मोदी दशक में हिंदी सिनेमा: सॉफ्ट पावर बना सॉफ्ट टारगेट


प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बीती 3 मई को कर्नाटक की एक चुनावी जनसभा में फिल्‍म ‘द केरल स्टोरी’ का जिक्र करते हुए कहा था कि इस फिल्म में केरल में चल रही ‘आतंकी साजिश’ (लव जिहाद) का खुलासा किया गया। इससे पूर्व फरवरी 2024 में प्रधानमंत्री जम्मू कश्मीर की एक सभा में लोगों को “आर्टिकल 370” फिल्म देखने की सलाह देते हुए कह चुके थे- ‘’मैंने सुना है कि इस हफ्ते आर्टिकल 370 पर एक फिल्म रिलीज होने वाली है… ये अच्छी बात है क्योंकि इससे लोगों को सही जानकारी हासिल करने में मदद मिलेगी।”

2024 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले “बस्तर द नक्सल स्टोरी” रिलीज हुई। इसको लेकर दावा किया गया है कि फिल्म पिछले 60 वर्षों से भारत में व्याप्त माओवाद-नक्सलवाद वामपंथ के गहरे गठजोड़ को उजागर करती है। फिल्म के निर्देशक सुदीप्तो सेन हैं जिनकी पिछली फिल्म “द केरल स्टोरी” भी काफी विवादित रही थी। इसी प्रकार से “जेएनयू: जहांगीर नेशनल यूनिवर्सिटी” 5 अप्रैल को सिनेमाघरों में रिलीज होने वाली थी, जिसे बाद में स्थगित कर दिया गया। गोधरा कांड पर बनी फिल्म “एक्सि‍डेंट ऑर कॉन्सपिरेसी गोधरा” जो इस साल मार्च में रिलीज होने वाली थी, सेंसर बोर्ड सर्टिफिकेट न मिलने की वजह से तय समय पर रिलीज नहीं हो पाई।


सहृदय बनाने के सारे प्रशिक्षण केन्द्रों पर जबर ताले लटके हुए हैं!


कुछ और फिल्में भी लाइन में हैं जिसमें “रजाकर: साइलेंट जेनोसाइड ऑफ हैदराबाद” प्रमुख रूप से शामिल है जिसका निर्माण भाजपा तेलंगाना राज्य कार्यकारी समिति के सदस्य गुडुर नारायण रेड्डी द्वारा किया गया है। इसके अलावा दीनदयाल उपाध्याय, आरएसएस के संस्थापक डॉ. हेडगेवार की जीवनी पर भी फिल्में बन रही हैं।

सांस्कृतिक वर्चस्व की लड़ाई

पिछले एक दशक में हिन्दुत्ववादी एजेंडे पर आधारित फिल्मों का भाजपा की केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा जबरदस्त तरीके से प्रचार किया जा रहा है जिसमें प्रधानमंत्री से लेकर भाजपा के मुख्यमंत्री तक शामिल रहे हैं। इन फिल्मों की फेहरिस्त में द एक्सिडेन्टल प्राइम मिनिस्टर, द केरल स्टोरी, द कश्मीर फाइल्स, पी.एम. नरेन्द्र मोदी, 72 हूरें, द वैक्सीन वार, मैं अटल हूँ, स्‍वातन्‍त्रयवीर सावरकर, आर्टिकल 370, बस्तर-द नक्सल स्टोरी जैसी फिल्‍में प्रमुख रूप से शामिल हैं।

2014 के बाद से एक राष्ट्र और समाज के तौर पर भारत को पुनर्परिभाषित करने के जो सुव्यवस्थित प्रयास किए गए हैं, उससे फिल्में भी अछूती नहीं हैं। इस दौरान हिन्दुस्तान का सॉफ्ट पॉवर कहे जाने वाले हिंदी सिनेमा को सॉफ्ट टारगेट बनाया गया। कभी देवताओं की तरह पूजे जाने वाले उसके सितारों को घृणा और बायकॉट अभियानों का शिकार बनाया गया। हिंदी सिनेमा को हिन्दू-मुस्लिम की साम्प्रदायिक बहस में धकेला गया। देश में अचानक ऐसी फिल्मों की बाढ़ आ गई जिसमें मुसलमानों, वामपंथियों और उदारवादियों को खलनायक के तौर पर पेश किया गया। इन सब का जुड़ाव 2014 के भगवा उभार, बॉलीवुड में खान सितारों के वर्चस्व व फिल्मी दुनिया के धर्मनिरपेक्ष मिजाज से है जो हिन्दुत्ववादियों को कभी भी रास नहीं आया।

पिछले दस वर्षों में हिंदी सिनेमा को सांस्कृतिक वर्चस्व की लड़ाई का मैदान बना दिया है। इसके पीछे कई कारण हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि आजादी के बाद दशकों तक भारतीय सिनेमा पर नेहरूवादी समाजवाद और वामपंथी प्रभाव रहा है। सत्ता में आने के बाद हिन्दुत्ववादी ताकतें सिनेमा के इस सॉफ्ट पॉवर की सीधे तौर पर नियंत्रित करते हुए इसका अपने तरीके से उपयोग करना चाहती हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, जो खुद को एक सांस्कृतिक संगठन के तौर पर पर पेश करता है, बॉलीवुड को धर्मनिरपेक्षता के गढ़ के रूप में  देखता रहा है और लम्बे समय से इसके मिजाज को बदलने का मंसूबा पाले हुए है।



एक और कारण बॉलीवुड के शीर्ष तीन “खान” सुपरस्टार हैं जो नब्बे के दशक से बॉलीवुड और दर्शकों के दिलों पर राज कर रहे हैं और जिनके प्रशंसक धार्मिक सीमाओं से परे हैं। इन तीन सितारों की अभूतपूर्व लोकप्रियता हैरान कर देने वाली है और वे हमें पुरानी सुपरस्टार तिकड़ी राज कपूर, देव आनंद और दिलीप कुमार की याद दिलाते हैं। इतने व्यापक ध्रुवीकरण वाले समय में भी हिंदी सिनेमा की इस अनोखी स्थिति को लेकर हिन्दुत्ववादियों की चिढ़ समझी जा सकती है। इसलिए पिछले एक दशक से खान सितारे लगातार उनके निशाने पर बने रहे हैं। इस दौरान सोशल मीडिया पर उन्हें ट्रोल किया जाना या उनकी फिल्मों के बहिष्कार की मांग बहुत आम रही है।

अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की रहस्यमय मौत के बाद बॉलीवुड के खिलाफ सुनियोजित बायकॉट अभियान चलाया गया जिसमें पूरी फिल्म इंडस्ट्री को नशेड़ी और अपराधियों के नेटवर्क के तौर पर पेश करने की कोशिश की गई। इस संबंध में बीबीसी द्वारा की गई पड़ताल में पाया गया कि बॉलीवुड और उसके कलाकारों के खिलाफ किसी योजना के तहत एक नकारात्मक अभियान चलाया गया। बॉलीवुड के खिलाफ दुष्प्रचार फैलाने वाले अधिकतर लोग बहुसंख्यक दक्षिणपंथी विचारधारा के हैं और उनका जुड़ाव सत्ताधारी पार्टी से है। बायकॉट अभियान को समझने के लिए दक्षिणपंथी न्यूज पोर्टल “ऑपइंडिया” में “बायकॉट बॉलीवुड- क्या यह वास्तव में आवश्यक है?” शीर्षक से प्रकाशित लेख का जिक्र मौजू होगा जिसमें चिंता जाहिर की गई है कि बायकॉट अभियान की वजह से पूरी फिल्म इंडस्ट्री का विरोध ठीक नहीं है। लेख में असली दुश्मन को पहचानने की सलाह दी गई है।

जाहिर है, ये दुश्मन तीनों खान और उनका स्टारडम है। लेख में आह्वान किया गया है कि “हमें हिंदी फिल्म उद्योग को खत्म नहीं करना है बल्कि हमें हिंदी फिल्मों से उर्दू को हटाना है, हमें हिंदी फिल्मों में गलत इतिहास को दिखाने से रोकना है, हमें हिंदी फिल्म उद्योग से वामपंथियों के गैंग के एजेंडे को खत्म करना है, हमें हिंदी फिल्म उद्योग से हिंदू विरोधी सरगनाओं से छुटकारा पाना है, हमें हिंदी फिल्म उद्योग का शुद्धिकरण करना है”।

सांस्कृतिक वर्चस्व की इस लड़ाई में आज हमारे समाज की तरह बॉलीवुड भी खेमों में बंट गया है। यहां भी हिन्दू-मुस्लिम आम हो चुका है और पूरी इंडस्ट्री जबरदस्त वैचारिक दबाव के दौर से गुजर रही है।

जमीन अभी बाकी है

इन तमाम प्रयासों के बावजूद बॉलीवुड की पुरानी जमीन बची हुई है। इस दिशा में 2023 के शुरू में रिलीज हुई ‘पठान’ ने बॉयकॉट अभियान के चक्रव्यूह को तोड़ने का काम किया है और एक प्रकार से मुश्किल में पड़े बॉलीवुड की वापसी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इस फिल्म ने एक प्रकार से बॉलीवुड को लेकर बनाए गए खास नैरेटिव को तोड़ने का काम किया। शायद इसी वजह से फिल्मकार अनुराग कश्यप ने पठान की सफलता को सोशियो-पॉलिटिकल उल्लास बताया था।


‘पठान’ को मिल रहा समर्थन उसे मिले विरोध का विरोध है?

‘पठान’ उर्फ बेवजह विवाद में एक चालू सिनेमा का प्रतीक बन कर उभरना


हिंदी फिल्‍म इंडस्ट्री ने 2013 में अपने सौ साल पूरे कर लिए थे। अपनी तमाम सीमाओं के बावजूद पूरी दुनिया में इसकी पहचान अपनी खास तरह की फिल्मों के लिए है। यह हमारे उन चंद पेशेवर संस्थानों में है जो समावेशी हैं और जिनका दरवाजा सभी के लिए खुला है। यही बात बहुसंख्यक दक्षिणपंथियों को हमेशा से खटकती रही है। इसलिए आज वे बॉलीवुड को भी अपना भोंपू बना लेना चाहते हैं और इसके लिए वे हर हथकंडा अपना रहे हैं।

आने वाले समय मे बॉलीवुड पर नियंत्रण के प्रयास और तेज होंगे, लेकिन अपनी पहचान और अस्तित्व को बनाए रखने के लिए उसके पास कोई और चारा भी तो नहीं है।


लेखक भोपाल स्थित स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं

(कवर तस्वीर सावरकर के ऊपर बनी फिल्म से)


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