देश के गृहमंत्री अमित शाह ने 13 फरवरी 2021 को लोकसभा में जम्मू-कश्मीर प्रशासनिक सेवा को भंग करके इसे अरुणाचल प्रदेश, गोवा, मिज़ोरम और केंद्रशासित प्रदेशों के लिए निर्धारित विशेष व्यवस्था (AGMUT कैडर) के तहत लाने के अध्यादेश पर विपक्ष के जवाब में एक घंटे से ज़्यादा लंबा भाषण दिया। इस भाषण में 5 अगस्त 2019 के बाद जम्मू-कश्मीर में केंद्र के हस्तक्षेप का विस्तृत ब्यौरा दिया गया। बीते 17 महीनों में जम्मू-कश्मीर और लद्दाख में क्या हुआ, उसके बारे में यह एक पुख्ता आधिकारिक बयान है। लोकसभा की वेबसाइट पर यह भाषण मौजूद है। जम्मू-कश्मीर और देश के लोग इसे एक आधिकारिक प्रतिवेदन या रिपोर्ट मान सकते हैं।
इस भाषण के मूल तर्क वही हैं जो अनुच्छेद 370 व 35ए को हटाने के वक्त दिये गये थे। इसके मूल में जम्मू-कश्मीर के विकास की विकट आकांक्षा थी जिसकी राह में अनुच्छेद 370 जैसी संवैधानिक व्यवस्था को बहुत बड़ी बाधा बताया गया था। इसलिए इस लंबे भाषण में विकास की विरद गाने पर ज़ोर दिया गया, हालांकि भाषण के समापन तक पहुँचते-पहुँचते माननीय गृह मंत्री भावनाओं के आवेग में बह गये (शायद) और अतिरंजना में अपनी सरकार की मूल प्रवृत्ति के बारे में बोल गये:
नरेंद्र मोदी सरकार परिपत्रों से नहीं चलती है। नरेंद्र मोदी सरकार कानूनों से नहीं चलती है। नरेंद्र मोदी सरकार योजना से नहीं चलती है। नरेंद्र मोदी सरकार भावना से चलती है। भावना है कि कोई पराया नहीं है।
अमित शाह, लोकसभा में सम्बोधन, 13 फरवरी 2021
दिलचस्प है कि लोकसभा अध्यक्ष ने इस उद्गार को ज्यों का त्यों सदन की कार्यवाही में ‘’ऑन द रिकॉर्ड’’ जाने दिया। इस भाषण में मानवाधिकारों की नयी परिभाषा यह कहते हुए गढ़ी गयी कि हम ‘मानवाधिकारों को मानवाधिकारों’ के रूप में ही देखते हैं और उनके मानवाधिकारों को लेकर काम कर रहे हैं जिन्हें तीन परिवारों (अब्दुल्ला, मुफ्ती और गांधी) ने कभी महत्व नहीं दिया। अमित शाह ने यह नहीं बतलाया कि जिन लोगों के मानवाधिकारों को इन तीन परिवारों ने मानवाधिकार माना, क्या उनके मानवाधिकार अब महत्वहीन हो चुके हैं? यह सवाल इस लंबे भाषण में अनुत्तरित रह गया।
बहरहाल, अनिवार्यत: सियासी कहे जाने वाले मुद्दों को छोड़ दें, तो इस भाषण को आधार बनाकर विकास की नयी इबारत को कश्मीर के उन छह जिलों के सुदूर गांवों के प्रत्यक्ष अनुभव के बरक्स परखा जाना चाहिए जहां की यात्रा कर के मैं लौटा हूं।
उन गांवों के अनुभवों पर आने से पहले यह कहना ज़रूरी है कि जम्मू-कश्मीर के विकास के दावों को अगर सरकार द्वारा कम करके भी बताया जाता या बस उतना ही बताया जाता जितना वास्तव में किया गया है, तब भी इसे लेकर कोई बहुत बड़ी बहस खड़ी होने नहीं जा रही थी और सरकार की स्थिरता पर कोई संकट नहीं आता। सरकार की ‘साख’ पर तो खैर कोई बट्टा लगने नहीं ही जा रहा था क्योंकि ‘मजबूत इरादों’ वाली इस सरकार ने तमाम जनविरोधी निर्णय अपनी साख को दांव पर लगा कर ही लिए हैं। और वह निर्णय लेने में कामयाब भी रही है, लिहाजा साख यहां बेहद गैर-मामूली मुद्दा है।
इसके अलावा, जब बीते 17 महीनों में विकास के दावों को कोरोना संकट के आलोक में देखा जाता और आंतरिक संघर्ष से जूझते दूसरे राज्यों की उपलब्धियों के अनुपात में भी देखा जाता, तब सरकार को अनावश्यक रूप से बढ़ा-चढ़ा कर विकास के आंकड़े गिनाने की ज़रूरत वैसे भी नहीं होती। फिर भी सरकार ने ऐसा किया और गृहमंत्री के भाषण के बरअक्स विकास की हकीकत तब खुल गयी जब यह सामने आया कि कुल 8 गाँवों के 400 परिवारों के नाम उजाला योजना या स्वच्छ भारत मिशन सरीखी योजनाओं के लाभार्थियों में कहीं भी मौजूद नहीं थे। बक़ौल गृहमंत्री इन योजनाओं को बीते 17 महीनों में शत-प्रतिशत लागू कर दिया गया है। ये परिवार उन 3,57,405 परिवारों की फेहरिस्त से भी गायब थे जिन्हें शत-प्रतिशत घरों को बिजली पहुंचाने के लक्ष्य का लाभार्थी बताया गया है।
यहां जिन परिवारों से हमारी मुलाक़ात हुई, दुर्भाग्य से वे उन 12 लाख 60 हज़ार परिवारों में शामिल नहीं हैं जिन्हें उज्ज्वला योजना के तहत गैस के कनेक्शन दिये जा चुके हैं। ये परिवार उन 79 लाख 54 हजार लाभार्थियों में भी शामिल नहीं हैं जिन्हें उजाला योजना के तहत एलईडी बल्ब दिये गये हैं। ये परिवार उन 34 लाख 44 हजार लोगों की सूची से भी बाहर हैं जिन्हें डोमिसाइल यानी अधिवास सर्टिफिकेट दिये जा चुके हैं। छात्रवृत्ति का दायरा बढ़ाने के बाद भी इन परिवारों के बच्चे अभी तक उसमें शामिल नहीं हो पाये हैं। कई बच्चे ऐसे हैं जो आठवीं के आगे नहीं पहुँच पाते और इनकी पढ़ाई रुक जाती है।
इन परिवारों के पास जाकर आपको यह महसूस हो सकता है कि अनुच्छेद 370 व 35ए हटा देने मात्र से इनके जीवन में विकास नहीं लाया जा सकता। ये गाँव और ये परिवार आज भी तमाम उपलब्धियों से वंचित हैं। बेशक ये परिवार उन 18 लाख 16 हज़ार परिवारों में शामिल हैं जिन्हें पाइपलाइन से पानी पहुंचाने के दावों में शामिल किया गया है, हालांकि जिस तरह से पानी पहुंचाया गया है और उसके बदले जितना शुल्क परिवारों से लिया जा रहा है उस पर भी बात होना ज़रूरी है।
एक पहाड़ी सदानीरा नदी के पाट पर बसा बमुश्किल 40-50 परिवारों का यह गाँव कश्मीर का सीमांत गाँव है, जिसके बाद ऊंचे-ऊंचे पहाड़ शुरू हो जाते हैं। इन पहाड़ों के पार जम्मू और हिमाचल प्रदेश की सीमाएं शुरू हो जाती हैं।
इस गाँव में गुज्जर समुदाय के लोग सदियों से रहते आये हैं। कुछ परिवार चौपन समुदाय के भी हैं जो बाद में यहां आये। ये दोनों ही समुदाय ऐतिहासिक रूप से पशुपालन पर निर्भर हैं इसलिए इन पहाड़ों और जंगलों पर भी निर्भर हैं। इनकी जिंदगी ख़ानाबदोश है। मौसम के अनुसार इनका एक सालाना कैलेंडर बना हुआ जिसके हिसाब से इनके रहने के ठिकाने बदलते रहते हैं। अपने पुश्तैनी गाँव में इनकी रिहाइश न्यूनतम 6 महीने होती है। बाकी के छह महीने अपने पशुओं के साथ ये जंगलों और पहाड़ों में रहते हैं। पहाड़ों में इनके कच्चे अस्थायी डेरे हैं जिसे ‘डोकू-बेकू’ कहा जाता है, जो गर्मियों में इनके रहने के ठिकाने हैं।
जब ये समुदाय पहाड़ों में होते हैं तब इनके साथ पूरा परिवार ही जाता है। कुछ परिवारों में कुछ लोग जो ज़्यादा बूढ़े हैं नीचे अपने गाँव में ही रह जाते हैं। ऐसे में बच्चों की पढ़ाई-लिखाई या स्वास्थ्य सुविधा की न्यूनतम औपचारिक व्यवस्था पहले की सरकारों ने की थी, जिन्हें मोबाइल स्कूल और डिस्पेन्सरी कहा जाता रहा है। कमोबेश ये व्यवस्थाएं चलती रही हैं। मोबाइल स्कूलों को लेकर इन्हें कोई गंभीर शिकायत नहीं रही और चूंकि स्वास्थ्य को लेकर इनका परंपरागत ज्ञान ही ज़्यादा अमल में आता है, इसलिए औषधीय पौधों की परंपरागत समझ और तजुर्बे के चलते इन्हें आधुनिक चिकित्सा की ज़रूरत कम पड़ती है। कुछ मामलों में हालांकि इन्हें मोबाइल डिस्पेन्सरी के फायदे अतीत में मिलते रहे हैं।
अनुच्छेद 370 हटने के बाद ये ये दोनों ही व्यवस्थाएं ठप हो गयी हैं। प्राशासनिक फेरबदल और निर्णय लेने के केंद्रीकृत माहौल में संबंधित विभाग भी अपनी तरफ से कोई पहलकदमी नहीं ले रहे हैं। इन दोनों ही व्यवस्थाओं का ज़िक्र बीते 17 महीनों में हुए विकास की गाथा में नहीं आया है।
विकास की जिन योजनाओं का ज़िक्र हुआ है उनका रुख करें तो यहां के लोगों के मुताबिक स्वच्छ भारत मिशन का कोई अर्थ उनके लिए है ही नहीं। और वास्तविकता में एक भी टॉयलेट गाँव में नहीं बना है। देश के गृहमंत्री ने इस योजना को शत-प्रतिशत लागू होना बताया गया है। जम्मू-कश्मीर को छोड़कर शेष भारत 2 अक्तूबर 2019 को खुले में शौच से मुक्त यानी ओपन डिफिकेशन फ्री (ओडीएफ) घोषित किया जा चुका है, लिहाजा यहां भी कभी किसी वक़्त ओडीएफ की घोषणा की ही जा सकती है।
सौभाग्य योजना के तहत बिजली पहुंची है? यह ऐसा सवाल था जिस पर सभी लोग बात करना चाहते हैं। वजह है कि लोगों को बगैर बिजली हर महीने 400-500 रुपए का बिल देना पड़ रहा है। यह बताया इस बस्ती/गाँव के एक बुजुर्ग व्यक्ति अब्दुल हमीद गुज्जर ने। उन्होंने बेहद तल्ख अंदाज़ में सौभाग्य योजना की सच्चाई से रूबरू कराते हुए बताया कि ‘अक्तूबर में हमारे यहां बिजली लगाने का काम हुआ, लेकिन हमें तो कोई बिजली का खंभा तक नहीं दिखलायी दिया।‘
यह सवाल जैसे उनके लिए अपेक्षित ही था: ‘’आप ही बताइए, बिना खंभों के बिजली गाँव में कैसे आएगी?’’ लेकिन यहां ऐसे ही हुआ। दरख्तों के सहारे बिजली के तार गाँव तक लाये गये और हर घर में एक बल्ब का होल्डर लटकाया गया जिसमें पुराने जमाने का बल्ब लगाया गया। एकाध बार वह बल्ब जला भी लेकिन कभी कोई पेड़ टूट गया या हवा चल गयी तो जैसे तैसे आयी हुई बिजली लौट गयी। अब नहीं आती। एक बार ठीक भी हुई लेकिन हवा तो रोज़ चलती है। पेड़ भी टूटते रहते हैं। तो बिजली अभी नहीं है।
हमें बिजली का बिल 400-500 देना पड़ता है। तब भी जब हम यह गाँव छोडकर पहाड़ों में होते हैं, अव्वल तो बिजली आती नहीं और दूसरा हम इस्तेमाल भी नहीं करते फिर भी बिजली का बिल हमें भुगतना पड़ता है। यह तो हमारे साथ अजीब हो गया।
अब्दुल हमीद गुज्जर, नरगिस्तान
सौभाग्य और उजाला योजना इस गाँव के लोगों से कर वसूली का जरिया मात्र बन गयी हैं, ऐसा लोगों का कहना है।
जिन 18 लाख 16 हजार परिवारों को जल जीवन मिशन के तहत उनके घरों में नल से पानी पहुंचा देने का दावा गृहमंत्री ने किया उनमें यह गाँव भी आता है और यहां भी पाइप से पानी पहुंचाया गया है। इस दावे पर इस गाँव के लोगों में बड़े पैमाने पर असंतोष है। बशीर अहमद खान, जो उसी बस्ती के बाशिंदे हैं, बताते हैं कि ‘’इन अठारह महीनों में हमने वो भी खो दिया जो हमारा था।“
उदाहरण देकर वो बताते हैं:
जैसे ये नदी है, हर समय बहती है। इस नदी के ठीक पाट पर हमारे घर हैं। हम अपना पूरा निस्तार इस नदी से करते रहे हैं। अब जल-जीवन मिशन के तहत यहां हर घर में नल लगाने की योजना आ गयी। ज़ोर-शोर से अफसरों और मुलाजिमों का आना शुरू हुआ। हमने उनसे कहा भी कि हमें घर में पानी की ज़रूरत नहीं है, हमारे घर और इस नदी में कोई दूरी नहीं है। लेकिन अफ़सरान ने कहा कि यह नरेंद्र मोदी की स्कीम है। अनिवार्य है। आप कौन होते हैं मना करने वाले? हमें हाँ कहना पड़ा। अब हुआ क्या? हमारी ही नदी में एक मोटा पाइप लगाकर, एक टंकी में डाल दिया गया। उस टंकी से कई छोटे-छोटे पाइप निकालकर हमारे घरों तक पहुंचा दिया गया। उन नलों में टोंटी लगा दी गयी। अब नदी तो हमेशा बहती है। बड़े पाइप से पानी हर वक़्त टंकी में आता है। हम अपने नलों की टोंटी बंद भी रखें लेकिन उस टंकी से हर समय पानी बहता रहता है। इसके एवज़ में हमें 100-200 रुपया महीना बिल देना पड़ता है। ये तो ज्यादती ही हुई न? हम बिल क्यों दें? नदी हमारी है और सरकार का कुछ खर्च भी नहीं है और सबसे बड़ी बात कि हमने ये नल नहीं मांगे थे।
बशीर अहमद खान, नरगिस्तान
शिक्षा के मामले में यह समुदाय जागरूक हुआ है और चाहता है कि उसके बच्चे पढ़ें, हालांकि लड़कियों को पढ़ाने के मामले में अभी बहुत सारे किंतु-परंतु हैं, लेकिन गुरबत के कारण बमुश्किल कोई बच्चा आठवीं से आगे पढ़ सकता है क्योंकि बाहर पढ़ाने का खर्चा नहीं है। अधिकांश बच्चे माँ-बाप के साथ घुमंतू जीवन ही जीते हैं।
पहले की सरकारों ने ऐसे समुदायों के लिए ‘मोबाइल स्कूल’ चलाये थे जो बच्चों के पास पहुँचकर उन्हें पढ़ाते थे लेकिन अब तो कोई मास्टर भी आता नहीं। यहां तक कि जब वो अपनी बस्ती -गाँव में होते हैं तब भी कोई मास्टर नहीं आता। यहां सरकार के नाम पर केवल पंचायत सचिव और फॉरेस्ट गार्ड ही हैं जो पहले भी होते थे।
उन्होंने एक और उदाहरण दिया जो वहां बैठे वनरक्षक को रास नहीं आया और नियम विधान का हवाला देकर उस बात को वह टरकाने की कोशिश करने लगा। मुद्दा था घर बनाने के लिए पहले हर परिवार को एक सूखा पेड़ बहुत रियायती दामों में मिलता था। इसे ‘कश्मीर नोटिस’ कहा जाता था। अगर वन विभाग की डिपो में एक वर्ग फीट लकड़ी का टुकड़ा 900 रुपए में मिलता था वो इन्हें इस योजना के तहत मात्र 40-50 रुपये में मिल जाता था। चार-पाँच महीने बर्फ से लदे इन कच्चे छप्परों की लकड़ी को बदलना पड़ता है। इस बार घरों के छप्पर टूट गये हैं लेकिन पेड़ नहीं मिला और बतलाया गया कि यह योजना अब खत्म हो गयी है क्योंकि निज़ाम बदल गया है।
आंगनबाड़ी या राशन दुकान की कोई व्यवस्था यहां नहीं है। इसे लेकर हालांकि इनकी उम्मीदों पर पानी नहीं फिरा क्योंकि ये सब पहले भी नहीं था, लेकिन ऐसा बतलाया गया था कि नये निज़ाम में ये सब होगा।
डोमिसाइल यानी अधिवास प्रमाणपत्र के मामले में गृहमंत्री ने कहा था कि 30 लाख 44 हज़ार परिवारों को बीते 17 महीनों में यह दिया जा चुका है। यह कश्मीर के लोगों के लिए बेहद चिंता का मुद्दा है क्योंकि अधिवास प्रमाणपत्र की पात्रता को लेकर व्यापक पैमाने पर आशंकाएं हैं। इस मामले में पहले के निज़ाम से तुलना स्वत: बाहर आ जाती है, कि ‘’पहले तो हमें यह साबित नहीं करना पड़ा या हमसे किसी नहीं पूछा कि तुम यहीं के बाशिंदे हो? अब पूछा जा रहा है तो हम भी ये कागज ले रहे हैं लेकिन कई लोग हैं जिन्हें नहीं मिल पाया है तो उनका क्या होगा?’’
इस गाँव में अभी अधिवास प्रमाण पत्र की कोई प्रक्रिया नहीं चली है और अगर चलेगी भी तो इनके पास अपनी मिल्कियत की ज़मीनों के कागज न होने के कारण एक असुरक्षा है। मिल्कियत की राजस्व ज़मीनों और वन भूमि के बीच अभिलेखों में स्पष्टता नहीं होने से लोगों को यह डर भी सता रहा है कि अगर वे ठीक से अपनी ज़मीनों के अभिलेख नहीं दे पाएंगे तो उनका प्रमाणपत्र नहीं बनेगा।
कागज बनवाना या पुराने अभिलेखों की नकल निकलवाना कश्मीर में बहुत जटिल काम है। विशेष रूप से अनुच्छेद 370 हटने और इस सूबे को केंद्र शासित प्रदेश के रूप में पुनर्गठित करने के बाद ‘गुज्जर व बक्करवाल विकास बोर्ड’ के काम के दायरे के सीमित या निष्क्रिय होने के बाद इस बड़ी आबादी और सरकार के बीच का वह सेतु जैसे टूट सा गया है। यह एक एजेंसी थी जिस पर इन अनुसूचित जाति में शामिल समुदायों को थोड़ा भरोसा था क्योंकि वह इनके पास पहुँचती थी।
इस नये निज़ाम से आपको क्या उम्मीदें हैं? इस एक सामान्य से सवाल पर वहां बैठे सबसे बुजुर्ग व्यक्ति ने बताया– ‘’सुना है हमें जंगल पर अधिकार मिल जाएगा, लेकिन हमारे पास कोई कागज नहीं है इसलिए पता नहीं मिल पाएगा या नहीं। मिल्कियत की ज़मीनों का भी कोई पुख्ता कागज नहीं है और जाति का प्रमाणपत्र भी नहीं है।‘’
तो बनवा लीजिए! इस पर उनका कहना है, ‘’कहां से बनवा लें? हर चीज़ का पैसा लगता है। और बेज़ा लगता है। कम से कम 5000 मांगते हैं।‘’ वो अपनी बात का समाहार करते हुए कहते हैं:
हम भारत की सरकार से दुखी नहीं थे, यहां के मुलाजिमों के जुल्मों से दुखी थे। हमने तो भारत कभी देखा ही नहीं। हमें केवल मुलाज़िम देखे हैं। जब यह सब घटा तब हम ही समझाते थे कि अब मुलाजिमों से राहत नसीब होगी, लेकिन अब तो लगता है जैसे ज़ुल्म और बढ़ रहे हैं।
नरगिस्तान के एक बुजुर्ग
जिन समुदायों के साथ यह बातचीत हुई, वे पुराने निज़ाम को फिर से याद करने लगे हैं जबकि कश्मीर के स्थापित परिवारों और खानदानों को लेकर उनके मन में कोई सहानुभूति नहीं है बल्कि वे तो यह मानते हैं कि ‘उनके साथ ठीक ही हुआ’। ये खुद को भारत सरकार के प्रति ‘वफादार कौम’ भी कहते हैं, बावजूद इसके अगर महज़ 17 महीनों में इस घुमंतू समुदायों को भी पुराने दिन याद आने लगे हैं तो देश के गृहमंत्री को यह समझना चाहिए कि वाहवाही लेने के पीछे वाकई कुछ ठोस काम ज़मीन पर सुनिश्चित हों।
कश्मीर में ‘शांति और विकास’ के तमाम दावे तब तक अधूरे रहेंगे जब तक लोकतान्त्रिक ढंग से ‘न्याय’ को इनका आधार नहीं बनाया जाता। न्याय, कल्याणकारी योजनाओं से केवल स्थापित नहीं होता बल्कि इसके लिए भरोसा जीतना सबसे अहम काम है। भरोसे की बुनियाद पर न्याय की प्रक्रिया शुरू हो सकती है और न्याय की ठोस ज़मीन पर शांति और फिर विकास के लिए दरवाजे खुलेंगे।
यह लेख न्यूजलॉन्ड्री हिन्दी पर प्रकाशित हो चुके लेख का संपादित संस्करण है