नवजात स्वास्थ्य पर चाइल्ड राइट्स ऐंड यू (क्राइ) के किये एक अध्ययन से पता चला है कि उत्तर प्रदेश के वाराणसी, कौशाम्बी और सोनभद्र जिलों में 10 में 8 नवजात शिशुओं की मृत्यु जन्म के 7 दिनों के भीतर ही हो गयी। कुल 82 फीसद नवजात शिशुओं की मौत जन्म के एक सप्ताह के भीतर इन जिलों में दर्ज की गयी।
अध्ययन से यह भी पता चला कि सबसे ज्यादा 58 फीसद नवजातों की मौतें घर पर हुईं। वहीं निजी अस्पताल में 20 फीसद और सरकारी अस्पताल में 18 फीसद की मौत हुई। निमोनिया और रेस्पिरेट्री डिस्ट्रेस्स सिंड्रोम यानी सांस लेने में तकलीफ इन दो प्रमुख वजहों से सबसे ज्यादा बच्चों की जान गयी। निमोनिया से 27 फीसद और रेस्पिरेट्री डिस्ट्रेस्स सिंड्रोम से 24 फीसद नवजात की जान गयी।
संस्था द्वारा सोमवार को आयोजित एक वेबिनार में ये आंकड़े जारी किये गये। क्राइ संस्था द्वारा नवजात स्वास्थ्य के मुद्दे को लेकर एक सत्र भी रखा गया, जिसमें प्रख्यात विशेषज्ञों ने अपने विचार साझा किये। विशेषज्ञों के तौर पर डॉ. वेद प्रकाश, महाप्रबंधक चिकित्सा और स्वास्थ्य (राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन) उत्तर प्रदेश, डॉ. नीलम सिंह, सचिव, वात्सल्य संस्थान (उत्तर प्रदेश) और जन मित्र न्यास संस्थान (उत्तर प्रदेश) की मैनेजिंग ट्रस्टी को आमंत्रित किया गया। विशेषज्ञ पैनल का संचालन सेंटर ऑफ सोशल मेडिसिन ऐंड कम्युनिटी हेल्थ (जेएनयू) की प्रोफेसर और क्राइ के बोर्ड ऑफ ट्रस्टीज़ की सदस्य ऋतुप्रिया जी ने किया।
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- जन्म के 7 दिनों के भीतर 82 प्रतिशत नवजात की हो गयी मौत
- 78 फीसद प्रसव संस्थागत हुए, लेकिन उनमें 86 फीसद एएनएम और केवल 14 फीसद डॉक्टर ने करवाये
- 93 फीसद महिलाओं को आंगनबाड़ी केंद्रों में पंजीकृत किया गया था
- 88 फीसद को आंगनबाड़ी या आशा कार्यकर्ता ने स्वास्थ्य संबंधी परामर्श दिया
- 11.2 फीसद को पूर्ण एएनसी (प्रसव पूर्व देखभाल) चेक-अप मिला
- केवल 28 फीसद माताओं ने बताया कि उनके बच्चों को जन्म के पहले सप्ताह में प्रसवोत्तर जांच मिली
कार्यक्रम को संबोधित करते हुए क्राइ की क्षेत्रीय निदेशक सोहा मोइत्रा ने कहा, “शिशुओं को समग्र देखभाल और सुरक्षा प्रदान करने के लिए विभिन्न कार्यक्रमों के माध्यम से क्राइ कौशाम्बी के 60 गांवों, वाराणसी के 50 गांवों (ग्रामीण) और सोनभद्र के 28 गांवों में काम कर रहा है। संस्थान को इस शोध के जरिये नवजात मृत्यु के पीछे के कारणो और इसे रोकने के लिए सिस्टम, समुदाय और व्यक्तिगत स्तर पर किए जा सकने वाली आवश्यक कार्रवाई को गहराई से तब्दील करने की आवश्यकता महसूस हुई”।
अध्ययन में यह भी पता चला कि अधिकतर महिलाओं का सामान्य प्रसव (89 प्रतिशत) था। उनमें लगभग आधी महिलाओं (44 प्रतिशत) में खून की कमी, वजन आदि के चलते उच्च जोखिम वाली गर्भावस्था थी। इन उच्च जोखिम वाले गर्भधारण में 29 प्रतिशत मामलों में प्रसव घर पर होने की सूचना दी गयी।
हर 10 में केवल 1 गर्भवती को मिला पूर्ण एएनसी चेकअप
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अधिकतर महिलाएं (93 प्रतिशत) ने आंगनबाड़ी केंद्रों में पंजीकृत थीं। उनमें 88 प्रतिशत ने आंगनबाड़ी कार्यकर्ता या आशा कार्यकर्ताओं से परामर्श प्राप्त किया था, हालांकि हर दस महिलाओं (11.2 प्रतिशत) में केवल एक ने कहा कि उन्हें पूर्ण एएनसी चेक-अप मिला है। आंगनबाड़ी और आशा कार्यकर्ताओं द्वारा सभी 4 निर्धारित एएनसी सुनिश्चित करने में चिंताजनक अंतर देखने को मिला।
93 फीसदी को मिला टीएचआर
गर्भवती और स्तनपान कराने वाली महिलाओं की पोषण संबंधी आवश्यकताओं से संबंधित निष्कर्षों को अगर देखा जाए तो यह पता चलता है कि 93 प्रतिशत महिलाओं ने टेक-होम-राशन (टीएचआर) प्राप्त करने की सूचना दी है, लेकिन 22 प्रतिशत ने इसका उपयोग अपनी स्वयं की आहार आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए नहीं किया। दस में एक ने यह भी कहा कि गर्भावस्था के दौरान उन्होंने एक दिन में 3 बार भोजन नहीं किया। हर 10 उत्तरदाताओं (39 प्रतिशत) से चार को केंद्रीय/ राज्य मातृत्व लाभ योजनाओं के तहत लाभ प्राप्त हुए, हालांकि उनमें अधिकांश आंगनबाड़ी केंद्रों पर पंजीकृत थे।
मोइत्रा ने कहा, “यह अध्ययन एक महत्वपूर्ण समय पर आ रहा है, जब सिस्टम पहले ही कोविड-19 महामारी द्वारा लायी गयी बाधाओं के कारण संघर्ष कर रहा है। इस महामारी ने स्वास्थ्य देखभाल सुविधाओं तक पहुंच के साथ बाल स्वास्थ्य और पोषण को सीधे प्रभावित किया है और गरीब और कमजोर बच्चों तक पहुंचाए जाने वाली स्वास्थ्य सुविधाओं को सीमित कर दिया है। हमें उम्मीद है कि यह अध्ययन और आज की चर्चा कोविड-19 महामारी और आने वाले समय में नवजात बच्चों के स्वस्थ जीवन के लिए प्रोग्रामिंग और नीतिगत हस्तक्षेप को लेकर मार्गदर्शन करने के लिए एक महत्वपूर्ण संसाधन के रूप में उपयोगी होगा।‘’
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अध्ययन के अनुसार 78 फीसदी प्रसव संस्थागत थे, लेकिन प्रसव के एक ही दिन में 69 प्रतिशत महिलाओं को अस्पताल से छुट्टी दे दी गयी। 28 प्रतिशत माताओं ने बताया कि उनके बच्चे की जन्म के बाद पहले सप्ताह में प्रसवोत्तर जांच हुई। जिन महिलाओं का संस्थागत प्रसव हुआ था, उनमें हर दस प्रसव में केवल एक में डॉक्टर द्वारा सहायता प्रदान की गयी थी यानी केवल 14 फीसदी प्रसव डॉक्टरों द्वारा करवाये गये जबकि 86 प्रतिशत प्रसव एएनएम ने ही किए।
कौशाम्बी में तो स्थिति और खराब है, यहां एएनएम द्वारा 88 प्रतिशत और केवल 12 प्रतिशत डॉक्टर द्वारा प्रसव करवाये गये। 17 प्रतिशत प्रसव ही किसी कुशल या प्रशिक्षित स्वस्थ्य कार्यकर्ता की मदद से किये गये।
प्रोफेसर ऋतु प्रिया ने बताया कि भारत का विश्व में होने वाले जीवित जन्म में 1/5 और नवजात शिशु मृत्यु में 1/4 से अधिक का योगदान है। भारत में 2018 में नवजात शिशु मृत्यु दर 1000 जीवित जन्मों पर 23 था (एसएसआर 2018)। कुल शिशु मृत्यु का 72 प्रतिशत और आधे से ज्यादा 5 साल तक के बच्चों की मृत्यु नवजात काल में आती है, पहले हफ्ते में होने वाली मृत्यु में कुल शिशु मृत्यु का अकेले 55 प्रतिशत हिस्सा है (एसएसआर 2018)।
यह अध्ययन ग्रामीण उत्तर प्रदेश के इलाकों की वास्तविकता को उजागर करता है। इतना ही नहीं, यह स्वास्थ्य सेवाओं का अभ्यास, उसकी पहुंच, उपलब्धता, सामर्थ्य और उपयोग को भी दर्शाता है। अध्ययन से दो प्रमुख निष्कर्ष निकालकर सामने आये हैं: पहला, महिलाओं में खून की कमी और गरीबी से उत्पन्न मातृ स्वास्थ्य की स्थिति की वजह से 30 फीसद से ज्यादा कम वजन वाले बच्चों (लो बर्थ वेट) की मृत्यु श्वसन संबंधी रोग की वजह से हो जाती है। दूसरा- सीमित सरकारी स्वास्थ्य सेवाएं, जिसके चलते सेवा प्रदाताओं और समुदाय के सदस्यों के बीच अविश्वास पैदा होता है, जो नवजात स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। पर्याप्त बुनियादी ढांचे और सही तरह से प्रशिक्षित कर्मचारियों की उपलब्धता में कमी और रोगियों के साथ सौहार्दपूर्ण बातचीत की कमी भी बड़ी समस्या बनकर सामने उभरी है। इन चुनौतियों में अधिकांश कोविड महामारी के कारण स्पष्ट हो गयी हैं और इसलिए यह सुनिश्चित करना ज़रूरी है कि मातृ और बाल स्वास्थ्य सेवाएं इस अवधि के दौरान अधिक सतर्कता के साथ कार्य करना जारी रखें।
ऋतुप्रिया, प्रोफेसर- सेंटर ऑफ सोशल मेडिसिन ऐंड कम्युनिटी हेल्थ, जेएनयू और सदस्य- बोर्ड ऑफ ट्रस्टीज़, CRY
कोविड-19 के चलते चुनौतियों पर प्रकाश डालते हुए श्रुति नागवंशी ने मातृ और बाल स्वास्थ्य सुविधाओं पर महामारी के कारण लगाये गये लॉकडाउन के प्रभावों के बारे मे बताया। उन्होंने कहा, ‘’हालाँकि अब यह व्यवस्था सामान्य हो रही है, लेकिन महामारी के डर और अनिश्चितता के कारण विशेष रूप से हाशिये के समुदायों के परिवारों को चिकित्सा से वंचित किया जा रहा है।‘’
विस्तारित एएनसी की आवश्यकता पर जोर देते हुए डॉ. नीलम ने कहा, “जैसा कि आंकड़ों से पता चलता है कि जन्म के 7 दिनों के भीतर अधिकांश नवजात मृत्यु हो रही है, इस प्रकार मातृ और बाल स्वास्थ्य को एक साथ एक फ्रेम में देखने की आवश्यकता है, विशेष रूप से जिले और ब्लॉक स्तर पर नवजात मृत्यु दर को प्रभावी ढंग से संबोधित करने के लिए ये बहुत आवश्यक है। यही नहीं, नवजात मृत्यु दर को समाप्त करने के लिए विस्तारित एएनसी की आवश्यकता है।”
सरकार द्वारा किये जा रहे प्रयासों के बारे मे जानकारी देते हुए डॉ. वेद प्रकाश ने कहा, “एसएसआर 2018 के आंकड़े यह दर्शाते हैं कि राज्य में 5 साल से कम उम्र के बच्चों और शिशु मृत्यु दर को कम करने में काफी बेहतर परिणाम देखने को मिले हैं। साथ ही, टीकाकरण में लगातार सुधार दिखायी दे रहा है, जिससे कम मौतें हो रही हैं। हालांकि, नवजात मृत्यु पर विशेष रूप से प्रारंभिक नवजात मृत्यु को रोकने के लिए गर्भावस्था के दौरान एएनसी और पोषण से जुड़े मुद्दों को संबोधित करने और जटिलताओं को भी दूर करने की आवश्यकता है। सिविल सोसाइटी जमीनी स्तर पर सरकारी हस्तक्षेप को प्रभावी ढंग से लागू करने में एक प्रासंगिक भूमिका निभाते हैं और प्रतिक्रिया और निवारण का एक बड़ा माध्यम हैं।”
(जन मित्र न्यास द्वारा जारी प्रेस विज्ञप्ति के आधार पर)