साइबर स्पेस में हमारा रोना कितना नकली है! हम रोते हैं कि ज़माने को पता चले। बताते हैं, हमारी आंखें ऐसे नम हुईं जैसे किरचें पड़ गई हो। हम रोते हैं यह देखते हुए कि कैमरे का एंगल कितने डिग्री पर है। हम रोते हैं यह परखते हुए कि शब्दों के बीच की खामोशी, लय में उलझन तो नहीं पैदा कर रही!
मैं भी ऐसे ही रोता हूं। बिल्कुल आप की तरह। लेकिन हम इस पर तो नहीं रोते कि पहलू में बैठी हमारी प्रेमिका अथवा प्रेमी की आंखों में आसूं क्यों है! एक छत के नीचे रहने वाले दोनों जन अपनी ही उदासी में कहां अटके हैं! हमारा क्लीग कुर्सी का हत्था पकड़े क्या सोचता जाता है! चाय वाला क्यों एक दिन अचानक ही शहर छोड़ जाता है फिर कभी नहीं लौटने के लिए। वो लड़का जो सड़क पर फूल बेच रहा था आज क्यों नहीं दिख रहा!
हम रोते हैं जब कोई स्टार टूट जाता है, कोई उल्का दिखता हुआ गायब हो जाता है। तब हम बात करते हैं मन में कितनी गिरहें होती हैं। किस अंधेरे कोने पर कौन सा ताला अटका है। अकेलापन क्यों इतना तोड़ता है! कौन था उसका अपना जो छोड़ गया! हम मन की परतें तो खोलना चाहते हैं लेकिन काले साये का पता नहीं पूछते। वो काला साया आया कहां से! क्यों डस गया एक दुनिया को!
इस दुनिया में तीस करोड़ लोग तनाव झेल रहे हैं। 2.3 करोड़ लोगों में सिजोफ्रेनिया के लक्षण हैं। 8 लाख लोग हर साल आत्महत्या कर लेते हैं। साल दर साल इसका ग्रोथ रेट बढ़ता ही जा रहा है। और हम चुप रहते हैं। हम बात नहीं करते। हम टाल जाते हैं। हम सवाल नहीं करते। हममें से कई इसके शिकार हैं लेकिन हम इग्नोर करते हैं। हम नहीं पूछते कि हमारे हिस्से का चैन कौन चुरा गया! किसने रातों की नींद में आग लगा दी!
हम खुद से ही अजनबी हैं। हम, हमारे श्रम की खूबसूरती से अलगे हुए हैं। मार्क्स Economic and Philosophical Manuscripts of 1844 में अजनबियत पर बात करते हुए कहते हैं- “श्रम को एक आनंदमय अनुभव जैसा होना चाहिए ताकि श्रम करने वाला अपनी शारीरिक और बौद्धिक अभिव्यक्ति कर सके।“ मजदूर अपनी बनायी वस्तु से अपनी अभिव्यक्ति और कलाकार मन को जोड़ पाए, लेकिन पूंजीवाद में मजदूर अपने ही श्रम से स्वयं को अजनबी पाता है। मार्क्स इसे अजनबी श्रम कहते हैं। उनका मानना है कि ऐसा श्रम मजदूर के निज से अलगा हुआ होता है।
इस तरह मजदूर अपनी ही मेहनत से खुद को कटा हुआ पाता है, वह परिपूर्ण नहीं खालीपन का अनुभव करता है। खुश नहीं दुखी रहता है। वह अपनी शारीरिक और मानसिक ऊर्जा का उपयोग नहीं, अपना शरीर तोड़ रहा होता है, अपने दिमाग को बर्बाद होते देख रहा होता है।
यह आज का मेंटल हेल्थ है। मॉडर्न टाइम्स में हमारा मेंटल हेल्थ है। हम यही हैं। इसी चक्र में पिसते हुए। चार्ली चैपलिन ने हमारी इस त्रासदी को 30 के दशक में ही परदे पर उतार दिया था।
पूंजीवाद चाहता है कि अवसाद को पूरी तरह बॉयलोजिकल मान लिया जाए। इस पर बहस भी इसी घेरे में हो। बात काम के घंटे, फुर्सत के पल और मेहनताने पर न हो कर, इस पर हो कि अवसाद कोई दिमागी केमिकल लोचा है। वो क्या कहते हैं, डोपामाइन, वगैरह-वगैरह। पूंजीवाद पर्दा करता है कि अवसाद या तनाव की वजह कहीं उसकी जाति, धर्म, रंग, लिंग से किया गया भेद तो नहीं।
कहीं उसके मन में पनपते जा रहे अंधकार की वजह इच्छाओं का मार दिया जाना तो नहीं। उसकी उलझन में सरकारी फाइल तो नहीं। लेकिन हम इस पर मौन साध लेते हैं। और हमारी पूरी बात लिजलिजी, सतही रह जाती है।
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