उदासीनता की महामारी ने सरकार और समाज के खोखलेपन को उजागर कर दिया है


कर्नाटक सरकार द्वारा अपने प्रदेश की अर्थव्यवस्था को बचाने के उद्देश्य से प्रवासी मज़दूरों को घर पहुँचाने के लिये चलायी जाने वाली ट्रेनों को रद्द करना सरकारों की उदासीनता का एक उदाहरण मात्र है। सच तो यह है कि प्रवासी मज़दूर हमेशा से ही उपेक्षा का शिकार रहे हैं तथा समाज तथा सरकारों के लिए वे हमेशा से अदृश्य ही रहे हैं। कर्नाटक सरकार के रवैये ने प्रवासी कामगारों को निराश किया है जिसके चलते वे अपने गृह नगरों की ओर पैदल ही निकल पड़े हैं। कोरोना महामारी धीरे धीरे अब मानवीय त्रासदी में परिवर्तित होती जा रही है क्योंकि हम इस कठिन दौर में भी घाटे मुनाफे का हिसाब किताब जोड़ने में लगे हैं। सरकार तथा समाज का खोखलापन अब साफ दिखने लगा है।

कोरोना महामारी ने विश्व के लगभग सभी देशों की अर्थव्यवस्था को गहरी क्षति पहुँचायी है और भारत भी इससे अछूता नहीं रहा है। 25 मार्च को जब पूर्ण लॉकडाउन की घोषणा की गयी तो अर्थव्यस्था को गति प्रदान करने वाले कामगारों के लिए कोई विशेष कार्य योजना नहीं प्रस्तुत की गयी। चूंकि उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल अदि राज्यों से बड़ी संख्या में मज़दूर काम की तलाश में अन्य राज्यों में जाते हैं, ऐसे में इन प्रवासी मज़दूरों के सामने जीवनयापन का संकट खड़ा हो गया। सरकारें प्रवासी मज़दूरों के मामले में कभी भी संजीदा नहीं रही हैं। ऐसे में इनके रहन सहन तथा भोजन इत्यादि की व्यवस्था के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाये गये।

इस संकट की घड़ी में सरकारों की एक बहुत बड़ी खामी उजागर हो रही है कि सरकारें प्रवासी मज़दूरों में विश्वास पैदा करने में असफल रही हैं। सरकारों तथा राजनेताओं ने आगे बढ़ कर उनको ये भरोसा नहीं दिलाया कि वे राज्य की पूंजी हैं तथा इस देश के नागरिक हैं, उनको घबराने तथा डरने की कोई आवश्यकता नहीं है। इसके विपरीत सरकारें तथा सम्बन्धित शहरों के लोग प्रवासी मज़दूरों को अपने राज्य पर बोझ समझ रहे हैं तथा उनके साथ सौतेलेपन का व्यवहार कर रहे हैं। समाज तथा सरकारों के तिरस्कारपूर्ण व्यवहार से आहत प्रवासी मज़दूर किसी भी कीमत पर अपने गृहनगर लौटना चाहते हैं। यातायात के साधन उपलब्ध न होने के बावजूद ये लोग पैदल तथा साइकिल से भूखे प्यासे यात्रा करने को मज़बूर हुए हैं। इन यात्राओं में कई लोग अपनी जान भी गंवा चुके हैं।

जीता मडकामी की मौत हम सभी के लिए शर्म की बात है। माताएं बहनें कंधों पर सामान तथा बच्चों को उठाये, भूखे प्यासे अपने घरों की तरफ लौट रही हैं। आमदनी ख़त्म हो चुकी है और सरकार के तमाम दावों के बाबजूद उन तक मदद नहीं पहुँच रही है जिससे वे अपनी जान को जोखिम में डाल कर कभी आनंद विहार तो कभी बांद्रा में एकत्रित हो रहे हैं। प्रवासी मज़दूर अपने ही देश में तिरस्कृत महसूस कर रहे हैं। आलम यह है कि सरकारों के पास प्रवासी मज़दूरों के सम्बंध में कोई आधिकारिक डेटा ही उपलब्ध नहीं है। मुख्य श्रम आयुक्त ने एक आरटीआइ आवेदन के जवाब में इसकी पुष्टि की है।

वर्ष 2019 में अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय में हुए एक शोध में कहा गया है कि बड़े शहरों में 29 फीसद जनसंख्या दिहाड़ी मज़दूरों की है जो अपने गृह नगर वापस जाना चाहेंगे। आजीविका ब्यूरो ने अपनी रिपोर्ट में अनुमान लगाया है कि लगभग 12 करोड़ लोग गांवों से काम की तलाश में शहरों की तरफ रुख करते हैं। निश्चित तौर पर महानगरों पर जनसंख्या का दबाव बहुत ज़्यादा है फिर भी इस संकट की घड़ी में हमारी ज़िम्मेदारी उनके प्रति किसी भी तरह से कम नहीं हो जाती है।

कोरोना महामारी ने हमारे समक्ष प्रवासी कामगारों के सम्बंध में कई यक्ष प्रश्न खड़े कर दिये हैं। इस पर  विचार करने की तत्काल आवश्यकता है। सरकारों का उदासीन रवैया सिर्फ इस महामारी की उपज नहीं है। सरकारों तथा पूंजीपतियों ने मज़दूर वर्ग को हमेशा ही एक ईंधन की तरह समझा है जिसके जलने से अर्थव्यवस्थाएं खड़ी हुई हैं परन्तु उनको बुनियादी सुविधाओं जैसे शिक्षा, रहन सहन, स्वास्थ्य आदि प्रदान करने के लिए कभी कोई ठोस नीति नहीं अपनायी गयी। प्रवासी कामगारों के हितों की रक्षा हेतु अंतरराज्यीय प्रवासी कर्मकार (नियोजन, विनियमन एवं सेवा शर्तें) अधिनियम 1979 लागू है। उक्त अधिनियम में प्रवासी मज़दूरों को प्रदान की जाने वाली मूलभूत सुविधाओं को प्रदान करने की ज़िम्मेदारी ठेकेदार अथवा मालिक तक सीमित है। सरकार की भूमिका सिर्फ लाइसेंस निर्गत करने तथा जाँच कर कार्यवाही करने तक सीमित है। हम सहसा अनुमान लगा सकते है कि ठेकेदारी व्यवस्था में प्रवासी मज़दूरों को किस तरह की सुविधाएँ प्रदान की जा रही हैं। इसके अतिरिक्त यह अधिनियम सिर्फ अनुबंध के तहत काम करने वाले कामगारों के अधिकारों तक ही सीमित है। इसमें दिहाड़ी मजदूर, ठेले, रेहड़ी आदि चला कर जीवनयापन करने वाले प्रवासी मज़दूरों को कोई क़ानूनी अथवा सामाजिक संरक्षण की व्यवस्था नहीं है।

संसद की स्थायी समिति ने अंतरराज्यीय प्रवासी कर्मकार (नियोजन, विनियमन एवं सेवा शर्तें) संशोधन विधेयक 2011 पर प्रस्तुत अपनी रिपोर्ट में कहा है कि सरकार द्वारा उनको विभिन्न राज्यों में उपस्थित कामगारों की संख्या भी नहीं उपलब्ध करायी जा सकी और न ही सरकार के पास अधिकृत तथा अनधिकृत ठेकेदारों का कोई ब्योरा उपलब्ध है। समिति ने टिप्पणी करते हुए कहा है कि सरकार द्वारा प्रवासी कामगारों के हितों की रक्षा के लिए इस दिशा में कोई सार्थक प्रयास नहीं किये गये। स्थिति एकदम स्पष्ट है कि सरकारें प्रवासी कामगारों के अधिकारों तथा सुविधाओं को लेकर हमेशा ही उदासीन रही हैं। सरकारों द्वारा प्रवासी मज़दूरों की मूलभूत सुविधाओं की भी व्यवस्था प्रदान करने के प्रयास नहीं किये गये। चूंकि प्रवासी मज़दूर अन्य राज्यों से होने की वजह से सरकारी सुविधाओं का भी लाभ नहीं प्राप्त कर पाते हैं क्योंकि यह योजनाएं सिर्फ राज्यों के निवासियों के लिए ही होती हैं। राज्यों द्वारा प्रदान की गयी सुविधाओं को प्राप्त करने के लिए इनको अमानवीय व्यवहार सहना पड़ता है जो शोषण को बढ़ावा देता है।

कोरोना महामारी ने हमारी इस उदासीनता को उजागर कर दिया है। जहां एक ओर विदेश में फँसे नागरिकों को निकालने में सरकार तत्परता दिखा रही है वहीं प्रवासी मज़दूरों के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार हो रहा है तथा उनको अपने ही देश में उपेक्षा तथा उदासीनता का शिकार होना पड़ रहा है और वह कभी सीमेंट तो कभी सब्जियों के कंटेनर में छिपकर यात्रा करने को मजबूर हो रहे हैं। ऐसा नहीं है कि उनको इस महामारी की गंभीरता का एहसास नहीं है। वह भी नहीं चाहते कि उनकी वजह से किसी को परेशानी हो परन्तु बात अब उनके अस्तित्व तक पहुँच चुकी है जहाँ उनको दो वक़्त का खाना भी नहीं मिल पा रहा है। सरकार उनको घर पहुंचाने के नाम पर धन उगाही में लगी है।

इस उपेक्षाप्रद व्यवहार से कामगार अपने आप को ठगा सा महसूस कर रहा है कि इस पूंजीवादी व्यवस्था में उनके लिए कोई स्थान नहीं है अन्यथा उनको प्रवासी राज्य की सरकार बोझ न समझती और इस संकट की घड़ी में आसरा और भरोसा देती। मूल राज्यों कर सरकारें भी उनको अपने राज्य में बुलाने में आनाकानी कर रही हैं और इनको कोरोना कैरिअर के तौर पर देख रही हैं तथा उनके साथ अमानवीय व्यवहार किया जा रहा है। तभी तो कभी बरेली में उन पर सीधे केमिकल का छिड़काव हो रहा है। और  तो और आगरा में फेंक फेंक कर खाना उपलब्ध कराया जा रहा है। विभिन्न राज्यों से लौटे मज़दूरों को बुनियादी सुविधाएँ उपलब्ध कराये बिना गंदगी से भरे स्थानों पर क्वारंटीन कर बाहर से ताले लगाये जा रहे हैं।

इस महामारी ने हमारे समाज तथा व्यवस्था का निर्दयी चेहरा प्रस्तुत किया है और मज़दूरों की मौत तथा दुर्दशा पूरे राष्ट्र के लिए शर्म की बात है क्योंकि हम संकट के समय एक सभ्य समाज होने की ज़िम्मेदारी पूरी नहीं कर पा रहे हैं। जिनको हम कोरोना वाहक तथा शहरों पर बोझ समझ रहे हैं दरअसल वह कोई भिखारी नहीं है बल्कि अपने श्रम से अर्थव्यवस्था का वाहक है। उनको सम्मान, सहयोग तथा भरोसे की ज़रूरत है।

बीती 6 मई को द हिन्दू में छपी खबर के मुताबिक प्रवासी मजदूरों को घर पहुंचाने के लिए ट्रेन कैंसिल होने पर अब वह सवाल पूछ रहे हैं कि ‘उन्होंने बहुत सारे घर बनाये हैं, अब क्या वे अपने घर भी नहीं जा सकते?’  हम अपने निजी हित साधने में इतने मशगूल हो चुके हैं कि अब हम इनसे इनके घर जाने का अधिकार भी छीनने पर उतारू हो गए हैं!

महामारी के इस दौर में हम एक समाज के तौर पर प्रवासी मजदूरों को आसरा प्रदान करने में पूर्ण रूप से विफल हुए हैं। शहरों तथा अर्थव्यवस्था के निर्माण में लगे कामगारों को एक एक कर हमने उनके हाल पर छोड़ दिया है। हमें आगे बढ़कर उनको भरोसा देने की ज़रूरत ही नहीं महसूस हो रही है। हम नहीं कह पा रहे हैं कि ‘यहीं रुक जाइए, इस शहर पर आपका भी उतना ही अधिकार है, या यू कहें कि आपका अधिकार हमसे भी ज़्यादा है क्योंकि इसको आपने अपनी मेहनत से बनाया है। हम आपको यहां कोई परेशानी नहीं होने देंगे’। अब ऐसी सुखद ख़बरें यदा कदा ही सुनने को मिलती हैं। हम एक इंसान होने का फ़र्ज़ नहीं निभा रहे हैं। व्यवस्थाओं तथा लोगों के उदासीन व्यवहार से प्रवासी मज़दूर अपने आप को तिरस्कृत महसूस कर रहे हैं।

द प्रिंट में छपी खबर के मुताबिक प्रवासी मज़दूरों के प्रति बुरे बरताव की बात भी सामने आ रही है। मज़दूरों का कहना है कि शहरों ने उनका त्याग कर दिया है। ऐसा लगता है जैसे कि हम सिर्फ उनके लिए एक साधन मात्र हैं। पुलिस उन्हें प्रताड़ित कर रही है और ऐसा व्यवहार कर रही है कि मानो वे दोयम दर्जे के नागरिक हों जिससे उनके अन्दर यह भावना घर करने लगे कि अब वे शहरों की तरफ रुख नहीं करेंगे क्योंकि शहरों ने उनके ऐसे वक़्त पर त्याग दिया जब उनको सबसे ज़्यादा ज़रूरत थी।

हमे ये समझना होगा की प्रवासी मज़दूर व्यवस्था तथा समाज पर बोझ नहीं, वे श्रम के देवता हैं जो अपनी श्रम शक्ति से निर्माण का कार्य करते हैं। वे हमारी आधुनिक अर्थव्यवस्था का आधार हैं। कामगार हमारे समाज का अभिन्न हिस्सा है जो इस देश की भलाई के बारे में सोचता है तथा हमेशा समाज हित में कार्य करने को तत्पर रहता है। राजस्थान में स्कूल में ठहराये गये प्रवासी मजदूरों ने उस स्कूल का ही कायाकल्प कर दिया और वो भी बिना किसी लालच के। यह दर्शाता है कि हमें उनके अधिकारों तथा सम्मान के प्रति संवेदनशील होने की आवश्यकता है क्योंकि रूपये पैसे से ज़्यादा आपसी विश्वास की ज़रूरत होती है। इस संकट की घड़ी में सरकार तथा समाज को उनको हर संभव सहायता उपलव्ध करानी चाहिए।


लेखक मेरठ के देव नागरी कॉलेज में अंग्रेज़ी के असिस्टेंट प्रोफेसर हैं


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9 Comments on “उदासीनता की महामारी ने सरकार और समाज के खोखलेपन को उजागर कर दिया है”

  1. You wrote very well sir,
    Samaaj or sarkaar ko un majduro ki situation ka andaza bhi nhii h
    Wo kaise bina khaye piye kitne din nikal rhe h.
    Sarkaar ko unko sbse phle vishwas dilana chahiye or usse bhi phle unki help krni chahiye taki koi bhuka na rhe or har kisi ko dhyn rkhna chahiye koi unke aas-paas is jrurt k samay bhuka na rhe….

  2. A heart-rending saga of shame and guilt in a world overcrowded with publicised declarations of humanitarian, egalitarian postures. Gods are wiser closing their doors upon the hypocrites of all colors. But what crime have these helpless people committed to be forsaken in this hour of need? Wars of the world make headlines with their loud destructiveness, but this silent struggle for existence in the twenty first century is a huge question mark upon the claims of our so-called civilization.

  3. Sarkar ko un sbhi majduro ki help krni chahiye Jo Apne ghr se bahar h musibat me fase h ye na dekhte hue k kon kis state se h… Har saal 1 may ko majdur diwas mnaya jata h but asal me es bar Sarkar ko majdur diwas mna k majduro k liye Concrete steps Lene chahiye jb unke Pas khane tk k liye nhi h aur Apne ghr Jane k liye Sarkar pe nirbhar h……

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