सैम्युअल जॉनसन ने कभी कहा था, ‘‘देशभक्ति लुच्चों की आखिरी शरणस्थली होती है’’। फोटोग्राफ में विराजमान दोनों प्रधानमंत्री देशभक्त होने का दावा जरूर करेंगे। अब जहां तक लुच्चा कहने की बात है तो उसे आपके आकलन पर छोड़ा जा सकता है, लेकिन यह स्वाभाविक है कि दोनों एक साथ देशभक्त नहीं कहला सकते हैं।
गौरतलब है कि दोनों प्रधानमंत्रियों ने कुछ दिन पहले एक करार किया जिसके बारे में कोई बात नहीं कर रहा है। यहां तक कि भारत की हुकूमत भी, अपने स्वभाव के विपरीत, इसके बारे में ढिंढोरा नहीं पीट रही है। महज पाँच दिन पहले ब्रिटिश सरकार ने ऐलान किया कि उसने भारत के साथ एक करार किया है जिसके तहत भारत, ब्रिटेन में एक बिलियन पौंड (1.39 बिलियन डॉलर) का निवेश करेगा जिससे ब्रिटेन में 6,500 नौकरियां पैदा होंगी। इसके अलावा भारत सरकार न केवल ब्रिटिश कारों और ब्रिटिश व्हिस्की पर बल्कि ब्रिटिश सेब और नासपाती पर भी टैरिफ/तटकर घटा कर अपने बाज़ार के दरवाजे उनके लिए खोलेगी।
यह प्रस्ताव भुलभुलैया से भी विचित्र प्रतीत होता है। अकेले अप्रैल माह में भारत में कम से कम 75 लाख नौकरियां चलीं गयीं। हक़ीकत यही है कि महामारी के दौरान और मोदी के कुशासन में भारत में कई करोड़ नौकरियां समाप्त हुई हैं। और मोदी हुकूमत का वरदहस्त पाए धन्नासेठ ब्रिटेन में दस हजार करोड़ रूपया निवेश करने वाले हैं ताकि वहां उन्नत तनख्वाह वाली ब्रिटिश नौकरियां पैदा हों। इसके अलावा भारत, ब्रिटिश सामानों के लिए तटकर घटा कर सेब और नासपाती के (कार और व्हिस्की के भी) भारतीय उत्पादकों के हितों को भी चोट पहुंचाएगा। आखिर भारत को इससे क्या मिल रहा है?
अगर इसके बारे में सोचते हैं तो आपको यह बात बिल्कुल आश्चर्यजनक नहीं मालूम होगी। जब हजारों लोग ऑक्सिजन एवं अस्पताल में बेड की कमी से मर रहे हैं, तो यही वह सरकार है जो इस वक्त़ एक नये सेंट्रल विस्टा, नयी संसद और प्रधानमंत्री के लिए एक नये मकान के लिए दसियों हजार करोड़ रूपयों का खर्च कर रही है। यही वह हुकूमत है जिसके तहत उसके प्रिय कॉर्पोरेट घरानों ने उन्हीं दिनों अत्यधिक मुनाफा कमाया है जबकि भारत प्रचंड मानवीय संकट से गुजर रहा है।
यह वह प्रधानमंत्री हैं जो न केवल भारत के कॉर्पोरेट घरानों को उस वक्त़ अकूत दौलत इकट्ठा करने का रास्ता सुगम कर रहे हैं जब लोगों की नौकरियां जा रही हैं; उन्हें प्रचंड कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है; तमाम लोग भुखमरी के कगार पर हैं; जहां सड़कों पर चिताएं जल रही हैं और रात दिन लाशें पहुंच रही हैं; वह उन्हें इस बात में भी सहूलियत प्रदान कर रहे हैं कि वे उस दौलत को विदेशों में सुरक्षित ले जाएं- उसे संपन्न मुल्कों में निवेश करें और वहां नौकरियों का निर्माण करें। क्या वह देशभक्त कहलाने के अधिकारी हैं? भले ही हम सैम्युअल जॉनसन के इस संदर्भ को भूल जाएं जहां उन्होंने लुच्चा होने की बात भी की थी?
आखिर यह सरकार और उसके प्रधानमंत्री कितने राष्ट्रविरोधी हो सकते हैं? और आखिर क्यों नहीं इंडो ब्रिटिश समझौते पर यहां कोई बात कर रहा है?
New Socialist Intiative के फ़ेसबुक से साभार प्रकाशित
कवर फोटो साभार Reuters