एक अच्छा-भला सफल सितारा! बहुत कम संघर्ष में जिसने सेलिब्रिटी का स्टेटस पा लिया था, जिसके जीवन से संघर्ष का दौर खत्म हो चुका था। सुशांत सिंह ‘राजपूत’! अपने घर में रस्सी से झूलता पाया गया। इसके बाद से पूरी ग्लैमर इंडस्ट्री सदमे में है, ट्वीट पर ट्वीट कर हैरत, सदमा, दुःख, वीरानगी इत्यादि के मुजाहिरे पेश किए जा रहे हैं। यह 2020 तो कमाल कर रहा है। कोरोना से लेकर हिंदी फिल्मों के सितारों तक, कहर ही नाज़िल है।
पुलिस के मुताबिक सुशांत पिछले छह महीने से अवसाद का शिकार थे। पत्रकार होने के नाते हम सभी को पुलिसिया बयान ही प्रथम दृष्ट्या मान लेना चाहिए। क्या यह अजीब और मज़े (जान-बूझ कर लिखा है) की बात नहीं कि छह माह तक उस व्यक्ति के तमाम संगी-साथी ऐसा कुछ न कर सके कि वह यह अतिवादी कदम न उठाए, जो आज हैरानगी, तिश्नगी, बेचारगी आदि की भावनाएं प्रकट कर रहे हैं।
सुशांत का मामला आम फिल्मी बंदों-बंदियों वाला ही है और यह लिखना Cliché ही होगा, फिर भी यह कहना ही पड़ेगा कि ऊपरी चमक-दमक के पीछे खोखले जीवन का पागल करने वाला सन्नाटा, लोगों की भीड़ से घिरे होकर भी अकेलेपन का खौफ़ और हर पल खुद के ऊपर एक झूठ की परत ओढ़े रहने की ज़िद या मजबूरी ही इस आत्महत्या के पीछे भी है। फिल्म इंडस्ट्री के लिए न तो अवसाद नया है, न ही आत्महत्या। हमारी किशोरावस्था में दिव्या भारती नाम की सनसनी मुंबइया फिल्म इंडस्ट्री में आयी थीं। दो-चार फिल्मों के बाद शादी (या शायद लिव-इन) और उसके बाद अपने ही फ्लैट की बालकनी से फिसलकर या कूदकर उनके मरने की खबर आयी। उसमें खैर साजिद नाडियाडवाला पर भी उंगली उठी थी। आज सुशांत बस एक और नाम हैं।
परवीन बॉबी के स्कित्सोफ्रेनिक होने की ख़बर हम सभी को है। कई नामचीन अभिनेता और निर्देशकों के नाम को उनके साथ जोड़ा गया, पर वह भी एक दुखद मौत ही मरीं। मीना कुमारी ने तो फिल्म को ही अपने जीवन में उतार लिया। गुरुदत्त ने सेल्युलाइड पर इतनी महानता उकेरी, लेकिन खुद दीन-हीन ही रहे। हजारों वाट की चमकती रोशनी सितारों के चेहरे का पीलापन, उनकी आंखों के नीचे के गड्ढे, उनींदी रातों का सियाह हिस्सा भले छिपा लेती है, लेकिन दर्द जब हद से गुज़र जाता है तो नतीजा सुशांत सिंह राजपूत ही होता है।
मनोवैज्ञानिक जो भी दावा करें, पर मोटे तौर पर इसकी जो वजहें हैं, उनमें आदमी का अपनी जड़ से कटना, खुद के बारे में खुद से झूठ बोलना, पहले नंबर का कारण है। सुशांत एक मध्यवर्गीय परिवार से गए हुए नौजवान थे, लेकिन मुंबई की माया में उनके पैर शायद टिक नहीं सके। वह जो नहीं थे, वही बनने चले और इसी ने उनको डुबोया।
दूसरी बात, कि ये तथाकथित सितारे वास्तविकता का शायद एक झोंका भी नहीं सह पाते हैं क्योंकि ये ‘शिक्षित’ नहीं होते हैं। कहने को सुशांत इंजीनियर थे, फिजिक्स ओलंपियाड के भी विजेता थे, डिग्री के मामले में धनी थे, लेकिन जीवन का ककहरा पढ़ने में चूक गए।
हरेक मनुष्य को एक सहारा चाहिए— वह आध्यात्मिक हो, नैतिक हो, मानवीय हो, भौतिक हो या दैविक हो। हमारे सितारे इनसे दूर हो चुके होते हैं, इसीलिए आप पाएंगे कि हजार किलोमीटर की दूरी नापने को चल निकला मजदूर शायद ही आत्महत्या करता है, लेकिन तथाकथित बड़े लोग तनिक भी संकट का सामना होने पर जान ही देने की सोचने लगते हैं। कई कर गुज़रते भी हैं। किसानों की आत्महत्या ही देखिए, तो सबसे धनी राज्यों पंजाब और महाराष्ट्र के किसान सबसे अधिक खुदकुशी करते हैं, लेकिन गरीब राज्य बिहार और यूपी के किसान येन-केन-प्रकारेण अपनी जिजीविषा बनाए रखते हैं, ज़िंदा रहते हैं। इसकी वजह क्या है? जाहिर तौर पर खेती का नुकसान और कर्ज तो इसके पीछे नहीं ही है। हमारी दिक्कत ये है कि हम किसी भी चीज के पीछे एक ही वजह खोज लेते हैं।
सुशांत की आत्महत्या भी कई परतों वाली है। टूटे हुए रिश्ते का ग़म, असफलता का डर, परिवार से दूरी, शायद काम की कमी, वगैरह-वगैरह कई कारण हो सकते हैं जो केवल वे ही जानते होंगे, लेकिन खुद को नहीं स्वीकार पाना, अपने आज को नहीं मानना, यथार्थवादी न बन पाना भी सबसे बड़ा कारण है। मुझे नीना गुप्ता की वह पोस्ट सबसे अच्छी लगी थी जब उन्होंने सार्वजनिक तौर पर अपने लिए काम मांगा था। इस विनम्रता से कम से कम उनकी वापसी तो हुई, आत्महत्या तक तो नौबत नहीं पहुंची। अभी हाल ही में एकाध टीवी एक्टर्स ने भी फेसबुक और ट्विटर के जरिए अपनी परेशानी साझा की है। मुझे उम्मीद है, वे सुशांत का रास्ता पकड़ने से बच जाएंगे।
अवसाद में तर्क नहीं रह पाता। हम चाहे कितना भी खुद को काबिल समझें, हर कुछ नहीं पा सकते। इसलिए, उपाय क्या है? पारिवारिक मूल्यों को जगाना, दोस्त बनाना, खुद को ज़मीन से जोड़ कर रखना और एक कुछ भी या कोई भी ऐसा होना, जिसके सामने आप बिल्कुल नंगे हो सकें, बिल्कुल बालक बन सकें। अपने अहंकार को धो सकें, रो सकें, गला फाड़ कर चिल्ला सकें।
आखिरकार, जैसा कि संजय मिश्र की हालिया फिल्म का डायलॉग है, ‘एंजॉय, और ऑप्शन ही क्या है?’
लेखक स्वतंत्र पत्रकार और सोशल मीडिया कंसल्टेन्ट हैं। जनपथ पर हर शनिवार दक्षिणावर्त नाम से इनका एक साप्ताहिक स्तंभ छपता है।
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