारत है। यहां हर हिंदू पैदाइशी दार्शनिक और हर मुसलमान शायर होता है। बाकी पर शोध चल रहा है। अस्तु, मजदूरों का दर्द भी श्रेणीगत है। दो महीने और 20 लाख करोड़ के पैकेज के बाद भी वे सड़क पर क्यों हैं, यह कोई नहीं पूछ रहा है? जब हरेक राज्य का मुख्यमंत्री दावा कर रहा है कि उसने हालात को बिल्कुल संभाल लिया है, तो स्थिति इतनी बेकाबू क्यों है, यह कोई नहीं पूछ रहा। ऐसा भी इसलिए कि हमें प्रश्नों के उत्तर में कोई दिलचस्पी नहीं है, हम बस पूछने की ख़ातिर पूछ ले रहे हैं…आदतन… बला टली!

कोई मजदूर या प्रवासी अगर गुजरात से बिहार के लिए पैदल चल पड़ा है, तो गुजरात, बिहार और केंद्र, तीनों सरकारें दोषी हैं। गुजरात इसलिए कि उसने वह भरोसा नहीं दिया उस मजदूर को कि वह आराम से (या दिक्कत से भी) वहां जिंदा रह सकता है। बिहार इसलिए कि वह अपने मजदूर को समय रहते बुला न सका और केंद्र की सरकार इसलिए कि उसने पूरे देश में ऐसी सम-स्थिति क्यों न बनायी कि सड़कों पर उतरे लोग कहीं एक जगह टिकते, उसके भरोसे पर!

विमल मित्र ने कहा था, ‘पुण्यफल के समान पाप का फल भी बांट कर खाना पड़ता है। यदि एक राजा राममोहन राय या विवेकानंद का पुण्य पूरी मनुष्यता बांटती है, तो एक काला पहाड़ के पापों का बोझ भी सबको बांटना ही पड़ेगा।’

आज का जो ये मंजर है, वह इसीलिए क्योंकि हमने वस्तुनिष्ठता और तटस्थता को खो दिया है। हम हरेक मिनट पार्टीज़न हैं, पाले में बंटे हुए हैं।

प्रियंका वाड्रा अगर इस महाविपदा में यूपी को 1000 बसें देने का प्रस्ताव रखती हैं या तेजस्वी 50 ट्रेनों का वादा बिहार को करते हैं, तो इसके पीछे उनकी सदाशयता नहीं, बस मौजूदा सरकार को कठघरे में खड़ा करने की मंशा है।  

यूपी की सरकार अगर प्रियंका वाड्रा से बसों और उनके ड्राइवरों की सूची मांगती है, फिर आधी रात चिट्ठी भेजकर सुबह दस बजे तक खाली बसें भेज देने को कहती है तो यह सहकारिता के लिए नहीं, बल्कि इसलिए कि कांग्रेस और प्रियंका पर तंज कस सके।

नीतीश के सिपहसालार अगर तेजस्वी पर तंज कसते हैं तो इसलिए नहीं कि इससे बिहार का भला हो, बल्कि इसलिए कि कहीं सत्ता के पाये न ढीले पड़ जाएं।

ये तो नेता हैं, पर हम?

फिर से विमल मित्र के शब्दों में, ‘दोषी हम सभी हैं, मुलजिम हम सब हैं। हम अपराधी इसलिए नहीं कि अपराध से हमें घृणा है, न न… इसलिए कि हम दंड से डरते हैं। हम रॉटेन टू द कोर हैं।’

कहते हैं न, भारत में कोई भी तभी तक भ्रष्टाचारी नहीं है, जब तक उसको मौका नहीं मिला है!  


लेखक पत्रकार, अनुवादक और सोशल मीडिया कंसल्टेंट हैं

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5 Comments on “एक काला पहाड़ के पापों का बोझ भी सबको बांटना ही पड़ेगा…”

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