31 जुलाई… यह तारीख हिंदीभाषी जनता के लिए प्रेमचंद को याद करने की दीगर वजह उपलब्ध कराती है कि वह भारतीय साहित्य में अपने शानदार और जमीनी लेखक की उपस्थिति का जश्न मनाए।
मध्यकालीन भक्त संतों के बाद वे ऐसे पहले लेखक हैं जो अपने जीवन में उतने ही लोकप्रिय थे जितना अपनी मृत्यु के बाद के वर्षों में रहे। वे अपने पाठकों के बीच स्वीकार्य एवं आदरणीय बने रहे। इसके पर्याप्त कारण हैं। वे भारत और उसकी जनता से गहरे ढंग से जुड़े हुए लेखक थे और इसीलिए आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने उन्हें ‘भारत की जनता का परिचय लेखक’ कहा है। जिसे हम ‘हिंदी प्रदेश’ कहते हैं, उसकी यदि कोई वैचारिक भूमि और साहित्यिक दृष्टि अस्तित्व में है और उसके सोचने-समझने की कोई आधार भूमि विकसित हो सकी है, तो इसे सृजित करने में प्रेमचंद का स्थान अव्वल दर्ज़े पर स्थित है।
प्रेमचंद ने कहानियाँ लिखीं, उपन्यास लिखे, वैचारिक लेखों की श्रृंखला प्रकाशित की, अनुवाद किए और सबसे बढ़कर हंस जैसी पत्रिका निकाली।
‘बेस्टसेलर’ के मोह से ग्रस्त साहित्यिक दुनिया में भारत का कदाचित ही कोई ऐसा रेलवे जंक्शन होगा जहाँ उनके उपन्यास और कहानियों के संग्रह न बिकते हों। हिंदी प्रिंट की दुनिया में वे भक्त संतों के बाद ऐसे पहले लेखक हैं जिन्हें अर्ध-साक्षर और निरक्षर जनों ने अपने करीब पाया है। उत्तर भारत के गाँव-गिरांव जब शिक्षा से आलोकित होना शुरू हुए तो प्रेमचंद घर-घर, चौपाल और बैठकों तक पहुँच गए। इसके पहले यह गौरव तुलसीदास को मिला। कबीर को कबीरपंथी गृहस्थ आम जन के बीच ले गए। उनकी कहानियाँ पढ़कर सुनायी जाने लगीं- जोर और आपस आवाज़ में। प्रेमचंद ने आधुनिक हिंदी का लोकवृत्त शहर और देहात में समान रूप से बनाया।
1920 के दशक में जवाहरलाल नेहरू प्रेमचंद के पाठक थे। जेल में उनके उपन्यास नेहरू की पढ़ी जाने वाली किताबों में शामिल थे और बाद में प्रेमचंद ने नेहरू की अंग्रेज़ी रचनाओं का हिंदी में अनुवाद भी किया। यह बताता है कि नेहरू अपनी मानसिक बुनावट में वैसे अंग्रेज़ीदां नहीं थे जैसी छवि दिल्ली स्थित उनके चापलूसों ने बाद में बनायी और न ही हिंदी के लेखक प्रेमचंद देश-दुनिया से कटे हुए थे। यह एक लेखक का भविष्य के एक बड़े राजनेता से बौद्धिक लेनदेन था जो 1960 से पहले के भारत में एक सामान्य बात थी।
अपने युग के अनुरूप प्रेमचंद ने हिंदी, अंग्रेजी और उर्दू में आरम्भिक शिक्षा पाई थी। यहाँ युग का मतलब 1857 के बाद का भारत है जब भारत में अंग्रेजी राज संस्थागत हुआ। वह लाभ और शोषण की एक संरचना में तब्दील हुआ। उसने समाज के एक छोटे से तबके को शिक्षा और सरकारी नौकरियों की मार्फ़त थोड़ी सी सुविधा दी एवं इसके बदले में उनकी अबाध निष्ठा प्राप्त की।
प्रेमचंद का युग वह युग था जब अल्ताफ हुसैन हाली और महावीर प्रसाद द्विवेदी हिंदी-उर्दू की दुनिया की आधारभूमि बना रहे थे। बंगाल विभाजन होकर समाप्त हो चुका था। गांधी हमेशा के लिए भारत आ चुके थे और ब्रिटिश उपनिवेशवाद अपने चरम पर था। 1923 के बाद सम्प्रदायिकता ने नया रास्ता बनाना शुरू कर दिया था।
1920 से 1936 के दौर में जब प्रेमचंद लिख रहे थे तो भारत में रेलवे का अंतिम विस्तार हो रहा था और अंग्रेजों का समर्थन करने वाला एक अभिजात वर्ग अस्तित्व में आ चुका था। भारत के अंदरूनी इलाक़े सड़कों से जोड़े जा रहे थे। नकदी फसलें किसानों की परेशानियां बढ़ाना शुरू कर चुकी थीं और अब भारत में सिगरेट की फैक्ट्रियां लग रही थीं। गन्ना एक नकदी फसल बन चुकी थी और कोल्हू से पेरे जाने वाले गन्ने के गुड़-खांडसारी को हटाकर चीनी मिलों में बनने वाली सफेद चीनी छोटे कस्बों तक पहुँच रही थी।
इस सबने भारत के गाँवों में गन्ने की खेती करने वाले बड़े जमींदार और शहरों में मिल मालिक, बैंकर और दलाल पैदा किए। प्रेमचंद का उपन्यास गोदान उपनिवेशवाद के इसी सामाजिक आर्थिक विस्तार का इतिहास है।
जलियांवाला बाग हत्याकांड हो चुका था, अंग्रेजी शासन की राजनीतिक रियायतों ने रायसाहबों का एक नया वर्ग पैदा किया था। डाक्टर आंबेडकर विदेश से पढ़कर वापस आ चुके थे। उनके और उनसे भी पहले अछूतानंद के प्रयासों से दलित समुदायों में एक दबा-दबा सा आत्मविश्वास आ रहा था। स्त्रियाँ बाहर निकल रही थीं और वेश्याओं ने अपनी नियति एक बन रहे राष्ट्र में तलाशनी शुरू कर दी थी।
प्रेमचंद उत्तर भारत के इसी सामाजिक वातावरण में अपना कथा साहित्य रच रहे थे। इसकी हर धड़कन को उन्होंने अपने साहित्य में न केवल जगह दी बल्कि उन्हें लोकप्रिय और गंभीर साहित्यिक कल्पनाओं का हिस्सा बना दिया। यह उनका बड़ा योगदान है। उन्होंने साहित्य की सामाजिकी को बदल दिया। आमजन साहित्य के केंद्र में आया। लखनऊ में गोबर और प्रोफेसर मेहता दोनों ही रह रहे थे और उनकी जिंदगी की त्रासदी को प्रेमचंद अपने उपन्यास में लाए। शहरी जीवन का खोखलापन जिस तरह से उनके उपन्यासों में आता है, वह भारतीय कथा साहित्य में अभूतपूर्व है। शहरों के विद्वज्जन और बीमा के दलालों की दोस्ती को उन्होंने उघाड़कर रख दिया।
प्रेमचंद ने 1918 में ‘सेवासदन’ उपन्यास लिखा जिसे मूल रूप से उन्होंने ‘बाजारे-हुस्न’ नाम से पहले उर्दू में लिखा था लेकिन इसे देवनागरी हिंदी में ‘सेवासदन’ के शीर्षक से प्रकाशित कराया गया। यह वही दौर था जब विक्टोरियन नैतिकताबोध से भारतीय समाज के ऊपर कानून लाद दिए गए थे और भारतीय पुरुष समाज सुधारक जैसे मान चुके थे कि स्त्री का उद्धार करना उनका पुनीत कर्तव्य है। दूसरी तरफ वेश्याओं और नाचने-गाने से जीविका चलाने वाली महिलाओं का अपना विश्वबोध था। देश के कई बड़े नेताओं सहित विवेकानंद और महात्मा गांधी भी वेश्यावृत्ति को बुरा मानते थे। इस समाज का रवैया हम ‘सेवासदन’ में देख सकते हैं। वहाँ उन्हें एक मुक्तिकामी परियोजना से जोड़ने का एक आग्रह भी उपजा।
1918 में ही पहला विश्वयुद्ध समाप्त हुआ और अंग्रेजी शासन अपने चरम रूप में सामने आने लगा। उदारवादी भारतीय जनों को आशा थी कि ब्रिटेन भारत को राजनीतिक रियायत देगा लेकिन जगह-जगह किसानों को नए-नए टैक्सों से दबाया जाने लगा। विरोध करने पर लाठीचार्ज होना अलग बात थी। भारतीय उच्च वर्ग को रायबहादुरी भी इसी समय थोक भाव में दी गयी। उपनिवेश ने उच्च जातीय मध्यवर्ग के लिए कई छद्म अवसर और दायरे उपलब्ध कराए। वह अंग्रेज़ी शासन के साथ खुश रहने लगा। प्रेमचंद के उपन्यासों और कुछ कहानियों में यह वर्ग स्पष्ट रूप से दिखता है।
बीसवीं शताब्दी के शुरुआती दशकों में अवध में किसान आंदोलनों की श्रृंखला चल पड़ी थी। प्रतापगढ़ में बाबा रामचंद्र किसानों से कह रहे थे कि वे अंग्रेजों को टैक्स न दें।
प्रेमचंद ने प्रेमाश्रम और रंगभूमि में इन किसान आंदोलनों की भावभूमि, उसकी निर्मिति, छोटे किसानों की दिक्कत और उनके प्रतिरोधों को दर्ज करने की कोशिश की। अपने उपन्यास प्रेमाश्रम में वे उतने मुखर और स्पष्ट नहीं हैं लेकिन 1925 में प्रकाशित रंगभूमि में तो सरकार द्वारा भूमि अधिग्रहण के खिलाफ़ खड़े हो जाते हैं।
इस उपन्यास का सबसे मजबूत पात्र सूरदास लगातार ब्रिटिश शासन के कानूनों और उनके भारतीय नुमाइंदों की मुखालफ़त करता रहता है। दुबला-पतला क्षीणकाय सूरदास सरकार द्वारा दी गयी जमीन की कीमत के खिलाफ़ न केवल बोलता है बल्कि उसे लताड़ता भी है। वास्तव में 1894 के भूमि अधिग्रहण कानून ने उपनिवेश को भारत भूमि पर स्थानबद्ध किया, उसे रेलवे लाइनों, सरकारी भवनों, कचहरियों के द्वारा विस्तृत कर दिया। जिस ब्रिटिश सरकार ने भारत में भूमि को खरीदने-बेचने की वस्तु बनाया, उसी ने अपने विस्तार के अंतिम चरण में भूमि को उसके मालिक से छीन लेने का कानून बना डाला। सूरदास ने इस कानून और उसकी वैधानिकता पर ही सवाल खड़ा कर दिया।
रंगभूमि में एक चरागाह पर जॉन सेवक की नजर पड़ती है और सिगरेट का कारखाना लगाने की कार्यवाही शुरू हो जाती है। जमीन सूरदास की है और उसने पशुओं के चरने के लिए इसे छोड़ रखा था। जॉन सेवक अपनी पहली ही मुलाकात में उसे मुँहमाँगी कीमत का लालच देता है। सूरदास नहीं डिगता है। बाद में उससे जोर-जबरदस्ती की जाती है। पूरा उपन्यास पूंजीपति वर्ग द्वारा जमीन हड़पे जाने की गाथा है। इस काम में चतारी के महाराज भी सूरदास से बात करने जाते हैं कि वह चरागाह में से नौ बीघे जमीन सिगरेट के कारखाने के लिए दे दे। जो पैसा मिलेगा, उसे धर्मार्थ कार्यों में लगा दे। क्या आज के भारत में ऐसा नहीं होता है? केवल भूमि-अधिग्रहण कानून को बदला गया है, वह भी कारपोरेट हितों को ध्यान में रखकर।
आम आदमी लालच और भय से टूट जाता है।
सरकार और पूंजीपति के पास यह दोनों है। वे धन और बंदूक के बल पर जनता की लालच और भय का दोहन करते हैं। उपन्यास की खूबसूरती यही है कि सूरदास इन दोनों के आगे नहीं झुकता है। कल्पना कीजिए कि ब्रिटिश उपनिवेश अपने सबसे चरम दौर में है और बनारस का एक सामान्य सा बूढ़ा आदमी उसे चुनौती दे रहा है। इस उपन्यास के प्रकाशन के लगभग छह साल बाद गाँधी यही काम दिल्ली और लन्दन में कर रहे थे जब उन्होंने ब्रिटिश वायसराय के द्वारा प्रस्तुत भय और लोभ की धज्जी उड़ा दी। यदि आजादी की लड़ाई में प्रेमचंद और उनके जैसे साहित्यकारों की कोई भूमिका थी तो वह आम जनता को निर्भीक बनाना था।
1930 के घटनापूर्ण दशक में साहूकारी व्यवस्था ने हर ग्रामीण को कर्ज़दार बना दिया था। जैसे हर व्यक्ति को क़र्ज़ में मर जाना लिख गया था। गोदान में किसान होरी अपनी ज़मीन खोता है, बटाईदार बनता है और इसके बाद मजदूर बनकर मर जाता है।
भारतीय विश्वविद्यालयों में समाजशास्त्र एक विषय के रूप में बीसवीं शताब्दी की शुरुआत में पढ़ाया जाना शुरू हुआ और इतिहास उससे पहले से पढ़ाया जा रहा था, लेकिन आधुनिक भारतीय समाज के बनने की प्रक्रिया को उसकी पूरी जटिलता के साथ दर्ज करने वाले प्रेमचंद पहले आधुनिक साहित्यकार कहे जा सकते हैं।
उनके कथा साहित्य में एक किसान अपने खेत में अच्छी फसल, बेरोजगार नौजवान अपनी जीविका चलाने के लिए शहर में खोमचा लगाने की जगह, मजदूर अपनी मजदूरी, दलित आत्मसम्मान की खोज में दिखाई पड़ते हैं।
प्रेमचंद अपने युग के प्रत्येक प्रकार के दवाब और संकट को अपने साहित्य में ला रहे थे। अपनी छोटी-छोटी जरूरतों के लिए किसान अपने इलाक़े के साहूकार और रायसाहबों की चापलूसी करने के लिए क्यों मजबूर थे, कोई पढ़ी-लिखी महिला पुरुष वर्चस्व से क्यों नहीं निकल पाती और बुद्धिजीवी अपना पक्ष क्यों नहीं निर्धारित कर पाते- यह सब प्रेमचंद लिख रहे थे। और यह सभी वर्ग पूंजीवाद के खिलौनों के रूप में कैसे कार्य कर रहे थे, इसे प्रेमचंद ने अपने एक वैचारिक लेख ‘महाजनी सभ्यता’ में संक्षेप में बताया भी था।
हमारा दौर और प्रेमचंद
हम एक ऐसे दौर में जी रहे हैं जब प्रेमचंद को फिर से पढ़ा जाना चाहिए। ख़ुशी की बात है कि उन्हें पढ़ा जा रहा है। आज हालात यह हैं कि यदि किसी बड़े सेठ को भारत के किसी हिस्से में जमीन का कोई टुकड़ा, कोई नदी, कोई जंगल पसंद आ जाए तो उसे सरकार से कहने भर की देर है। सरकारों ने कानून बना रखा है और वे कानून की मदद से किसी की जमीन लेकर सेठ साहूकार को दे सकती हैं। सड़क बनाने के लिए, हवाईअड्डा बनाने के लिए, शीतल पेय बनाने के लिए जमीनें जबरदस्ती ली जा रही हैं और किसानों को उसकी कीमत लेने को मजबूर कर दिया जाता है। कभी-कभी यह कीमत इतनी ज्यादा होती है कि किसान बड़ी आसानी से जमीन दे देते हैं और कुछ ही वर्षों में सड़क पर होते हैं।
जो बात रंगभूमि में सूरदास ने कहने की कोशिश की थी, वही बात आज जब कोई किसान कह रहा है तो उसे निशाना साधकर गोली मारी जा रही है। उनकी खड़ी फसल पर जेसीबी चला दी जाती है।
रमाशंकर सिंह इतिहासकार हैं और भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला में फेलो (2018-2020) रहे हैं