दारेन सैमी- क्रिकेटप्रेमियों के लिए यह नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है। सेन्ट लुसिया, वेस्टइंडीज के निवासी इस प्रख्यात आलराउंडर की ख्याति किसी लेजेंड से कम नहीं है। उन्होंने कई साल वेस्टइंडीज टीम की अगुवाई की और वे एकमात्र ऐसे कैप्टन समझे जाते हैं जिसकी अगुवाई में खेलने वाली टीम ने टी-20 के दो वर्ल्ड कप जीते (2012 तथा 2016)। क्रिकेट जगत की उनकी उपलब्धियां महज अपने मुल्क की सीमाओं पर ख़त्म नहीं होती हैं।
पाकिस्तान की क्रिकेट टीम को पुनर्जीवित करने में तथा उसे अंतरराष्ट्रीय मैचों के लिए तैयार करने में उनके योगदान को सभी स्वीकारते हैं। यह अकारण नहीं कि उस मुल्क ने सैमी को अपने यहां की ‘मानद नागरिकता’ भी प्रदान की है।
लाजिम है कि जब यह ख़बर आयी कि ऐसे बड़े खिलाड़ी को हिन्दोस्तां की सरजमीं पर नस्लीय टिप्पणियों का सामना करना पड़ा तब शुरुआत में लोगों को इस पर यकीन तक नहीं हुआ। यह प्रसंग वर्ष 2013-14 में आइपीएल खेलों के दौरान भारत में घटित हुआ। पता चला कि ‘सनराइजर्स, हैदराबाद’ की उनकी टीम के साथी ही उन्हें – उनकी चमड़ी के रंग को रेखांकित करते हुए – ‘कालू’ कह कर बुलाते थे, जिसके बाद सामूहिक हंसी का एक फव्वारा छूटता था।
ऐसे प्रसंग भी आते थे जब दारेन भी इस हंसी में शामिल होते थे, इस बात से बिल्कुल बेख़बर की उनका नस्लीय मज़ाक उड़ाया जा रहा है।
आप इसे इत्तेफ़ाक कह सकते हैं कि दारेन को इस बात का एहसास अभी हाल ही में हुआ जब वह मशहूर अमेरिकी स्टैंड-अप आर्टिस्ट हसन मिनहाज़ का कोई प्रोग्राम देख रहे थे, जिसमें किसी एक कार्यक्रम का फोकस ‘ब्लैक लाइव्ज़ मैटर’ आन्दोलन पर था। दुनिया के तमाम मुल्कों में नस्लवाद के खिलाफ खड़े इस ऐतिहासिक आन्दोलन के बहाने हसन बता रहे थे कि पहली दुनिया से लेकर तीसरी दुनिया तक – यह समस्या कितनी जड़मूल है। हसन ने जब यह बताया कि दक्षिण एशिया के हिस्से में किस तरह ‘काला’ या ‘कालू’ शब्द चलता है, जो इसी तरह नस्लीय आधारों पर अपमानित करने वाला है, तब दारेन याद कर सके कि भारत की उस यात्रा में उनके साथ क्या हो रहा था।
अपने इस अनुभव का उद्घाटन दारेन ने बहुत सौम्य अंदाज में किया। उन्होंने किसी खिलाड़ी का नाम नहीं लिया बल्कि एक अख़बार को यह बताया कि इस अनुभव में शामिल रहे एक खिलाड़ी से उनकी बात हुई है और यह वक्त़ नकारात्मक पर जोर देने का नहीं है बल्कि अपने आप को शिक्षित करने का है। यह अलग बात है कि भारतीय क्रिकेट के एक खिलाड़ी ईशान्त शर्मा की एक पुरानी इन्स्टाग्राम पोस्ट इन्हीं दिनों वायरल हुई जिसमें वह सैमी को ‘कालू’ कह कर सम्बोधित करते दिख रहे थे। अब दारेन की यह ज़र्रानवाज़ी थी कि उन्होंने मामले को तूल देना नहीं चाहा, लेकिन इस घटनाक्रम को लेकर भारत में प्रतिक्रिया अजीब किस्म की थी। न किसी ने क्षमायाचना की और न ही मीडिया ने इस मामले पर फोकस करना जरूरी समझा। हिन्दोस्तां की सरजमीं पर एक विश्वस्तरीय खिलाड़ी को उसके अपने टीम सहयोगियों द्वारा नस्लीय टिप्पणियों का सामना करना पड़ा – जिसमें निश्चित तौर पर क्रिकेट जगत के बड़े नाम भी शामिल रहे होंगे – उससे यहां किसी किस्म का हंगामा नहीं हुआ।
न 24*7 मीडिया को इसमें कुछ मसाला मिला जिसे वह कई दिनों तक परोसती रहती, न क्रिकेट जगत के पुराने नए दिग्गजों के ज़मीर पर जूं रेंगी। हर कोई खामोश रहा। कल्पना ही की जा सकती है कि विराट कोहली जैसे कद के किसी खिलाड़ी को किसी दूसरे मुल्क में ऐसे ही अपमानित करने वाले व्यवहार का सामना करना पड़ता, तो क्या क्रिकेट के उस्ताद और चैनलों की जमात वैसे ही खामोशी ओढ़े रहती?
मीडिया तथा क्रिकेट के नए पुराने उस्तादों ने दारेन सैमी के मामले में जहां चुप्पी ओढ़े रखी वहीं मशहूर बॉलीवुड अभिनेत्री स्वरा भास्कर ने इस मसले पर सैमी के ‘सनराइजर्स हैदराबाद’ के सहयोगियों से यह मांग की कि वे माफी मांगें। इतने दिन गुजर गए अलबत्ता किसी ने जुबां नहीं खोली है, न किसी के ज़मीर पर कोई खरोंच ही दिख रही है।
यह चुप्पी दरअसल इसी बात की ताईद करती है कि क्रिकेट जगत के इन कथित महानों की मानसिकता में गैर-बराबरी, वर्णभेद/रंगभेद, या स्त्री-द्वेष आदि को लेकर कितनी गहरी स्वीकार्यता है कि उन्हें किसी बात से गुरेज़ तक नहीं होता। क्रिकेट जगत के खिलाड़ियों के कई किस्से मशहूर हैं कि वे किस किस्म की जेण्डर, जाति और नस्लगत भेदभाव की जुबां रखते हैं।
आपको याद होगा पिछले साल का वह किस्सा जब एक टेलीविजन चैनल के टॉक शो में क्रिकेटर केएल राहुल और हरेन पंड्या ने स्त्रियों की प्रति अपमानित करने वाली ऐसी बातें कही थीं कि आइसीसी को उन्हें कुछ समय के लिए बैन करना पड़ा था।
हम ऑस्ट्रेलिया के चर्चित खिलाड़ी एंड्रू साइमंडस प्रसंग को याद कर सकते हैं, जब 2007-08 की ऑस्ट्रेलिया यात्रा के दौरान हरभजन सिंह पर यह कार्रवाई हुई कि उन्हें मैच से निलम्बित कर दिया गया क्योंकि उन्होंने बहुआयामी खिलाड़ी साइमण्ड को मंकी अर्थात बंदर कह कर सम्बोधित किया था। हरभजन सिंह के खिलाफ हुई इस कार्रवाई का समर्थन करने के बजाय और पूरे घटनाक्रम पर पश्चात्ताप प्रकट करने के बजाय, भारतीय टीम ने आक्रामक पैंतरा अख्तियार किया था और क्रिकेट के इस दौरे को ही अधबीच समाप्त करने की धमकी दे डाली थी। यहां तक कि सचिन तेंदुलकर जैसा शख्स – क्रिकेट जगत की जिनकी उपलब्धियों पर तमाम लोग आज भी नाज़ करते हैं – भी इस मसले पर आधिकारिक सुनवाई के दौरान अस्पष्ट ही रहा। हरभजन सिंह को दिया गया ‘दंड’ बाद में घटाया गया और उन्हें आगे के मैच में खेलने की इजाजत भी मिली।
एक क्षेपक के तौर पर यहां बता दें कि यही वह दौर है जब पश्चिमी जगत में अमेरिका तथा यूरोप के कई मुल्कों में नस्लवाद के खिलाफ जबरदस्त आंदोलन खड़ा हुआ है, जिसमें श्वेत लोगों की भी जबरदस्त हिस्सेदारी दिख रही है। इस आन्दोलन ने नस्लवाद को लेकर श्वेतों में लम्बे समय से चली आ रही वैधता और स्वीकार्यता को प्रश्नांकित किया है और हम ऐसे कई नज़ारों से रूबरू हैं, जहां पुलिस के अधिकारी या अन्य तमाम लोग घुटने के बल इसके प्रति अपनी माफी का इज़हार करते दिख रहे हैं।
ऐसे सार्वजनिक कार्यक्रमों की भी चर्चा है कि आध्यात्मिक नेताओं की अगुवाई में आयोजित जलसे में सभी लोग नस्लवाद को लेकर माफी मांग रहे हैं। इस किस्म की प्रतीकात्मक कार्रवाइयां भी सामने आयी हैं जहां एलेक्स ओहानियान – जो रिडिट के सह-संस्थापक हैं तथा मशहूर टेनिस खिलाड़ी सेरेना विल्यम्स के पति हैं – ने रिडिट के बोर्ड आफ डाइरेक्टर्स से इस्तीफा दिया और बोर्ड से यह गुजारिश की कि कम्पनी उनके स्थान पर किसी अश्वेत व्यक्ति को चुने। इतना ही नहीं, उन्होंने यह भी वायदा किया कि रिडिट के स्टॉक्स पर उन्हें भविष्य में जो मुनाफा होगा उसे वह अश्वेत समुदाय की बेहतरी में इस्तेमाल करेंगे।
निश्चित ही भारत – या उसके लोगों में, फिर वह चाहे आम जनता हो या अभिजात तबके के लोग हों – उनमें ऐसी किसी आत्मिक खोज की ख़बर नहीं सामने आयी है। उल्टे जिस तरह ‘कालू’ नामक की यह गाली उस दिन ट्विटर पर ट्रेंड की जिस दिन जॉर्ज फ्लॉयड का अंतिम संस्कार किया जा रहा था। उसने इसी बात की ताईद की कि रंग, वर्ण, जाति, समुदाय आदि पर आधारित भेदों को लेकर उनका चिंतन किस किस्म का है। भारत के क्रिकेटरों के व्यवहार पर – जिसमें वह दारेन सैमी को नस्लवादी टिप्पणियों से अपमानित कर रहे थे – शर्मिन्दा होने के बजाय गोया उन्होंने उन्हीं का पक्ष लिया और अपने चमड़ी के रंग के लिए सैमी को फिर निशाना बनाया।
दरअसल, यह कहना गलत नहीं होगा कि जॉर्ज फ्लॉयड की हत्या की घटना ने, एक तरह से भारत के प्रबुद्ध कहलाने वाले जमात की गहरे में जड़मूल पाखंडी मानसिकता को बेपर्द किया और ऊंच-नीच पर टिके सोपानक्रम पर आधारित शोषण उत्पीड़न के प्रति, जिसे दैवीय वैधता भी मिली है, उनकी गहरी स्वीकार्यता को भी सामने ला खड़ा किया।
मिसाल के तौर पर अभिनेत्री प्रियंका चोपड़ा जोनास – जो अमेरिका में बसी हैं, उन्होंने ब्लैक लाइव्ज़ मैटर के इन विरोध प्रदर्शनों के प्रति जब अपनी एकजुटता का प्रदर्शन किया, तब ऐसे ट्वीट भी वायरल हुए जिसमें बताया गया था कि भारत में अपने निवास के दौरान अभिनेत्री ने रंगाधारित सुंदरता के पैमानों को बढ़ावा देने का काम किया था। इस बात को रेखांकित किया गया कि किस तरह उन्होंने ‘वर्ष 2000 के मिस वर्ल्ड प्रतियोगिता के बाद से ही चमड़ी सफेद रखने पर केन्द्रित सौंदर्य प्रसाधनों के विज्ञापनों में साझेदारी की थी’ और बॉलीवुड में अपने प्रवेश के बाद से ही ‘पोंड्स और गार्नियर आदि के विज्ञापनों में’ हिस्सा लिया था।
निश्चित ही ब्लैक लाइव्ज़ मैटर के इस आन्दोलन के प्रति समर्थन जाहिर करने वाली वह एकमात्र भारतीय अभिनेत्री नहीं थी। इस बात को रेखांकित किया गया कि ‘जब हम इस बात की पड़ताल करते हैं कि अश्वेत विरोधी नस्लवाद किन बहुविध स्तरों पर दुनिया भर में उपस्थित हैं, तब यह पूछना वाजिब ही है कि किस तरह इन सेलेब्रिटीज़ ने, जो आज बोल रहे हैं, उन्होंने भी इस पूर्वाग्रह को जारी रखने भी अनजाने में ही सही एक भूमिका अदा की हो – एक ऐसा पूर्वाग्रह जो पत्रिकाओं के पन्नों से छन कर लोगों के दिलोदिमाग तक पहुंचता हो। क्योंकि अगर ब्लैक लाइव्ज़ अर्थात अश्वेत जिन्दगियां अहमियत रखती हैं जो अश्वेत चमड़ी भी मायने रखती है।’
अगर हम दारेन सैमी के प्रसंग पर लौटें तो आखिर क्रिकेट के मान्यवरों – नए और पुरानों – द्वारा बरती गयी खामोशी को किस तरह समझा जाए?
दारेन सैमी द्वारा 2013-14 के प्रसंग को उजागर करने के बाद कई लोगों ने लिखा, जिसमें वेस्टइंडीज क्रिकेट की एक और बड़ी शख्सियत माइकल होल्डिंग भी थे, जो इन दिनों क्रिकेट की कमेंटरी भी करते हैं। उन्होंने एक अग्रणी भारतीय अख़बार में लिखे अपने लेख में कहा कि ‘नस्लवाद खेल की समस्या नहीं है बल्कि समाज की समस्या है। नस्लवाद व्यक्तियों का मामला नहीं है बल्कि प्रणालियों, संस्थानों का मामला है और वह इस बात की मांग करता है कि ‘सब लोग साथ जुड़ कर उसे ख़त्म करें।’
भारत यात्रा के अपने अनुभवों को साझा करते हुए जिसमें उन्होंने रेखांकित किया कि वह खुद नस्लवाद का शिकार नहीं हुए हैं। उन्होंने बताया कि अपनी यात्रा में उन्होंने महसूस किया कि भारत में जाति और वर्गीय प्रथा मजबूत है। यहां अपने ही लोगों के खिलाफ जबरदस्त पूर्वाग्रह उपस्थित है। उन्होंने लिखा, “मुझे उम्मीद है कि यह ख़त्म होगा।“
उन्होंने यह भी जोड़ा कि ‘तमाम ऐसे भारतीय हैं जो मानते हैं कि आप जितने गौरवर्णीय होंगे, उतने ही आप अच्छे होंगे… चमड़ी के रंग का यह मसला दरअसल औपनिवेशिक दौर की निशानी है, जब लोगों को श्वेत रंग को लेकर ब्रेनवॉश किया गया था।‘
आप कह सकते हैं कि दारेन सैमी को जिन नस्लवादी अपमानों का सामना करना पड़ा, इस प्रसंग को इस कदर हल्का कर देने या उससे जुड़ा चुप्पी का षडयंत्र, एक तरह से अश्वेत समुदायों के प्रति भारतीयों के स्थापित पूर्वाग्रहों का ही विस्तार है। अभी ज्यादा दिन नहीं हुआ जब ओडिशा से ख़बर आयी कि वहां की नर्सरी की किताब में दिए चित्र किस तरह ऐसे ही पूर्वाग्रहों को उजागर कर रहे थे। ख़बर के मुताबिक किताब में ‘कुरूप’ (अंग्रेजी का अग्ली) शब्द के बगल में एक काले व्यक्ति के चेहरे का रेखांकन दिया गया था।
हम याद कर सकते हैं कि हाल के वर्षों में देश के अलग-अलग हिस्सों में अफ़्रीकी छात्र भीड़ द्वारा हमले का शिकार हुए थे।
हम इस समस्या की गहराई को इस मसले पर बनी फिल्मों में भी देख सकते हैं। हम यह भी पाते हैं कि ऐसे हमलों में मुब्तिला अपराधियों को पकड़ने में भी पुलिस बहुत आनाकानी करती है।
इतना ही नहीं, सरकार की तरफ से कभी भी ऐसे हमलों में निहित नस्लीय भेदभाव को कभी भी स्वीकारा नहीं गया है बल्कि उसकी तरफ से ऐसे हमले व्यक्तिगत हमले की श्रेणी में शामिल किए जाते रहे हैं।
इस समस्या को स्वीकारने से इन्कार अक्सर आभासी साबित होता है क्योंकि कई बार ऐसे मौके आते हैं जब जिम्मेदार पदों पर बैठे लोग या जिन्होंने संविधान की कसम खायी है, वे ऐसे अनर्गल वक्तव्य देते दिखते हैं, जो उनकी असलियत को बेपर्द कर देता है।
क्या हम आम आदमी पार्टी के नेता सोमनाथ भारती की कथित अगुवाई में दक्षिणी दिल्ली के एक इलाके में जहां अश्वेत अधिक संख्या में रहते थे, उस पर डाले गए छापे की घटना को याद कर सकते हैं, जब उन्होंने यह दावा किया था कि वे नशीली दवाओं के व्यापार में लिप्त रहते हैं? उनकी इस कार्रवाई में महिलाओं को भी प्रताड़ित किया गया। या फिर किस तरह हिन्दुत्व के एक अग्रणी विचारक तरुण विजय ने एक बेहद नस्लवादी वक्तव्य एक टीवी चर्चा में दिया जिसमें उन्होंने दावा किया कि भारतीयों को आप नस्लवादी नहीं कह सकते हैं क्योंकि हम दक्षिण भारत के लोगों के साथ रहते आए हैं जो काले होते हैं।
हम ऐसे कई उदाहरणों को देख सकते हैं।
प्रश्न उठना लाजिमी है कि औपनिवेशिक शोषण एवं लूट के साझा इतिहास के बावजूद या गरीबी की विकराल समस्या के बावजूद अश्वेत लोगों के प्रति यहां के लोगों का व्यवहार आखिर क्यों अहंकारपूर्ण होता है। शायद यह बात अब इतिहास के पन्नों पर एक सन्दर्भ के तौर पर ही दर्ज रहेगी कि वर्ष 1948 में भारत ने दक्षिण अफ्रीका के रंगभेदी शासन की समाप्ति की मांग की थी।
क्या इसे उपनिवेशवाद की विरासत के तौर पर देखा जाए – जिसमें एक बड़े हिस्से के मन मस्तिष्क पर श्वेत चमड़ी का भार दिखाई देता है?
सुहास चक्रवर्ती अपनी किताब ‘द राज सिंड्रोम: ए स्टडी इन इम्पीरियल परसेप्शन्स’ में इसी की तरफ इशारा करते हैं: ‘‘उपनिवेशवाद की विरासत ने दोयम दर्जे के भारतीयों की एक ऐसी राष्ट्रीय पहचान को मजबूती प्रदान की जो आज भी श्वेत रंग को अश्वेत रंग से ऊंचा मानने के जरिये अभिव्यक्त होती है।’’
या इसे वर्ण मानसिकता का विस्तार समझा जाए जिसके चलते अवर्णों/अतिशूद्रों को, श्रमजीवी आबादी के बड़े हिस्से को भेदभाव का सामना करना पड़ता है। अगर बारीकी से देखें तो इसे हम सभी कारकों के मिले-जुले असर के तौर पर देख सकते हैं।
अपनी चर्चित रचना ‘‘अछूत कौन और कैसे?’’ में अस्पृश्यता की जड़ तक पहुंचने की कोशिश करने के सिलसिले में डॉक्टर अम्बेडकर ने इसी मानसिकता की पड़ताल की थी।
सनातन धर्मान्ध हिंदू के लिए यह बुद्धि से बाहर की बात है कि छुआछूत में कोई दोष है। उसके लिए यह सामान्य स्वाभाविक बात है। वह इसके लिए किसी प्रकार के पश्चात्ताप और स्पष्टीकरण की मांग नहीं करता। आधुनिक हिंदू छुआछूत को कलंक तो समझता है लेकिन सबके सामने चर्चा करने से उसे लज्जा आती है। शायद इससे कि हिंदू सभ्यता विदेशियों के सामने बदनाम हो जाएगी कि इसमें दोषपूर्ण एवं कलंकित प्रणाली या संहिता है जिसका साक्षी छूआछूत है।
डॉ. अम्बेडकर, अछूत कौन और कैसे?
क्या हम सुन रहे हैं?
Like!! I blog frequently and I really thank you for your content. The article has truly peaked my interest.
I really like and appreciate your blog post.
I always spent my half an hour to read this web site’s articles or reviews daily along with a mug of coffee.
I used to be able to find good info from your blog posts.
औपनिवेशक अतीत का दंश श्वेतों और अश्वेतों को समान रूप से झेलना नहीं पड़ा। श्वेतों को के औपनिवेशिक आकाओं का ही दंश झेलना पड़ता था लेकिन अश्वेतों को देशी श्वेत और औपनिवेशिक दोनों आकाओं का दंश झेलना पड़ता था और देषी श्वेत आकाओं का दंश तो आज भी तमाम कानूनों के बावजूद कमोवेश जारी है।