महात्मा गांधी ने अपने शिक्षा संबंधी प्रयोगों को ‘नयी तालीम’ के अंतर्गत स्पष्ट किया है। प्रयोजनवादी, आदर्शवादी तथा प्रकृतिवादी होने के साथ-साथ गांधी द्वारा दी गयी शैक्षणिक संरचना में कई विचारों की एक साथ झलक मिलती है। जहाँ एक तरफ वो ये मानते थे कि शिक्षा के माध्यम से बालकों का विकास प्रकृति के निकट गांव में होनी चाहिए, वहीं उन्होंने वैज्ञानिकता और विकास की वैधानिकता तथा प्रोद्यौगिकी पर भी बल दिया। गाँधी को प्रोद्यौगिकी विरोधी के रूप में चित्रण किया जाता रहा है परन्तु वास्तविक रूप से वह आधुनिक दौर के अंध-प्रयोगों और विज्ञान के पागलपन के विरोधी थे। वो प्रकृति और समाज बीच बनती एक खाई को देख रहे थे। गांधी के शिक्षा सुझावों को मनुष्य और प्रकृति के मध्य एक सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास के रूप में देखा जा सकता है।
गाँधी की नयी तालीम के संदर्भ में तुलनात्मक ढंग से अगर इस नीति की समीक्षा की जाए, तो यह एक प्रकार से पहले से चली आ रही शिक्षा नीतियों में एक अपडेट नोटिफिकेशन की तरह आया है। शिक्षा एवं शिक्षण संबंधी संरचना के अलावे इसमें ऐसा कुछ भी नया या रचनात्मक नहीं है जिसे पहले किसी भी शिक्षा नीति में प्रस्तावित न किया गया हो, हालाँकि नई शिक्षा नीति गांधी द्वारा प्रस्तावित शिक्षा संबंधी विचारों तथा सुझावों की एक झलक जरूर प्रदर्शित करती है।
नई शिक्षा नीति 2020 के मातृभाषा एवं स्थानीय भाषा वाले बिंदु सबसे अधिक चर्चा में रहे हैं। मातृभाषा, हिंदी एवं अंग्रेजी में अध्ययन-अध्यापन की बहस या शिक्षा नीतियों में इसका सुझाव नया नहीं है। ब्रिटिशकालीन शिक्षा नीतियों से लेकर गांधी तक मातृभाषा में शिक्षा देने की बात करते रहे हैं, लेकिन क्या गांधी द्वारा प्रस्तावित भाषायी संरचना को 2020 में NEP के माध्यम से देखा जा सकता है? शायद इसका जवाब होगा नहीं, क्योंकि गांधी ने स्पष्ट रूप से शिक्षा को गांव के निकट देखा था और उनकी कल्पना में इसे ही उत्तम प्रबंध माना था लेकिन आज NEP 2020 के समय में परिस्थिति वैसी नहीं रही।
आज़ादी के बाद विकास की एक सनक ने शिक्षा का व्यवसायीकरण और निजीकरण करने पर अधिक प्रयास किया। इन प्रयासों के कारण शिक्षा के लक्ष्य और उद्देश्य भी जमीनी स्तर पर बदलते गए। यह बदलाव यहाँ तक पहुंचा कि आज विद्यालयों को उन्नत करने के लिए या योजना बनाने के लिए उनका वर्गीकरण अर्बन और रूरल क्षेत्र के साथ साथ ‘निजी और सरकारी’ आधार पर भी किया जाता है। संभव है कि यह वर्गीकरण विद्यालयों के विकास के नियतांक निर्धारित करने के लिए आवश्यक हों, परन्तु उसी समय यह एक आर्थिक-सामाजिक वर्गीकरण को भी दर्शाता है जहाँ आर्थिक रूप से कमजोर, आदिवासी, पिछड़े तथा ग्रामीण इलाकों के विद्यार्थी भारत में शिक्षा संबंधी प्रयोगों के आगे लाचार नज़र आते हैं। गांधी अपनी समझ को स्पष्ट रखते हैं कि मातृभाषा के कारण विद्यार्थियों में अधिगम प्रक्रिया सुचारु रूप से संपन्न होगी। इधर के. कस्तूरीरंगन अपने एक बयान में स्पष्ट करते हैं कि मातृभाषा में शिक्षा को लेकर NEP 2020 द्वारा कोई दबाव नहीं बनाया जा रहा है।
यहाँ यह ध्यान देना जरूरी है कि मातृभाषा में शिक्षा को लेकर NEP 2020 में “जहाँ तक संभव हो” के रूप में लागू करने की बात कही गयी है। क्या यह ‘संभव’ भारत के निजी विद्यालयों के लिए संभव हो पाएगा? इसका कोई ठोस उत्तर नहीं मिल सकता है। वहीं दूसरी ओर समाज का एक तबका मातृभाषा के इतर अंग्रेजी पर ज्यादा बल दे रहा है क्योंकि आधुनिक भारत में वैश्वीकरण के बाद या उत्तर-औपनिवेशिक काल में अंग्रेजी भाषा को एक स्टेटस सिम्बल के रूप में देखा जाता है एवं यह भाषा अर्बन स्कूल या निजी स्कूलों में अधिगम का भाषायी आधार बन गया है। समाज एवं बाजार एवं इसकी प्रतियोगिता में बने रहने की जद्दोजहद ने सरस्वती शिशु विद्या मंदिर जैसे श्रृंखलाबद्ध संस्थानों को भी अपना पाठ्यक्रम धीरे-धीरे अंग्रेजी में रूपांतरित करने पर बाध्य कर दिया है। अब यहाँ सवाल यह है कि जब भविष्य में लक्ष्य प्राप्ति हेतु अंग्रेजी या हिंदी भाषा ही काम आने वाली है एवं उच्च अध्ययन में अधिकांश शिक्षण सामग्री इन्हीं भाषा में उपलब्ध हैं तो स्थानीय या मातृभाषा पर कोई क्यों बल दे, वह भी तब जब एक वर्ग शहर या निजी विद्यालयों में उसी उम्र में अंग्रेजी पढ़ रहा है जो उसे आगे ज्यादा काम आने वाली है। अर्थात यहाँ भाषा के वर्चस्व से लेकर अवसर तक की लड़ाई है। इस संघर्ष में एक वर्ग को स्वयं अंग्रेजी में ज्ञान अर्जित कर दूसरे वर्ग से स्थानीय भाषा को पढ़ कर संस्कृति तथा सभ्यता बचाने की उम्मीद नहीं करनी चाहिए।
इसके अलावा गांधी एवं NEP 2020 में क्राफ्ट-आधारित शिक्षा एवं व्यावसायिक शिक्षा पर भी आपसी तालमेल रखते हैं, परन्तु यहाँ भी एक आर्थिक वर्गीकरण की बड़ी झलक सामने आती है। NEP 2020 ने स्थानीय सहित अन्य क्राफ्ट आधारित शिक्षा एवं प्रशिक्षण को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया है। यहाँ भी शिक्षा नीति गांधी के विचारो के साथ मेल खाती है। दोनों के अनुसार इस तरह के प्रशिक्षण से बालक-बालिकाएं अपने सामान्य कार्यों तथा समस्याओं का हल स्वयं कर पाएंगे। इसमें यह तो स्पष्ट है कि इस आधार पर निर्माणवादी परिपेक्ष्य पर ध्यान दिया जा रहा है लेकिन क्या ग्रामीण बनाम शहरी विद्यालयों तथा निजी बनाम सरकारी विद्यालयों में दिए जाने वाले प्रशिक्षणों का स्तर, प्रकृति एवं प्रक्रिया के अलावा संसाधनों का वितरण एवं उपयोग एक समान हो पाएगा?
सहायक प्रोफेसर ऋषभ कुमार मिश्र एवं रवनीत कौर द्वारा वर्धा स्थित आनंद निकेतन विद्यालय पर किये गये कई शोध एवं परियोजनाओं से हम यह जान सकते हैं कि गांधी के नयी तालीम के अनुसार चलने वाले विद्यालय कैसे आज संघर्षरत व उनकी शिक्षण प्रणाली कैसी है। इस विद्यालय में विद्यार्थी सैद्धांतिक के अपेक्षा प्रयोगात्मक शिक्षा के माध्यम से अधिगम करते हैं अर्थात गणित में गणना सीखने के लिए विद्यार्थी अपने शिक्षकों सहित खेत में जाते हैं जहाँ वे खेत की आकर एवं क्षेत्रफल के साथ-साथ खेती भी सीखते हैं। इसे सीखने के क्रम में विद्यार्थी मिट्टी के प्रकार एवं उपयोग भी सीख लेते हैं। खेत जाने के क्रम में भी मार्ग में आने वाले विभिन्न पेड़-पौधों पर भी चर्चा होती चली जा रही थी।
अभय बंग ने अपने विद्यालयी शिक्षा नयी तालीम प्रणाली के अंतर्गत प्राप्त की और वे अपने लेख ‘कहाँ है वो शिक्षा का जादू भरा द्वीप?’ में यह बताते हैं कि उनके विश्वविद्यालय में मिलने वाली कई प्रायोगिक ज्ञान को वे पहले ही व्यावहारिक तौर पर विद्यालय में ग्रहण कर चुके होते हैं। यह सब अंतरानुशासनिक अध्ययन की परिभाषा का अंग है जिसे नयी तालीम ने NEP 2020 से पहले ही प्रस्तावित किया था।
NEP 2020 अपने परिचय या प्रस्तावना में शिक्षा की एक आदर्श छवि को बनाने का प्रयास करता है। उसमें हर वो बात शामिल है जो एक विद्यार्थी को एक एडवांस या एक आदर्श विद्यार्थी बना सकती है, लेकिन नयी तालीम के प्रयोगों को क्या हम व्यावसाय की ओर झुक गये शिक्षा में सफल होने की उम्मीद कर सकते हैं? क्या समाज का एक वर्ग अपने बच्चों को खेत में जाकर या कुम्हारों के पास जाकर उन क्रियाकलापों को करने की अनुमति देगा जिसे नयी तालीम पैटर्न में पढने वाले विद्यार्थी निःसंकोच होकर करते हैं? इस परिस्थिति में इन क्रियाकलापों के जीवन में व्यवहारिक उपयोग की दृष्टि से देखें तो शहरी या निजी विद्यालयों को इसका कुछ भी खास उपयोग नहीं दिखता है।
यह संभव है कि NEP 2020 में प्रस्तावित क्राफ्ट-आधारित शिक्षा या 10-दिन स्थानीय कला का प्रशिक्षण की स्थिति एक तरह से विश्वविद्यालयों/कॉलेजों में पढाये जा रहे पर्यावरण शिक्षा तरह सिर्फ पास भर होने की तरह हो सकती है। गांधी ने विकास और प्रगति की प्रक्रिया को अपने शिक्षा सुझावों के माध्यम से बताने का प्रयास किया है, हालाँकि कोरोना काल में अचानक से ऑनलाइन माध्यम में स्विच हुई शिक्षा से यह आशय साफ़ हो गया है कि एडवांस होना या विकास करने के नाम पर हमेशा पिछड़े या आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग पीछे ही रह जाते हैं, जैसे कि अभी जहाँ मेनस्ट्रीम विद्यार्थी अपनी पढाई जारी रखे हैं वहीं ग्रामीण इलाकों में अथवा पिछड़ा वर्ग के पास स्मार्टफ़ोन न होने के कारण शिक्षा की स्थिति नाजुक है।
फण्ड की कमी, सरकारी अनुदान एवं मान्यता न मिलना तथा पाठ्यपुस्तक आधारित न हो कर अनुभव आधारित शिक्षा का होना जैसे कई कारणों से नयी तालीम आधारित विद्यालय देश में असफल हो गये हैं, लेकिन इनके द्वारा किये जा रहे प्रयोग आज भी अधिगम प्राप्त करने के सर्वोत्तम उपायों में से एक हैं। हमें यह ध्यान रखना होगा कि गांधी के शिक्षा संबंधी विचारों से सिर्फ अपने काम भर की सामग्री को लेकर अपने शिक्षा नीति में संकलित करने से नहीं होगा। गांधी के शिक्षा संबंधी विचार एक दीर्घकालिक प्रयोग और प्रक्रिया की तरह हैं। शिक्षा के बाजारीकरण के दौर में नई शिक्षा नीति 2020 कोई नई राह नहीं दिखाती है बल्कि यह नीति भी पूरी तरह से सरकार पर आश्रित है कि किन-किन सुझावों को कैसे-कैसे जमीन पर लाया जाये। एक नज़र में देखें तो NEP 2020 में विद्यालयी स्तर पर आर्थिक-सामाजिक बंटवारे को दूर करने की कोई किरण नज़र नहीं आती।
कवर तस्वीर: शुभम कुमार पति