भाषा-चर्चा: तकनीक की ‘अंधाधुन’ गोलीबारी में टूटता हिंदी का संयुक्त परिवार


अब तक इस जगह पत्रकारिता, पत्रकारों और उनकी भाषा पर बात हुई है। इसका मतलब यह नहीं है कि दोष केवल उन पर डालकर हिंदी के बाकी कर्णधारों को क्लीनचिट दे देना है। उनकी चर्चा बारहां इसलिए हो रही है या हुई क्योंकि जनसंचार सबसे शक्तिशाली माध्यम है, आम जन को प्रभावित करने का। आज के क्षणजीवी समय में, जब ट्विटर और फेसबुक (कुल मिलाकर सोशल मीडिया) इतने प्रभावशाली हो चुके हैं कि सरकारों या कम से कम उसके मंत्रियों के आने-जाने के पीछे भी सोशल मीडिया ही एक मुद्दा है, तो भाषा को जनसंचार के माध्यम कितना प्रभावित करते होंगे ये सोचने वाली बात है। पत्रकारों पर इसीलिए सबसे अधिक जिम्मेदारी भी आती है।

एक उदाहरण से अपनी बात और खोलकर कहता हूं। जब मैं किशोर था (यानी 1990 का दशक, पूर्वार्द्ध) तो फिल्मों के पोस्टर चाहे कितनी भी अशुद्धि वाले छपे हों, परदे पर कुछ भी अशुद्ध नहीं होता था और हमारे पिताओं की पीढ़ी तो यह भी कहती थी कि फिल्मी गाने सुनकर आपकी ज़बान संवर सकती है, आपका तलफ्फुज़ दुरुस्त हो सकता है और आपकी भाषा समृद्ध हो सकती है। अब हिंदी फिल्मों की कास्टिंग (परदे पर शुरू में कलाकारों, निर्देशक वगैरह के चलते हुए नाम) तक में हिज्‍जे गलत होते हैं, जो पहले हम सोच भी नहीं सकते थे। जैसे, एक फिल्म आयी थी- ‘अंधाधुन’। अब यह नाम क्यों रखा गया, ये तो निर्माता जानें, लेकिन दुष्प्रभाव ये हुआ है कि धड़ल्ले से अखबारों में, डिजिटल स्पेस में लोग ‘अंधाधुन गोलीबारी’ लिख रहे हैं और टोकने पर उलझ भी रहे हैं, आपको ही गलत बता रहे हैं।

तकनीक की सहज पहुंच से आज हरेक आदमी पत्रकार है, हरेक व्यक्ति यू-ट्यूबर है और हरेक व्यक्ति संप्रेषक है। इसे आप रोक नहीं सकते क्योंकि प्रजातंत्र में अपने विचारों का प्रचार-प्रसार करने को हरेक व्यक्ति स्वतंत्र है। ‘टू मच डेमोक्रेसी’ की बहस अपनी जगह है, लेकिन मीडिया संस्थानों का ऐसे में दायित्व और कर्तव्य भी है कि वे हिंदी को बचाएं और जुगाएं। अगर हाजीपुर में माइक लेकर बाढ़ की रिकॉर्डिंग दिखाते युवक को आप पत्रकारिता का मेयार मानेंगे, तो उसकी गाली-गलौज को भी आपको पत्रकारिता में ही जगह देनी होगी जो वह इंजीनियर्स को देता है, अधिकारियों को देता है। आप आज भी रैंट, ट्रोल, पत्रकार, संचारक जैसे शब्दों में अंतर क्यों रखते हैं? भाषा ही तो है न, एकमात्र कारण? फिर, इस भाषा को बचाने के लिए जब लोग जद्दोजहद कर रहे हैं या सलाह दे रहे हैं तो आप उनके ही विरोध में क्यों उतर जा रहे हैं?

क्रोनोलॉजी को समझना होगा। जब 24 घंटे के चैनल्स का विस्फोट हुआ तो स्क्रिप्ट में वर्तनी और व्याकरण देखने वाले सही हिंदी लिखने के आग्रही लोगों को शुद्धतावादी कहा गया। कहा जाता था कि यार पढ़ना ही तो है, एंकर सुधार कर पढ़ लेंगे। अब ‘कि’ लिखा है या ‘की’, इससे क्या फर्क पड़ता है? इस आलस्य और ‘सब चलता है’ वाले एटीट्यूड से फर्क क्या पड़ा है, आप किसी भी न्यूज चैनल और खासकर उसके टिकर (टी.वी. पर नीचे चलती पट्‌टी) को देखकर लगा सकते हैं। रोजाना दर्जनों उदाहरण और स्क्रीनशॉट वायरल हो सकते हैं, अगर आप चैनल्स को ध्यान से देखें तो। कई वायरल होते भी हैं। कारण वही है। “छपना थोड़े न है, पढ़ना ही तो है। जल्दी से स्क्रिप्ट लिखो और फेंको।”

अब मामला उससे भी आगे जा चुका है। अब तो जो छपना है, भले ही वह डिजिटल हो, भले ही वह आभासी हो, लेकिन उसे भी अब इसी एटीट्यूड के साथ छापा जा रहा है। डिजिटल स्पेस में भी सारे अखबार या वेबसाइट केवल वीडियो तो बनाते नहीं। पाठक तो पढ़ता है ही, फिर उसे आप गलत भाषा परोस कर साबित क्या कर रहे हैं? दस साल पहले तक खबरिया चैनलों में अगर एक ब्रेकिंग या हेडिंग गलत हो जाती थी तो तूफान मच जाता था। पूरा दिन उस प्रोड्यूसर का खराब हो जाता था जिससे वह गलती होती थी, लेकिन अब शायद लोगों ने नोटिस करना भी छोड़ दिया है। कुछ वर्षों में हालत ये होगी कि गलत को ही सही लिखा जाएगा और जो लोग सही जानते होंगे, वे बेचारे होंगे, किनारे पड़े होंगे।

हिंदी की हालत ऐसी है कि भयंकर व्याकरणिक और शाब्दिक भूलें की जा रही हैं, तो ‘कॉमन एरर्स’ की बात ही क्या की जाए। एक बड़ा मजेदार काम इधर बीच हुआ है। ‘दिनों’ का प्रयोग बंद कर ‘दिन’ को ही प्रचलित कर दिया गया है। जैसे- ‘कई दिन से वह बीमार था’, ‘बीस दिन तक नजर रखने के बाद अपराधी ने वार किया’, ‘ये उन दिन की बात है’… इत्यादि। उसी तरह ये, वे, वह, यह इत्यादि के बीच का फर्क भी मिट गया है। लोगों को पता ही नहीं है और पता इसलिए नहीं है कि व्याकरण कोई पढ़ता ही नहीं। तकनीक ने संवाद को जितना सुलभ किया है, उसकी सबसे अधिक मार हिंदी पर ही पड़ी है। तकनीक के विशेषज्ञों और ‘अरे भाई, कम्युनिकेट ही करना है न, बात तो समझ गए न’ वाले तर्क पर जो फिदा हैं, उन्हें यह पता ही नहीं चल रहा है कि अगर जड़ यानी भाषा ही नहीं रही, तो शाखों को कितना बचाओगे।

भाषा की समृद्धि नये शब्दों, पर्यायवाचियों, मुहावरों, उक्तियों आदि से होती है। दादी-नानी की कहानियां बंद होने का नुकसान यह हुआ कि हमारे पास लोकोक्तियां या मुहावरों का भंडार नहीं हो पाता। शेक्सपि‍यर महान लेखक इसलिए माना जाता है कि उसने हजारों शब्दों का प्रयोग किया। आज हमारे पास शब्द-भंडार नहीं है, इसलिए अगर हमें ‘उपलब्ध’ कठिन लगता है, तो उसके बदले तुरंत ‘अवेलेबल’ ही लिख कर जान छुड़ा ली जाती है, लेकिन यह नहीं सोचते कि जिस पाठक की दुहाई देकर उपलब्धि को हटाया गया, क्या उसे अवेलेबल समझ आएगा?

टेक्स्ट बुक या फिक्शन, नॉन-फिक्शन की किताबें पढ़ना नहीं है तो आपके पास शब्दों की क्षमता वैसे भी सीमित हो जाएगी। यह ठीक रिश्तों की तरह है। जिस तरह एकल परिवारों की वजह से चाचा-चाची, मौसा-मौसी, फुआ-फूफा जैसे रिश्ते सिमटते गए और एक ‘अंकल’ और ‘आंटी’ में समा गए, उसी तरह विष, ज़हर, हलाहल आदि का भी समायोजन एक ‘प्वाइज़न’ में हो गया। हम हिंदी वाले अब ‘कज़न ब्रदर’ या ‘कज़न सिस्टर’ का प्रयोग करते हैं।

रिश्तों की बात से एक और उदाहरण याद आया। वर्षों की जगह साल का हमने बहुवचन कर दिया है और मजे से ‘सालों’ लिखते चले आ रहे हैं। यह प्रयोग व्याकरणिक तौर पर अगर शुद्ध है भी तो बोलने में खटकता जरूर है- ‘कई सालों से डैम का काम चल रहा है’! क्यों भाई, कई सालियों से क्यों नहीं चल रहा, कई भतीजों से क्यों नहीं चल रहा? आप अगर उसे वर्षों कर देंगे तो लोग जटिल और कठिन बताकर उसे भी हटा देंगे। हां, इनको यह आत्मविश्वास जरूर रहता है कि ये जो लिख रहे हैं, वह सरल है, सहज है।

एक उदाहरण और मुलाहिजा फरमाइए, ‘राहुल द्रविड़ ने डगआउट में आकर जडेजा को कौन सा मंत्र दिया’…। यह वाक्य जिस किसी ने भी लिखा है, उसे लगता है कि ‘डगआउट’ एक बेहद आमफहम शब्द है, हालांकि यह ऐसा है नहीं। यह शब्द बेसबॉल से लिया गया है और क्रिकेट की आइपीएल सि‍रीज़ के बाद अंग्रेजी से जस का तस उठा लिया गया। पहले तो क्रिकेट में ड्रेसिंग रूम ही होता था, अब आइपीएल में खिलाड़ी सीमारेखा के पास एक चैंबरनुमा जगह में बैठते हैं और उसी को डगआउट कहते हैं। इतनी जानकारी पान की दुकान पर बैठे अखबारी पाठक या खेत में बीज छींटते किसान को होगी क्या, जो अपने चाइनीज़ मोबाइल पर आपकी खबरें देख रहा है (पढ़ रहा है या नहीं, यह तो पता नहीं)?



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