क्या आपने कभी गौर किया है कि हिंदुत्व की ताकतें कैसे अपने आलोचकों और विरोधियों को खामोश करने की कोशिश करती हैं? कैसे नये-नये शब्द गढ़ कर वे अपने प्रोपगंडे के लिए खरीदार तलाश करती हैं?
आजकल हिंदुत्व की ताकतों पर ‘इस्लामोफिया’ (मुस्लिम विरोधी नफरत और द्वेष) फैलाने का इलज़ाम अरब देशों में लगाया जा रहा है। इसको लेकर सोशल मीडिया पर एक मुहीम भी चलाई जा रही है। अपनी फजीहत को महसूस कर भगवा ताकतों ने पलटवार किया है। इन सवालों से भागते हुए हिंदुत्व की ताकतों ने ‘हिन्दूफोबिया’ और ‘काफिरोफोबिया’ जैसे शब्द गढ़ लिए हैं जिनका इस्तेमाल वह एक “शस्त्र” की तरह कर रही हैं!
काफिरोफ़ोबिया का क्या मतलब है? काफिरों के खिलाफ नफरत और द्वेष को काफिरोफोबिया कहेंगे। “काफ़िर” शब्द अरबी भाषा का है, जो क्रिया ‘क-फ-र’ से बना हुआ है। ‘अल्कामूस-अल वाहिद’ डिक्शनरी के मुताबिक, क्रिया “क-फ-र” का मतलब है, ‘काफ़िर होना’, ‘वहदानियत या नबूवत या शरियत को न मानना’ या फिर ‘इंकार करना’। इस तरह काफ़िर वह है जो एक ईश्वर, पैग़म्बर और शरियत (इस्लामी कानून) को न माने या उसकी हकीकत से इंकार करे।
यह सही है कि इस्लाम मूर्तिपूजा का घोर विरोधी है मगर मूर्तिपूजा के द्रोही तो और धर्मों और विचारों के मानने वाले हैं। मगर इन सब बातों से हिंदुत्व की ताकतों को बहुत मतलब नहीं है। हिंदुत्व की ताकतें सिर्फ यह बतलाना चाहती हैं कि ‘देखो हिन्दुओं, इस्लाम धर्म तुम्हारी मूर्ति पूजा का द्रोही है. वह एकेश्वरवाद (Monotheism) तुम पर थोपना चाहता है’। वे यह नहीं बतलाना चाहेंगे कि मूर्तिपूजा का विरोध आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती ने भी किया था जिनको वे अपनी विरासत से जोड़ते हैं। मूर्तिपूजा के बारे में स्वामीजी की जो राय थी उस पर वे कभी बात नहीं करते। गुरुनानक और कबीर ने इन सवालों पर क्या कहा है इस पर भी बात नहीं करते। राजाराम मोहनराय ने एकेश्वरवाद के बारे में क्या कहा था और किस हद तक उनके विचार इस्लाम से मेल खाते थे, इस पर भी बात नहीं होती।
आरएसएस से जुड़े डॉ. के. वी. पालीवाल ने इस्लाम के खिलाफ हिन्दुओं के दिलों में खौफ पैदा करने के इरादे से एक परचा “भारत इस्लामी राज्य की ओर: एक चेतावनी” (2017) के नाम से लिखा है। इसमें यहां तक दावा किया गया है कि पैग़म्बर मुहम्मद भारतीय संस्कृति और धर्म के विरोधी थे। इतिहास को तोड़ने मरोड़ने और सांप्रदायिक करने की कला कोई डॉ. पालीवाल से सीखे। इनके शब्दों को देखिये:
“इतिहास साक्षी है कि भारत ने न कभी अरेबिया और न किसी अन्य इस्लामी देश पर कोई हमला किया, फिर भी मुसलमान भारत पर लगातार आक्रमण करते रहे, आखिर क्यूं? इसके उत्तर में पाकिस्तानी विद्वान् अनवर शेख ने अपनी पुस्तक ‘इस्लाम एंड टेररिज्म’ (p. 121) में लिखा है: ‘वास्तव में पैग़म्बर मूर्तियों से घृणा करता था बल्कि वह भारतीय संस्कृति और उसके प्रबल धार्मिक प्रभाव का विरोधी था जिसका कि मध्यपूर्व पर भी प्रभाव था और सांस्कृतिक दृष्टि से अरेबिया भारत का अंग बन चुका था। इसलिए भारतीय मूल की प्रत्येक वस्तु को अपमानित, अधोपतित एवं नष्ट भष्ट किया जाना चाहिए’। इतना ही नहीं, पैगम्बर मुहम्मद अरबियों को भगवा रंग के कपडे पहने को मना करता था”।
इन दावों का कोई आधार नहीं है। मुहम्मद भारत को कितना जानते थे यह भी शोध का विषय है मगर लेखक, पाठक वर्ग में इस्लाम और मुसलमान के प्रति गलतफहमियां ज़रूर पैदा कर देते हैं।
“काफ़िर” शब्द का उपयोग कर आरएसएस भारत के बहुसंख्यक हिन्दुओं को यह बतलाने की कोशिश करता है कि ‘इस्लामोफोबिया’ के खिलाफ चल रहा यह ‘कैम्पेन’ दरअसल “हिन्दू” और “हिन्दुस्तान” विरोधी है। कुछ महीने पहले नागरिकता विरोधी तहरीक के दौरान भी आरएसएस ने इसे ‘खिलाफत-2’ कह कर बदनाम करने की कोशिश की थी जिसका मकसद कोई देश और संविधान बचाना नहीं बल्कि “देश” और “हिन्दू विरोधी” एजेंडा को फैलाना है। अब कुछ इस तरह की बात ‘इस्लामोफोबिया’ के खिलाफ चल रही मुहीम को भी बदनाम करने की मंशा से की जा रही है। ‘इस्लामोफोबिया’ को काटने के लिए ‘काफिरोफ़ोबिया’ और ‘हिन्दूफ़ोबिया’ का शस्त्र चलाया जा रहा।
कुछ दिनों से अरब देशों में सोशल मीडिया पर ‘इस्लामोफिबा’ के खिलाफ एक शोला उठा है। निशाने पर भारत की हिंदुत्व शक्तियां, जैसे आरएसएस और बीजेपी हैं। इनके खुले या गुप्त समर्थकों के मुस्लिम और इस्लाम विरोधी ‘कमेंट’ को खोद कर निकाला जा रहा है मगर इस शोले में चिंगारी तब लगी जब दक्षिण बेंगलुरु से भाजपा के नवजवान संसद तेजस्वी सूर्य का एक पुराना ट्वीट हाथ लग गया। उन्होंने इस ट्वीट में अरब महिलाओं के खिलाफ बेहद आपत्तिजनक शब्दों का प्रयोग किया था. “अरब की 95 प्रतिशत महिलाओं ने पिछले सैकड़ों सालों से सेक्स में चरम सुख (ऑर्गेज्म) अनुभव नहीं किया है। हर माँ ने सेक्स संबंध बनाकर सिर्फ बच्चे पैदा किए हैं। उन्होंने प्यार का अनुभव नहीं किया है”।
क्या ‘इस्लामोफोबिया’ के खिलाफ गुस्सा इस ट्वीट की वजह से भड़का? नहीं, इस रोष के दीर्घकालीन कारण भी हैं। मुसलमानों के खिलाफ भारत में लगातार भेदभाव और हिंसा की घटना बढ़ रही थी। खासकर हिंदुत्व की सरकार में अल्पसंख्यक खुद को असुरक्षित महसूस कर रहे हैं। अरब दुनिया इन बातों को देखकर काफी नाराज़ है। बस सूर्य के ट्वीट ने इस नाराज़गी में आग पकड़ने का अवसर दे दिया।
इस मुहीम को भारत के सत्ता वर्ग में बैठी भगवा ताकतों ने नोटिस लिया। ‘डैमेज कंट्रोल’ की गरज से केंद्रीय अल्पसंख्यक मंत्री मुख़्तार अब्बास नकवी को सामने लाया गया और उन्होंने भारतीय मुसलमानों को संबोधित करते हुए कहा कि “भारत मुसलमानों के लिए जन्नत है” (दैनिक जागरण, 22 अप्रैल)। फिर आरएसएस प्रमुख मोहन भगवत ने भी चुप्पी तोड़ी और कहा कि कोरोना की लड़ाई को सांप्रदायिक न करें (नवभारत टाइम्स, 27 अप्रैल) ने उनके बयान को यूं प्रस्तृत किया है: “मोहन भागवत ने कोरोना संकट में समुदाय विशेष के प्रति दुर्भावना वाली सोच को लेकर देशवासियों को सावधान किया है।”
यह सब करना सरकार और हिंदुत्व की ताकतों की मजबूरी भी है। उनको भी पता है कि घरेलू सांप्रदायिकता देश की छवि को ख़राब कर रही है। इसका भारी नुकसान देश को उठाना पड़ सकता है। अरब देशों में करोड़ों भारतीय रोज़ी रोटी कमाते हैं। तेल और अन्य पेट्रोलियम पदार्थ की ज़रूरत को पूरा करने के लिए भारत को इन्हीं देशों पर निर्भर रहना पड़ता है। पूर्व डिप्लोमेट तिलमीज़ अहमद (“वायर”, 27 अप्रैल) ने मायूसी ज़ाहिर की है कि सांप्रदायिक सोच से ग्रसित उन्मादी इस तथ्य से अंधे हैं कि भारत और पश्चिम एशिया के बीच पांच हज़ार साल पुरानी विरासत है जिसने भारत और पश्चिम एशिया की सभ्यता और लोगों को आपस में जोड़ा है। अहमद की टिप्पणी काफी महवपूर्ण है। वे सऊदी अरब, ओमान और यू.ए.ई. में भारत के राजदूत रह चुके हैं और वह वहां की ज़मीनी हकीकत से बखूबी वाकिफ हैं मगर हिंदुत्व ताकतों ने अभी तक न ही अरब विरोधी पोस्ट की निंदा की है और न ही ऐसे संकेत दिए हैं कि मुसलमानों के खिलाफ चल रही यह नफरत की राजनीति ख़त्म होनी चाहिए। ऐसा महसूस हो रहा है कि हिंदुत्व ताकतें अहमद जैसे जानकारों की नसीहत को भी सुनने को तैयार नहीं हैं।
‘इस्लामोफोबिया’ के सच को कबूल करने और इस पर रोकथाम लगाने के बजाय उसने ‘काफिरोफोबिया’ और ‘हिन्दूफोबिया’ शब्द चला कर अपना प्रोपगंडा फैलाना शुरू कर दिया है। “मुस्लिम तुष्टिकरण”, “देश की सुरक्षा पर खतरा”, “कट्टर मुसलमान” की देश और हिन्दू विरोधी कार्रवाई, पाकिस्तान का भारत के खिलाफ “साजिश”, सेक्युलर दलों द्वारा “बहुसंख्य हिन्दू समाज के हितों की अनदेखी”, हिंदुत्व ‘डिस्कोर्स’ के मुख्य बिंदु हैं। काफ़िरोफोबिया में भी यही सब आप को दिख जाएंगे।
आरएसएस के मुखपत्र ‘आर्गेनाइजर’ (मई 3) के ताज़ा अंक ने इन्हीं बिन्दुओं को समेट कर प्रोपगंडे फ़ैलाने का काम किया है। “साइबर प्रॉक्सी वार इन दी नेम आफ मुस्लिम ब्रदरहुड” के शीर्षक से एक लेख छपा है। दिलचस्प बात यह है कि इसमें लेखक का नाम गायब है। इस लेख को ‘विदेशी संवाददाता’ के नाम से छापा गया है। कई बार लेखक का नाम इसलिए भी गायब कर दिया जाता है कि अगर यह खबर ‘फ्लॉप’ और “फर्जी” साबित हुई तो इसके लिए किसी खास पत्रकार को नहीं पकड़ा जाएगा। पत्रकारिता की अन्य कसौटी पर भी यह खबर खरी नहीं उतरती। इस लेख में दावे बड़े बड़े किये गये हैं और इल्जाम भी संगीन लगाया गया है मगर सबूत काफी कमज़ोर दिये गये हैं। सब कुछ अटकलों के कमज़ोर स्तंभ पर खड़ा किया गया है। शायद यही वजह है कि इस लेख में ‘बाइलाइन’ नहीं है।
बात शीर्षक से ही शुरू करते हैं. “साइबर प्रॉक्सी वार इन दी नेम आफ मुस्लिम ब्रदरहुड” का मतलब यह है कि अरब देश से मुस्लिम बिरादरी ने जो मुहीम चलाई है वह असल में भारत के खिलाफ परोक्ष साइबर युद्ध है। परोक्ष युद्ध (Proxy War) वह युद्ध है जिसमें बड़ी शक्तियों के फायदे में कोई दूसरा लड़ता है। इस तरह हिंदुत्व ताकतें पाठक को यह यकीन दिलाना चाहती हैं कि भारत के खिलाफ चल रही यह मुहीम, जिसके चेहरे अरब देश में बैठे ‘सोशल एक्टिविस्ट’ हैं, किसी और के इशारे पर चलायी जा रही है।
लेख में अरब के मुल्कों से उठी इस्लामोफोबिया की आवाज़ को कट्टर मुस्लिम और पाकिस्तान से जोड़ दिया गया। लेख में दावा किया गया है कि “कोविड-19 के फैलाव के लिए ज़िम्मेदार तबलीगी जमात की जब आलोचना की गयी तो इसकी प्रतिक्रिया में केरल के इस्लामिक आतंकवादी संगठन पाकिस्तानी ख़ुफ़िया एजेंसी आइएसआइ की सक्रिय मदद ने पश्चिम एशिया में भारतीय सरकार के खिलाफ एक पाइलट मुहीम चलायी और हिन्दुओं के खिलाफ हिन्दूफोबिया भड़काया।
उपर्युक्त वाक्य में “पाइलट” शब्द के चयन पर गौर कीजिए। यह कहने की कोशिश है अरब में जो भी हो रहा है यह सिर्फ अभी प्रयोग है। आगे आने वाले दिनों में भारत (और हिन्दुओं) की सुरक्षा के लिए और भी खतरे हैं। भारत के कट्टर मुसलमान और पाकिस्तान मिल कर मुसीबतें खड़ी कर सकते हैं। उसी मुस्लिम विरोधी मानसिकता की वजह से ‘आर्गेनाइजर’ ने भारत के “कट्टर” मुसलमान और पाकिस्तान को एक ही कैंप में डाल दिया गया है और उनको भारत के लिए खतरा बना कर पेश किया है। इस बिडम्बना को भी देखिये कि जिस तबलीगी जमात के खिलाफ कोरोना वायरस फ़ैलाने का “मुजरिम” हिंदुत्व शक्तियों ने करार दिया था और उनके खिलाफ जम कर दुष्प्रचार किया था, कहीं कहीं तो उनका आर्थिक बायकाट भी हुआ, इन सब को सिर्फ “आलोचना” का नाम दिया गया है। दरअसल, हिंदुत्व की ताकतों ने तबलीगी जमात को निशाना बनाकर उनको एक “विलेन” के तौर पर पेश किया है, आलोचना नहीं की।
इस लेख में यह भी आरोप लगाया गया है कि पश्चिम एशिया में केरल के ‘जेहादी’ प्रवासी ‘राष्ट्रवादी’ भारतीय नागरिकों को निशाना बना रहे हैं क्योंकि वह भारत सरकार की नीतियों का समर्थन करते हैं। ‘आर्गेनाइजर’ अपने इस लेख में कहता है कि “मुस्लिम सांप्रदायिक तत्व, खासकर मुस्लिम लीग, जमात-ए-इस्लामी, पॉपुलर फ्रंट ऑफ़ इंडिया, ने एक विशेष सोशल मीडिया सेल पश्चिम एशिया में बना लिया है जिसने हिन्दुओं के सोशल मीडिया प्रोफाइल की निशानदेही कर ली है, जिसने नागरिकता कानून का समर्थन किया था और तबलीगी जमात की निंदा कोविड-19 फ़ैलाने के लिए की थी। 2019 के दिसम्बर में एक भारतीय डॉक्टर को क़तर के अस्पताल से ‘एक्सपेल’ कर दिया गया। उनके ऊपर कुछ मुस्लिम कट्टर तत्वों ने अस्पताल के अधिकारियों को यह यकीन दिला दिया कि इस डॉक्टर का नागरिकता समर्थक पोस्ट हिन्दुस्तानी मुसलमान के खिलाफ है और सांप्रदायिक भी है।”
यह पहला मौक़ा नहीं है जब हिंदुत्व की शक्तियों ने मुसलमानों पर आरोप लगाया है कि वे नागरिकता कानून का समर्थन न करने वाले हिन्दुओं को टारगेट करते हैं। केरल में हाल के दिनों में हिंदुत्व की ताकतों ने खूब हंगामा मचाया कि नागरिकता कानून की हिमायत की वजह से वहां के दलितों को मुसलमानों ने पानी की सप्लाई रोक दी हालांकि अंग्रेजी अख़बार द हिंदू की 25 जनवरी की खबर ने इन अफवाहों को गलत साबित किया और कहा कि पानी की सप्लाई में रुकावट तकनीकी वजह से हुआ था और इसका कोई सांप्रदायिक ‘एंगल’ नहीं है।
इस लेख को पढ़ कर ऐसा महसूस होता है कि केरल के मुसलमान हिन्दुओं, हिन्दुस्तान और हिंदुस्तान की सरकार के लिए “विलेन” हों। दरहकीकत केरल के मुसलमान एक बड़ी संख्या में अरब के देशों में काम करते हैं। उनके हालात उत्तर भारत के मुसलमानों से बहुत बेहतर हैं। तालीमी और आर्थिक हालात उनके काफी बेहतर हैं। राजनीतिक तौर पर भी वे काफी बेदार हैं। वे केरल के कई इलाकों में बड़ी तादाद में बसते हैं। भाजपा वहां राजनीतिक तौर पर कामयाब नहीं हो पायी है। सत्ता सीपीएम और कांग्रेस के बीच में घूमती रहती है। यह सब बीजेपी के लिए परेशानी का कारण है। वह अपनी जमीन तैयार करने के लिए केरल की राजनीति को किसी तरह से सांप्रदायिक करने की कोशिश कर रही है। केरल के मुसलमानों को निशाना बनाना हिंदुत्व ताकतों की इसी राजनीति का हिस्सा है।
माहौल को और सांप्रदायिक बनने की गरज से ‘आर्गेनाइजर’ ने इन मुद्दों को नागरिकता विरोधी आन्दोलन से भी जोड़ दिया और कहा कि देश के कट्टर मुसलमानों ने पहले नागरिकता विरोधी आंदोलन के बहाने भारत विरोधी मुहीम चलायी थी। ‘इस्लामोफोबिया’ मुहीम के दौरान इनका साथ देने के लिए अब कट्टर सलफी मुसलमान भी कूद पड़े हैं जिनका मकसद प्रवासी हिन्दू, आरएसएस और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को निशाना बनाना है।
“सलफी” मुसलमान उन सुन्नी मुसलमानों को कहते हैं जो 18वीं सदी के बड़े समाज सुधारक मोहम्मद बिन अब्दुल वहाब (1703-1792) के विचारों से प्रभावित हैं। “सलफ़” का मतलब अरबी ज़बान में “बाप दादा” अर्थात पूर्वज होता है। सलफी इस्लाम, इस्लाम के शुरूआती दौर को आदर्श मानता है। आगे लेख में केरल के सलफी मुसलमानों पर जमकर हमला बोला गया। फिर पाकिस्तान को इस बात के लिए ज़िम्मेदार ठहराया गया कि वह इन मुहीम के पीछे खड़ा है। ‘आर्गेनाइजर’ के अनुसार, जिस तरह आइएसआइ नें जम्मू और कश्मीर में अनुच्छेद 370 को खत्म किये जाने के बाद प्रोपगंडा फैलाया, कुछ इसी तरह का प्रोपगंडा इस्लामोफोबिया के खिलाफ फैलाया जा रहा है। यह भी दावा किया गया कि पाकिस्तान ने नागरिकता कानून के खिलाफ हो रहे विरोध का इस्तेमाल भी भारत विरोधी गतिविधों के लिए किया था जो ‘कामयाब’ नहीं हो सकता। अब उसने इस्लामोफोबिया के इस मुहीम का समर्थन करना शुरू किया है। विदेशी मीडिया जैसे “अलजजीरा”, “गल्फ न्यूज़” “खलीज टाइम्स” पर भी हमला बोला गया और कहा गया कि इसका इस्तेमाल भारत के खिलाफ ‘प्रोपगंडा’ फैलाने में किया गया।
इस तरह आप देख सकते हैं कि देश में फ़ैल रही सांप्रदायिक राजनीति को रोकने के बजाय हिंदुत्ववादी शक्तियों ने “काफिरोफोबिया” का जुमला गढ़ दिया है। इस प्रोपगंडा में एक “बाहरी खतरे” का खौफ़ केंद्र में है। हिंदुत्व के विचारक वी. डी. सावरकर ने भी अपनी किताब “हिंदुत्व” में कहा था कि जितना बड़ा दुश्मन लोगों को राष्ट्र और विभिन्न राष्ट्रों को राज्य बनने के लिए काम करता है उतना और कुछ नहीं। सरल शब्द में, हिंदुत्व की राजनीति डर और खौफ़ का भूत खड़ा कर के ही कामयाब हो सकती है।
मगर डर और खौफ़ से बाहर भी दुनिया है। सावरकर की नफरतअंगेज़ राजनीति के मुकाबले बाबासाहेब आंबेडकर का ‘सोशल फीलिंग’ का विचार भी है। आंबेडकर ने कहा है कि आपसी बंधुत्व से ही देश में एकता पैदा होती है।
अभय कुमार जेएनयू से पीएचडी हैं. इनकी दिलचस्पी माइनॉरिटी और सोशल जस्टिस से जुड़े सवालों में हैं. आप अपनी राय इन्हें debatingissues@gmail.com पर भेज सकते हैं